हक के नाम पर नाहक पहल

हक के नाम पर नाहक पहल

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  • Publish Date - August 20, 2020 / 10:37 AM IST,
    Updated On - November 29, 2022 / 07:54 PM IST

भारत की राजनीति विरोधाभासों का समुच्चय है। एक तरफ संघीय भावना को मजबूत करने के लिए ‘वन नेशन-वन फलाना, वन नेशन-वन ढिकाना’ की नीति का राग अलापा जा रहा है तो दूसरी तरफ राज्यों में क्षेत्रीय अस्मिता और हितों के नाम पर अपनी अलग डफली बजाई जा रही है। अब सरकारी नौकरियों को ही लीजिए। केंद्र सरकार ने केंद्रीय सरकारी नौकरियों की भर्ती के लिए ‘एक राष्ट्र-एक परीक्षा’ की दिशा में कदम बढ़ाते हुए नेशनल रिक्रूटमेंट एजेंसी के गठन करने का फैसला किया है तो दूसरी तरफ मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार ने प्रदेश की सरकारी नौकरियों को केवल मध्यप्रदेश के निवासियों के लिए ही आरक्षित करने का ऐलान कर दिया है। तर्क वही पुराना है- संसाधनों पर पहला हक वाला।

27 सीटों पर होने जा रहे उपचुनावों के मद्देनजर शिवराज सरकार का ये बड़ा सियासी दांव माना जा रहा है। दांव चूंकि चुनावी है और प्रादेशिक भावना से जुड़ा है, इसलिए विपक्ष भी सवाल खड़ा कर पाने की स्थिति में नहीं है। लेकिन अगर इस निर्णय को राजनीतिक स्वार्थपरकता, चुनावी अवसरवादिता और प्रादेशिक भावुकता से परे रखकर कानूनसम्मत दृष्टिकोण से परखें तो इसकी वैधानिकता को लेकर प्रश्न खड़े हो जाते हैं।

पहली दृष्टि में ही शिवराज सरकार का ये निर्णय संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 का उल्लंघन करता दिखता है। अनुच्छेद 15 कहता है कि, राज्य अपने किसी नागरिक के साथ केवल धर्म, जाति, लिंग, नस्ल और जन्म स्थान या इनमें से किसी भी आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। वहीं अनुच्छेद 16 के मुताबिक राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी।

शिवराज को भी अपनी घोषणा के विधायी तौर पर कमजोर होने का भान है। इसीलिए उन्होंने साथ ही इस संबंध में जरूरी कानूनी प्रावधान करने की बात भी कह दी है। लेकिन प्रदेश सरकार का ये प्रावधान न्यायालय को भी स्वीकार्य होगा, इस पर संदेह है। ऐसा इसलिए क्योंकि इससे पहले भी स्थानीयता के आधार पर नौकरी आरक्षित करने की कोशिशें कुछ राज्यों में हुई हैं, जिन्हें कोर्ट समानता के अधिकार के विपरीत मानते हुए निरस्त कर चुकी हैं।

हालांकि कई राज्य क्षेत्रीयता के आधार पर सरकारी नौकरियां देने की कोशिश करते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, झारखंड, आंध्र प्रदेश, मेघालय, असम समेत कुछ राज्यों में ‘मूल निवासी’ या क्षेत्रीय भाषा जैसी अनिवार्यता लागू करके दूसरे रास्ते से ‘अपने’ लोगों को नौकरियों में वरीयता दी जा रही है। कहीं इसका प्रतिशत ज्यादा है, तो कहीं कम। लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने तो अपने 100 फीसदी पदों पर अपने ही निवासियों को नौकरी दिए जाने का ऐलान कर दिया है। चतुर्थ श्रेणी जैसे पदों पर स्थानीयता के आधार पर आरक्षण की बात एक बारगी समझ में भी आती है, लेकिन शतप्रतिशत पदों को आरक्षण के दायरे में ला देना समझ से परे है। ये नासमझी ही इस फैसले की कानूनी वैधता की राह में बड़ी रुकावट बनेगा।

शिवराज सरकार की इस घोषणा का क्या कानूनी परिणाम होगा ये तो खैर बाद में पता चलेगा, लेकिन इस पहल ने दूसरे राज्यों को भी अपने क्षेत्रीय राजनीतिक हितों की खातिर संघीय ढांचे की भावना के विपरीत आचरण का नया मार्ग खोल दिया है। आज मध्यप्रदेश ने अपनी नौकरी अपने निवासियों के लिए आरक्षित करने का कदम उठाया है, कल कोई दूसरा और परसो कोई तीसरा राज्य अपनी नौकरियों पर अपने लोगों का ही अधिकार सिद्ध करेगा। क्षेत्रवाद और भाषायी राजनीति के लिए पहचाने जाने वाले कुछ विशेष राज्यों में तो परप्रांतियों को मिले रोजगार के विरुद्ध पहले से ही उन प्रदेशों के क्षेत्रीय दलों ने मोर्चा खोल रखा है। क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर अब अगर भाजपा जैसा राष्ट्रीय दल भी वैसा ही संकीर्ण आचरण बरतने लगे तो संविधान में निहित संघीय भावना का क्या हश्र होगा, ये सोचने वाली बात है।

लेकिन राजनीतिक हित के आगे अब भला वैधानिक नैतिकता और शुचिता की किसे परवाह है? सो शिवराज ने अपनी सरकार के भविष्य के लिए निर्णायक सिद्ध होने वाले उपचुनाव के महत्व को भांपते हुए तुरुप का पत्ता चल दिया है। चूंकि चाल सियासी है अतएव कांग्रेस ने भी दो कदम आगे जाकर निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी मध्यप्रदेश के युवाओं के लिए आरक्षण की मांग करके नया दांव चल दिया है। कमलनाथ अपनी सरकार में रहते 2018 में उद्योगों और निजी क्षेत्र की नौकरी में मध्य प्रदेश के युवाओं को नौकरी में 70% आरक्षण का प्रावधान कर भी चुके थे। हालांकि इस पर जब तक अमल हो पाता, उन्हें ज्योतिरादित्य सिंधिया की वजह से कुर्सी से हाथ धोना पड़ गया।

बुराई सदैव किसी दूसरी नई बुराई को ही जन्म देती है। इसलिए आज कांग्रेस ने शिवराज के सरकारी नौकरियों में स्थानीयता के आरक्षण के चुनावी मुद्दे की काट के तौर पर निजी क्षेत्र में स्थानीयता के आरक्षण की मांग उठाई है, तो कल भाजपा इसकी काट के तौर पर निजी क्षेत्र में जातिगत आरक्षण का मुद्दा उठाकर नई बुराई को जन्म दे सकती है। इब्तिदा-ए-सियासत है रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या।

 

सौरभ तिवारी

डिप्टी एडिटर, IBC24

 

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