नयी दिल्ली, पांच अक्टूबर (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को दिल्ली सरकार और राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण से उस याचिका का जवाब देने को कहा, जिसमें अपने मामलों से जुड़े दस्तावेज हासिल करने में असमर्थ विचाराधीन कैदियों को प्राथमिकी, आरोप पत्र, सबूत और अदालती आदेशों की प्रतियां उपलब्ध कराने का आग्रह किया गया है।
मुख्य न्यायाधीश डी एन पटेल और न्यायमूर्ति ज्योति सिंह की पीठ ने याचिका पर दिल्ली सरकार और दिल्ली राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (डीएसएलएसए) को नोटिस जारी किया और मामले को 29 नवंबर को आगे की सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया।
याचिका में कहा गया है कि कोविड-19 वैश्विक महामारी और निचली अदालतों के सीमित रूप से काम करने के कारण कई विचाराधीन कैदियों के पास प्राथमिकी, आरोप पत्र, दर्ज सबूतों और उनके मामलों से संबंधित प्रासंगिक आदेशों की प्रतियों जैसे दस्तावेज नहीं हैं और वे जमानत याचिका या अंतरिम जमानत याचिका जैसी कानूनी सहायता प्राप्त नहीं कर पा रहे।
यह याचिका दिल्ली उच्च न्यायालय विधिक सेवा समिति के सदस्य और वकील आलोक त्रिपाठी ने दायर की है। याचिका में कहा गया है कि ये विचाराधीन कैदी ऐसी स्थिति में फंसे हुए हैं कि उनके मुकदमे न तो आगे बढ़े हैं और न ही वे कानूनी उपायों का लाभ उठा पाए हैं, जो कानून के तहत प्रदत्त उपायों का इस्तेमाल करने के उनके मौलिक अधिकार का गंभीर उल्लंघन है। इसमें कहा गया है कि इन कैदियों ने दस्तावेज हासिल करने के लिए विभिन्न आवेदन दिए, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ।
त्रिपाठी ने कहा कि उन्हें नाबालिगों के खिलाफ यौन अपराधों और बलात्कार में कथित रूप से शामिल कई ऐसे कैदी केंद्रीय कारागार में मिले, जिनके पास उनकी प्राथमिकी, आरोप पत्र, सबूत या निचली अदालत की कार्यवाही से जुड़े अन्य दस्तावेज नहीं हैं।
याचिका में डीएसएलएसए द्वारा जारी सात जनवरी, 2019 के परिपत्र को भी चुनौती दी गई है, जो कैदियों को उनके दस्तावेजों की प्रति प्राप्त करने से रोकता है और विचारधीन कैदियों पर डीएलएसए कानूनी सहायता के जरिए दस्तावेजों की प्रमाणित प्रति प्राप्त करने के लिए निजी वकील की सेवाएं लेने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है।
भाषा सिम्मी माधव
माधव
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