हिंसा से प्रभावित मणिपुर में युवाओं ने गांवों की ‘रक्षा’ के लिए उठाए हथियार

हिंसा से प्रभावित मणिपुर में युवाओं ने गांवों की ‘रक्षा’ के लिए उठाए हथियार

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  • Publish Date - May 5, 2024 / 05:17 PM IST,
    Updated On - May 5, 2024 / 05:17 PM IST

(गुंजन शर्मा)

इंफाल/चुराचांदपुर, पांच मई (भाषा) मणिपुर के कौट्रुक गांव के आसपास हर दिन सुबह और रात की पाली में हथियारबंद युवाओं का समूह सड़कों पर गश्त करता है। उनका मकसद पिछले साल से मेइती और कुकी के संघर्षरत गुटों से निवासियों को सुरक्षित रखना है।

इन युवाओं में अधिकतर 20 से 30 वर्ष की आयु के बीच के हैं। वे अपने को स्वयंसेवक करार देते हुए कहते हैं कि उन्होंने अपने लोगों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी ली है क्योंकि सुरक्षा बल ‘‘हमारी रक्षा के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा सके।’’

इंफाल घाटी में स्थित कोट्रुक राज्य के कई गांवों में से एक है, जिसकी रक्षा का जिम्मा ‘‘ग्राम स्वयंसेवक’’, ‘‘ग्राम स्वयंसेवक बल’’, ‘‘ग्राम रक्षा बल’’ और ‘‘ग्राम सुरक्षा बल’’ नामक समूह संभाल रहे हैं। अधिकारियों का कहना है कि ये समूह किसी सुरक्षा एजेंसी या सशस्त्र बलों से नहीं जुड़े हैं।

बुनियादी युद्ध रणनीति में प्रशिक्षित, ग्रामीण बलों ने अपने क्षेत्रों को जातीय हिंसा से सुरक्षित रखने का संकल्प लिया है। पिछले साल से हिंसा में कई लोग मारे गए, घायल हुए और विस्थापित हुए।

घाटी के गांवों और पर्वतीय इलाकों में चुराचांदपुर में उनकी उपस्थिति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वे वर्दी में रहते हैं और उन्हें रेत की बोरियों से बने बंकरों पर मोर्चा संभाले या हथियारों के साथ गश्त करते देखा जा सकता है। वे लाठी, डंडों और राइफल से लैस रहते हैं। इनमें से कुछ हथियार देश-निर्मित और कुछ चोरी या तस्करी करके लाए गए हैं।

गश्ती ड्यूटी पाली के माध्यम से सौंपी जाती है। प्रत्येक पाली छह से सात घंटे के बीच होती है, जिसमें पांच से छह लोगों के छोटे समूह राजमार्गों, गांव की सड़कों और पर्वतों तथा घने जंगलों से गुजरने वाले संकीर्ण रास्तों पर नजर रखने के लिए भेजे जाते हैं।

एक गांव के स्वयंसेवक ने नाम नहीं छापने की शर्त पर ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘स्पष्ट रूप से हमारे (सुरक्षा) बल हमारी रक्षा के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर सके। अब, हम जानते हैं कि हमारी सुरक्षा सुनिश्चित करने के कार्य में उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसलिए, हमें इसे खुद करना है और हमने अपनी क्षमता के मुताबिक ऐसा करने का निर्णय लिया…हमें मामलों को अपने हाथों में लेने के लिए मजबूर किया गया।’’

उन्होंने कहा कि गश्त काफी असरकारक है, लेकिन ड्रोन की मदद ने टीम को व्यापक क्षेत्र पर निगरानी रखने में मदद दी है।

स्वयंसेवक ने कहा, ‘‘पहले, हम निगरानी रखने के लिए ड्रोन का संचालन कर रहे थे, लेकिन अब केंद्रीय सुरक्षा बलों द्वारा जैमर लगाए गए हैं इसलिए, हम अब इस तरह से हालात का आकलन नहीं कर सकते।’’

‘पीटीआई’ की रिपोर्टर ने इन स्वयंसेवकों के एक शिविर का दौरा किया, जिनमें से अधिकतर अपनी रोजी रोटी के लिए खेती पर निर्भर हैं। ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने अपने गांवों की सुरक्षा के लिए अपनी नौकरी या पढ़ाई छोड़ दी। उन्होंने रिपोर्टर को घरों की दीवारों पर गोलियों से बने सुराख और खतरों को विफल करने के लिए किए गए बंदोबस्त दिखाए।

जैसे ही कुछ स्वयंसेवक सुबह की गश्त के लिए तैयार होते हैं, अन्य भोजन पकाने सहित दैनिक कार्यों में भाग लेते हैं। इनमें महिलाएं भी शामिल हैं।

