दरिद्र में नारायण की छवि देखने वाले इस देश में किसी को भी ऐसी तस्वीरें झकझोर देंगी। जिंदगी की तलाश में गांव से शहर में आए इन लोगों को अब दूसरों को मौत के करीब लाने की वजह बनते देखना चिंताजनक के साथ ही काफी पीड़ादायक है। लेकिन कैसी बिडंबना है कि इनकी लाचारी को भी अपने-अपने स्वार्थ और नजरिए के तराजू पर तौला जा रहा है। एक वर्ग बेबसी से उपजे गांव लौटने के फैसले को जनसंघारक मूर्खता निरूपित करके उनके दुःसाहस पर लानत भेज रहा है तो एक वर्ग इनकी बेचारगी के प्रति सहानुभूति जगाकर सरकार को कोस रहा है। इन दोनों अतिवादी आग्रहों से परे इनकी पीड़ा अदम गोंडवी के शब्दों में कुछ यूं बयां होती है-
यूं खुद की लाश अपने कंघे पर उठाए हैं
ऐ शहर के बाशिंदों! हम गांव से आए हैं।
लेकिन इनकी ये बेबसी अपनी जगह। ये सोचकर भी मन सिहर उठता है कि अगर इन लोगों में बीस-पच्चीस भी कोरोना पीड़ित हुए तो ये वायरस संवाहक लोग अपने गांव-घर पहुंच कर कैसी तबाही मचाएंगे। इस आशंका को भांपते हुए ही तो प्रधानमंत्री मोदी ने लॉक डाउन का ऐलान करते हुए हाथ जोड़कर विनती की थी कि- जो जहां है, वहीं रुका रहे। हालांकि ये भी सच्चाई है कि सरकार प्रति पलायन की इस भयावह तस्वीर का अनुमान लगाने में चूक गई। खैर, ये वक्त मीन-मेख निकालने का नहीं, बल्कि समाधान तलाशने का है। लिहाजा चिंता इस बात की करनी चाहिए कि लोग जब बेकाबू भीड़ की शक्ल में सड़कों पर उतर ही चुके हैं तो इन्हें वापस कैसे लॉक डाउन के दायरे में लाया जाए। अब केवल दो ही रास्ते बचे हैं। या तो इनके गुजर-बसर का बंदोबस्त करके इन्हें तुरंत वैकल्पिक ठौर-ठिकाना मुहैया कराया जाए, या फिर इन्हें इनके गांव के आसपास तक पहुंचाने का इंतजाम किया जाए। हालांकि दूसरा विकल्प काफी जोखिम भरा साबित हो सकता है। इस विकल्प को आजमाने से तो लॉकडाउन लागू करने के पीछे का मकसद ही खत्म हो जाता है। चुनौती वाकई बड़ी कड़ी है। बकौल निदा फाजली-
नैनों में था रास्ता, हृदय में था गांव
हुई न पूरी यात्रा, छलनी हो गए पांव।
छलनी पांव के साथ भूखे पेट यात्रा करते इन लोगों को भी मालूम है कि गांव में इन्हें कोई छप्पन भोग नहीं मिलने वाला है। इन्हें ये भी पता है कि गांव में रोजी-रोटी का कोई आसरा नहीं है। क्योंकि अगर ऐसा होता तो ये शहर में अपना पसीना बेचने के लिए जाते ही क्यों? अब जब ये घर वापसी कर रहे हैं तो अपनी इस नासमझी पर गाली खा रहे हैं। लेकिन क्या कीजिएगा जनाब? व्याकुलता और अकुलाहट में धैर्य और विवेक जवाब दे जाता है।
लेकिन ये कड़वी सच्चाई है कि ये समय भावुकता का नहीं बल्कि हालात की भयावहता को भांपते हुए प्रभावी कदम उठाने का है। सड़क पर उतरी भीड़ ने दो तरफा चुनौती पेश की है। एक तो इस भीड़ ने पहले ही सोशल डिस्टेंसिंग को अमल में लाने के लिए लागू किए गए लॉक डाउन की धज्जियां उड़ा दी है, और दूसरी चुनौती इस भीड़ का इस्तेमाल असंतोष को हवा देकर अराजकता फैलाने के मंसूबों को ध्वस्त करने की है।
लोगों को पैनिक करने वाले मैसेज सोशल मीडिया में वायरल हो रहे हैं। ऐसे ही एक वायरल मैसेज में 3 माह का राशन, EMI और सिलेंडर फ्री वाले फैसले को रामायण और महाभारत के 3 माह चलने वाले एपिसोड से जोड़कर लॉक डाउन की अवधि तीन महीने बढ़ाने की अफवाह फैलाई जा रही है। ऐसे मनगंठत संदेशों का लोगों का सब्र तोड़ कर उन्हें सड़क पर उतारने में बड़ा हाथ रहा है।
सावधान! एक बार फिर कौवे कान लेकर उड़ने लगे है।
सौरभ तिवारी
डिप्टी एडिटर, IBC24