नयी दिल्ली, 13 नवंबर (भाषा) योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने बृहस्पतिवार को कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत-अमेरिका परमाणु करार के जरिये यह स्थापित किया कि उन्हें पता था कि जरूरत पड़ने पर राजनीति कैसे करनी है। उन्होंने कहा कि हालांकि, इस समझौते की अब भी ‘‘उपयुक्त रूप से सराहना नहीं की गई है।’’
प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं पुस्तकालय के ‘सेंटर फॉर कंटेम्पररी स्टडीज’ द्वारा आयोजित प्रधानमंत्री व्याख्यान शृंखला के तहत ‘डॉ. मनमोहन सिंह का जीवन एवं विरासत’ विषय पर व्याख्यान देते हुए अहलूवालिया ने कहा कि यदि परमाणु करार पर हस्ताक्षर नहीं किये गए होते तो रक्षा एवं सुरक्षा के क्षेत्र में मौजूदा सहयोग संभव नहीं होता।
इस कार्यक्रम में, दिवंगत मनमोहन सिंह की पत्नी गुरशरण कौर तथा प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं पुस्तकालय के अध्यक्ष नृपेन्द्र मिश्रा भी उपस्थित थे।
भारत-अमेरिका परमाणु करार को पूर्व प्रधानमंत्री सिंह का ‘कुशलतापूर्ण कार्य’ बताते हुए अहलूवालिया ने कहा कि कांग्रेस, वाम दल और यहां तक कि भाजपा का एक बड़ा वर्ग नहीं चाहता था कि परमाणु करार पर हस्ताक्षर हो तथा इसे पारित कराने के लिए काफी ‘‘राजनीतिक जोड़-तोड़’’ करनी पड़ी।
सिंह के करीबी सहयोगी अहलूवालिया ने कहा, ‘‘यह उनका (सिंह का) एक बहुत ही कुशलतापूर्ण कार्य था। अंततः, इसी वजह से उन्होंने श्रीमती (सोनिया) गांधी को अपना इस्तीफा देने की पेशकश की थी, क्योंकि उन पर बहुत दबाव था। वाम दलों ने असल में कहा था कि ‘हम सरकार से बाहर निकल जाएंगे’, हालांकि यह स्पष्ट नहीं था कि किस आधार पर।’’
अहलूवालिया ने अपने व्याख्यान में कहा, ‘‘लेकिन मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी को मना लिया, जिन्होंने उन्हें ऐसा करने की अनुमति दे दी। वाम दलों ने अविश्वास प्रस्ताव लाने की धमकी दी, लेकिन उन्होंने (सिंह) परमाणु करार पर विश्वास मत हासिल करके उसे भी मात दे दी।’’
उन्होंने बताया कि वाम दलों ने इसके खिलाफ मतदान किया, लेकिन सिंह समाजवादी पार्टी को साथ करने में सफल रहे, जिसके लिए उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति (ए पी जे अब्दुल) कलाम से मदद मिली। उन्होंने बताया कि कलाम ने मुलायम सिंह से बात की थी।
अहलूवालिया ने कहा, ‘‘(इसमें) एक ऐसे व्यक्ति द्वारा बहुत अधिक राजनीतिक जोड़-तोड़ गया, जिसे राजनेता के रूप में नहीं देखा जाता था। मुझे लगता है कि भारत-अमेरिका परमाणु करार ने यह स्थापित कर दिया कि वह (सिंह) जानते थे कि जब उन्हें लगता था कि राजनीति वास्तव में जरूरी है, तब कैसे राजनीति की जाए। और, मुझे लगता है कि अब भी इसकी उपयुक्त रूप से सराहना नहीं की जाती है।’’
उन्होंने कहा कि यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि समूची कांग्रेस असैन्य परमाणु करार के खिलाफ थी, ‘‘लेकिन मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि उनमें से एक बहुत बड़ी संख्या इसके बिल्कुल खिलाफ थी।’’
अहलूवालिया ने कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता कि वे इसका मतलब समझते हैं। इसे सरकार की एक चूक कहा जा सकता था।’’
उन्होंने कहा कि ऐसे समय में जब जलवायु परिवर्तन और परमाणु ऊर्जा पर चर्चा हो रही है, क्या भारत छोटे मॉड्यूलर रिएक्टरों की बात कर रहा है?
उन्होंने कहा,‘‘… बशर्ते हम केवल भारतीय प्रौद्योगिकी का उपयोग करने का इरादा न रखें, जो एक बहुत बड़ी बाधा होगी। मुझे लगता है कि हमें विदेशी प्रौद्योगिकी लाने की जरूरत है जिससे भारतीय प्रौद्योगिकी प्रतिस्पर्धा कर सके, और अगर परमाणु करार नहीं हुआ होता तो यह सब संभव नहीं होता।’’
अहलूवालिया ने यह भी कहा कि हम जिन परमाणु प्रतिबंधों से गुजरेंगे, उनके तहत भारत यूरेनियम का आयात नहीं कर सकता क्योंकि यूरेनियम निषिद्ध परमाणु व्यापार का हिस्सा है क्योंकि उसने एनपीटी (परमाणु अप्रसार संधि) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं।
उन्होंने कहा, ‘‘अगर हमारा घरेलू यूरेनियम सभी रिएक्टरों को ईंधन देने के लिए पर्याप्त होता, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन ऐसा नहीं था और हमारी रिएक्टर क्षमता धीरे-धीरे कम होती जा रही थी।’’
उन्होंने कहा कि परमाणु ऊर्जा विभाग परमाणु करार के पक्ष में नहीं था।
अहलूवालिया ने कहा, ‘‘मनमोहन सिंह ने करार पर हस्ताक्षर करते समय डॉ. अनिल काकोडकर को साथ लिया था, लेकिन किसी तरह उनके सभी पूर्ववर्ती एकजुट हो गए और एक प्रस्ताव पारित कर दिया कि इससे कुछ न कुछ ख़तरा पैदा होगा।’’
उन्होंने कहा, ‘‘यह सच है कि कांग्रेस, वाम दल और कुछ हद तक भाजपा के भीतर भी अमेरिका को लेकर संदेह था — शायद इसलिए कि उन्हें लगता था कि बांग्लादेश (मुक्ति संग्राम) के दौरान उन्होंने बंगाल की खाड़ी में एक परमाणु वाहक पोत भेजा था।
उन्होंने कहा, ‘‘लोगों को लगा था कि हम अनावश्यक रूप से अमेरिका के करीब जा रहे हैं और इस पर आपत्ति जताने की ज़रूरत है। मुझे लगता है कि यह गलत था। लेकिन, सवाल यह है कि यह हमारे लिए अच्छा है या बुरा, यही मुद्दा है।’’
भाषा सुभाष प्रशांत
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