हिंसा की एक घटना को याद करते हुए, एक अन्य स्वयंसेवक ने कहा, ‘‘हम रात का खाना खा रहे थे जब ऊपर (पर्वतीय इलाकों) से गोलियां बरसने लगीं.. हमें लगा कि हम अंदर सुरक्षित हैं। लेकिन एक गोली हमारी दीवार को भेद गई…किस्मत से मेरे पिता इससे बच गये।’’

उन्होंने कहा, ‘‘अगली सुबह, हमने महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों को घाटी में राहत शिविरों में भेजने और अपने बंकर स्थापित करने का फैसला किया।’’

अपने प्रशिक्षण के बारे में, एक अन्य गांव के स्वयंसेवक ने कहा, ‘‘यह 20 दिनों से लेकर दो महीने तक का था, जिसमें बुनियादी एनसीसी कौशल का प्रशिक्षण भी शामिल था। कुछ प्रशिक्षण देश-निर्मित हथियारों का भी था।’’ स्वयंसेवक ने इस पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया कि उन्हें किसने प्रशिक्षित किया।

स्थानीय अधिकारी सावधानी बरतते हैं और उनकी गतिविधियों को तब तक अनुमति देते हैं जब तक वे ‘‘शांतिपूर्ण रहें।’’

एक अधिकारी ने पहचान जाहिर नहीं करने का अनुरोध करते हुए कहा, ‘‘हम उनकी उपस्थिति को जानते हैं…हम तब तक आपत्ति नहीं करते जब तक वे सुरक्षा बलों या सरकारी अधिकारियों के सामने हथियारों के साथ नहीं आते क्योंकि तब हम (आग्नेयास्त्र) लाइसेंस मांगने और शस्त्र अधिनियम के तहत कार्रवाई करने के लिए बाध्य हैं। जब तक वे शांतिपूर्वक सुरक्षा कर रहे हैं, हम हस्तक्षेप नहीं करते।’’

जातीय हिंसा के बाद पर्वतीय और घाटी के क्षेत्रों को चिह्नित किया गया है-कुछ स्थानीय लोग इसे ‘‘नयी सीमाएं’’ बताते हैं। इन सीमाओं पर निगरानी रखने वाले ये स्वयंसेवक हैं, जो ‘‘अवांछित घुसपैठ’’ को रोकने के लिए वहां से गुजरने वाले वाहनों की जांच करते हैं और कभी-कभी लोगों की तलाशी लेते हैं।

चाहे वह बिष्णुपुर और चुराचांदपुर के बीच की सीमा हो, या इंफाल पश्चिम और कांगपोकपी के बीच की सीमा हो, शत्रु देश की सीमाओं की तरह स्थिति अनिश्चित बनी हुई है।

ये स्वयंसेवक कमांडरों के अधीन काम करते हैं। इनकी संख्या 50,000 से ज्यादा है। मेइती-प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में और कुकी क्षेत्रों में बड़ी संख्या में इनकी तैनाती रहती है।

कुकी और मेइती समुदाय के लोग पर्वतीय और घाटी के इलाकों के बीच यात्रा नहीं कर सकते।

नगा और मुस्लिम और अन्य समुदाय के लोग क्षेत्रों के बीच आ-जा सकते हैं, हालांकि उन्हें कुछ जांच से गुजरना होता है। उन्हें सीमा चौकियों से पहरे में पहुंचाया जाता है।

इस महीने की शुरुआत में चुराचांदपुर की यात्रा करने वाली ‘पीटीआई’ की रिपोर्टर को इनमें से चार चौकियों पर रोका गया। उनसे कई सवाल पूछे गए, जिनमें यह भी शामिल था कि वह कहां जा रही हैं, किससे मिल रही हैं और क्या वह जिस व्यक्ति से मिल रही हैं वह कोई सरकारी अधिकारी या नागरिक समाज समूह का नेता है?

बिष्णुपुर चौकी पर एक स्वयंसेवक ने कहा, ‘‘हम हर वाहन को रोकते हैं और लोगों से पहचान पत्र दिखाने को कहते हैं। हम एक रजिस्टर रखते हैं कि कौन आ रहा है और किस उद्देश्य से आ रहा है। हम यह सुनिश्चित करने के लिए निगरानी रखते हैं कि मेइती समुदाय का कोई भी सदस्य पर्वतीय इलाकों में प्रवेश न कर सके। मेइती स्वयंसेवक भी ऐसा ही करते हैं।’’

सुरक्षा एजेंसियां पिछले साल हुई हिंसा के दौरान लूटे गए सभी आग्नेयास्त्रों को अब तक बरामद नहीं कर पाई हैं। हिंसा की शुरुआत के बाद से 200 लोग मारे गए और 60,000 लोग विस्थापित हुए।

भाषा आशीष नरेश

नरेश