तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं से जुड़े कानून में उनकी गरिमा को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए: न्यायालय

तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं से जुड़े कानून में उनकी गरिमा को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए: न्यायालय

तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं से जुड़े कानून में उनकी गरिमा को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए: न्यायालय
Modified Date: December 2, 2025 / 10:58 pm IST
Published Date: December 2, 2025 10:58 pm IST

नयी दिल्ली, दो दिसंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए 1986 में बनाए गए कानून में समानता, गरिमा और स्वायत्तता को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए तथा महिलाओं को होने वाले अनुभवों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि खासकर छोटे शहरों व ग्रामीण इलाकों में अंतर्निहित पितृसत्तात्मक भेदभाव अब भी आम है।

न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने इस कानूनी प्रश्न की व्याख्या करते हुए यह टिप्पणी की कि क्या विवाह के समय किसी मुस्लिम महिला के पिता द्वारा उसे या दूल्हे को दी गई वस्तुएं, तलाक के बाद विवाह समाप्त होने पर कानून के अनुसार महिला को वापस की जा सकती हैं।

शीर्ष अदालत ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें एक महिला के पूर्व पति के पक्ष में फैसला सुनाया गया था और उसे (पति को) उस सामान का कुछ हिस्सा वापस करने से राहत दी गई थी, जिसके बारे में महिला पक्ष ने दावा किया था कि यह सामान पुरुष को उनकी शादी के समय दिया गया था।

 ⁠

यह मामला मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा-3 के तहत दायर किया गया। इस मामले में 17.67 लाख रुपये से अधिक राशि वापस किए जाने का आदेश देने का अनुरोध किया गया था।

पीठ ने कहा कि इस मामले में दो व्याख्याओं की संभावना है और यह स्थापित नियम है कि यह न्यायालय संविधान के अनुच्छेद-136 के तहत प्राप्त व्यापक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए केवल इस आधार पर उच्च न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करता कि दो अलग-अलग दृष्टिकोण संभव हैं।

उसने कहा कि यह अपवाद इस मामले में लागू नहीं होता, क्योंकि उच्च न्यायालय उद्देश्यपरक व्याख्या के सिद्धांत पर विचार करने में विफल रहा और उसने इस मामले का केवल एक दिवानी विवाद के रूप में निपटारा किया।

पीठ ने कहा, ‘‘भारत का संविधान सभी के लिए एक आकांक्षा यानी समानता निर्धारित करता है, जिसे वास्तव में प्राप्त किया जाना अभी बाकी है। न्यायालयों को इस दिशा में अपना योगदान देते हुए अपने तर्क को सामाजिक न्याय से प्रेरित निर्णय पर आधारित करना चाहिए।’’

उसने कहा, ‘‘संदर्भ दिया जाए तो 1986 के अधिनियम का उद्देश्य एक मुस्लिम महिला को तलाक के बाद गरिमा और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना है, जो संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत प्रदत्त उसके अधिकारों के अनुरूप है।’’

पीठ ने कहा, ‘‘लिहाजा इस अधिनियम की व्याख्या करते समय समानता, गरिमा एवं स्वायत्तता को सर्वोपरि रखना आवश्यक है और इसे महिलाओं के जीवन के वास्तविक अनुभवों के प्रकाश में देखा जाना चाहिए, क्योंकि खासकर छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में अंतर्निहित पितृसत्तात्मक भेदभाव आज भी व्यापक रूप से मौजूद है।’’

शीर्ष अदालत ने महिला की अपील को स्वीकार कर लिया तथा उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया।

पीठ ने महिला के वकील से कहा कि वह फैसले की तारीख से तीन कार्यदिवस के भीतर उसके बैंक खाते का विवरण और अन्य संबंधित जानकारी उसके पूर्व पति के वकील को उपलब्ध कराएं।

उसने कहा, ‘‘राशि सीधे अपीलकर्ता (पत्नी) के बैंक खाते में भेजी जाए। प्रतिवादी (पूर्व पति) को निर्देश दिया जाता है कि वह छह सप्ताह के भीतर इस अदालत की रजिस्ट्री में अनुपालन का शपथपत्र दाखिल करे। उक्त अनुपालन प्रमाणपत्र अभिलेख का हिस्सा बनाया जाएगा। यदि आवश्यक कार्रवाई समय पर नहीं की गई, तो प्रतिवादी को नौ प्रतिशत वार्षिक ब्याज के साथ राशि चुकानी होगी।’’

याचिकाकर्ता और प्रतिवादी का विवाह 28 अगस्त 2005 को हुआ था, लेकिन इसके तुरंत बाद ही दोनों के बीच मतभेद हो गए और महिला मई 2009 में अपने ससुराल से चली गई।

इसके बाद, महिला ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (पत्नी, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण का आदेश) के तहत एक आवेदन दायर किया और भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए (पति या पति के रिश्तेदार द्वारा महिला के साथ क्रूरता) के तहत कार्यवाही शुरू की।

आखिरकार, 13 दिसंबर 2011 को तलाक हुआ और इसके बाद महिला ने 1986 के ‘मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम’ की धारा तीन के तहत अदालत का रुख किया तथा 17.67 लाख रुपये से अधिक की राशि/सामान वापस किए जाने का अनुरोध किया।

भाषा सिम्मी पारुल

पारुल


लेखक के बारे में