#NindakNiyre: गंगा जमुना सरस्वती फिल्म की किस्सागोई और पठान पर विवाद तक बदलते दर्शक व फिल्मी प्रभाव
Controversy over Pathan : आज जब पठान पर विवाद आया तो याद आता है छुटुआ ने गंगा जमुना सरस्वती फिल्म की कहानी कैसे सुनाई थी।
Shah Rukh-Deepika's film Pathan will earn so many crores on the very first day
बरुण सखाजी, राजनीतिक विश्लेषक, आईबीसी-24
Controversy over Pathan : छुटुआ जब साइंखेड़ा जाता तो वीडियो जरूर देखता। साईंखेड़ा एक बड़ा गांव है, जहां अस्सी-नब्बे के दशक में भी हर बुधवार को साप्ताहिक बाजार के दिन सिनेमा आता था। 1 रुपए की टिकट में यहां तबकी सुपरहिट फिल्में वीडियो में दिखाई जाती थी। उस समय वीडियो का अर्थ आज का वीडियो नहीं, बल्कि सिर्फ फिल्म दिखाने वाली रंगीन टीवी था। गांव में घर के पीछे बने घूड़े के पास हम चार-पांच दोस्त छुटुआ से पूरी फिल्म की लाइव कहानी सुनते थे। छुटुआ की कहानी सुनाने की शैली जोरदार थी और कथानक को जैसे वह दिमाग में रिकॉर्ड करके रखता था।
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बुधवार शाम या गुरुवार सुबह ही यह किस्सा हम तक पहुंच जाता। गांव में रहने के दौरान फिल्मे सिर्फ दूरदर्शन पर हर रविवार को ही फिल्में देखने को मिल पाती थी। वे भी कई बार ऐन 4 बजे लाइट कटने से अधूरी तो कभी एंटीना खराब होने से मच्छर वाले पिक्स के साथ तो कभी डिम लाइट होने से हिलती तस्वीरों के साथ ही देख पाते। फिल्मों की जो तृप्ति है वह छुटुआ के मुंह से कहानी सुनकर ही पूरी हो पाती थी। संभ्रांत, पढ़े-लिखे, सामंती ग्रामीण परिवार से होने के नाते साप्ताहिक बाजारों में जाना, सिनेमा देखना, गांव के बच्चों के साथ हुड़दंग करते हुए घूमना, गाली-गलौच आदि सब वर्जित था। छुटुआ हमारे एक कामगार का बेटा था। इस नाते उसके साथ समय-सीमा में खेलने की इजाजत थी। तभी वह कहानी सुनाया करता।
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आज जब पठान पर विवाद आया तो याद आता है छुटुआ ने गंगा जमुना सरस्वती फिल्म की कहानी कैसे सुनाई थी। उस दौर में प्यार शब्द फिल्मों से ही जीवन में आया था। इसके उच्चारण में भी हल्कापन लगता था। यूं कि प्यार जैसे ही बोलेंगे तो ऐसा लगेगा एक लड़का एक लड़की के साथ सेक्स की पुकार कर रहा है। छुटुआ ने भी इस शब्द को सीधे बोला। जमुना पानी में भीग जाती है। अबिताब (अमिताभ बच्चन) गर्मी देने के बहाने उसकी…रहा होता है। (… का मतलब सेक्स कर रहा होता है समझें)। उस वक्त इस शब्द ने मन में कोई अलग प्रभाव नहीं डाला। लेकिन जब आज पठान के भगवा रंग और बेशर्म रंग वाले विवाद को देखता हूं तो लगता है वास्तव में अगर छुटुआ आज यह बोल दे कि अबिताब जमुना की… रहा था, तो बवाल मच जाए। फिल्में आम से आम मन-मानस पर गहरा और दोहरा असर छोड़ती हैं। इसलिए इनके कंटेंट में जिम्मेदारी का भाव होना ही चाहिए।
क्या ये बवाल हमारे जेहन में बोए गए हैं? या इन्हें हमने ही विकसित किया है? क्या हम ऐसा कोई युग बनाना चाहते हैं, जहां हर चीज पर विवाद हो? समझना मुश्किल है। किंतु यह जरूर कहा जा सकता है कि फिल्मों के जरिए अपना एजेंडा साधने वालों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। हो सकता है अभी के विवाद बेसलैस हों, किंतु फिल्मों ने भारत, भारतीयता को चालाकी से प्रदूषित करने में अहम भूमिका निभाई ही है। पठान इसमें निर्दोष हो, लेकिन विरोधियों का एक्स्ट्रा कॉन्शियस होकर हमलावर होना अकारण नहीं।

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