मां की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा पा चुके व्यक्ति को न्यायालय ने बरी किया

मां की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा पा चुके व्यक्ति को न्यायालय ने बरी किया

मां की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा पा चुके व्यक्ति को न्यायालय ने बरी किया
Modified Date: October 7, 2025 / 08:22 pm IST
Published Date: October 7, 2025 8:22 pm IST

नयी दिल्ली, सात अक्टूबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने उस व्यक्ति को मंगलवार को बरी कर दिया, जिसे अपनी मां की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। शीर्ष अदालत ने कहा कि अभियोग की शुरुआत और आधार को लेकर ‘‘रहस्य’’ बना हुआ है।

न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने मुंबई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ के जुलाई 2013 के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें 2010 के मामले में व्यक्ति की दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया था।

अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि मृतक का अंतिम संस्कार जल्दबाजी में किया जा रहा था तथा गर्दन पर गला घोंटने के निशान तथा खोपड़ी के पिछले हिस्से पर चोट के निशान पाए जाने के बाद शव को चिता से हटा दिया गया था।

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पीठ ने कहा कि यह मामला पूरी तरह परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है। पीठ ने कहा कि अभियोग की शुरुआत और आधार को लेकर ‘‘रहस्य’’ बना हुआ है।

पीठ ने अभियोजन पक्ष के चार गवाहों की गवाही का उल्लेख किया, जिनमें कुछ पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं, जिन्होंने स्वीकार किया था कि वे सभी 22 जुलाई 2010 की सुबह कथित तौर पर दाह संस्कार के पहले प्रयास के स्थल पर मौजूद थे।

पीठ ने उनकी गवाही को पूरी तरह से पढ़ने के बाद कहा, ‘‘हमारे मन में अब भी यह संदेह बना हुआ है कि उस समय, स्थान और कथित घटना से आगे कोई सुराग क्यों नहीं जुटाया गया और दाह संस्कार का आयोजन किसने किया था, इस बारे में आगे कोई जांच क्यों नहीं की गई।’’

पीठ ने कहा कि वहां जमा भीड़ से कोई सुराग नहीं जुटाया गया और न ही अदालत में किसी से जिरह की गई।

पीठ ने कहा कि मृतक के अंतिम संस्कार के कथित प्रयास में जमा हुई भीड़ की पड़ताल नहीं किया जाना समझ से परे है।

पीठ ने कहा कि कोई निश्चित चिकित्सा राय नहीं थी और चिकित्सा विशेषज्ञ के साक्ष्य में काफी अस्पष्टता को देखते हुए, आत्महत्या से मौत की संभावना को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता।

पीठ ने कहा कि अपीलकर्ता की ओर से पेश हुए वकील ने दलील दी कि जांच के दौरान, पुलिस को लातूर के एक अस्पताल द्वारा जारी 26 सितंबर, 1989 का एक प्रमाण-पत्र मिला था, जिसमें संकेत दिया गया था कि मृतक सिजोफ्रेनिया से पीड़ित थी।

शीर्ष अदालत ने कहा कि यह आरोप लगाया गया था कि अपीलकर्ता ने संपत्ति के लिए अपनी मां की हत्या की।

पीठ ने कहा, ‘‘अभियोजन पक्ष (अपराध का) मकसद सामने रखने के बाद उसे साबित करने में बुरी तरह विफल रहा है। यह रिकॉर्ड में आया है कि अपीलकर्ता के पिता और दो बहनें जीवित हैं।’

पीठ ने कहा कि निचली अदालतों ने रिकॉर्ड में मौजूद साक्ष्यों के आधार पर अपीलकर्ता को दोषी ठहराने में गंभीर गलती की है।

पीठ ने अपीलकर्ता द्वारा दायर अपील को स्वीकार करते हुए उसे सभी आरोपों से बरी कर दिया।

इस मामले में निचली अदालत ने दो व्यक्तियों को दोषी ठहराया था और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता की दोषसिद्धि को बरकरार रखा था, जबकि अन्य व्यक्ति को बरी कर दिया था।

भाषा अमित सुरेश

सुरेश


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