देश भर में कड़कनाथ की बांग, झाबुआ में सालाना पैदावार बढ़कर 2.5 लाख चूजों पर पहुंची |

देश भर में कड़कनाथ की बांग, झाबुआ में सालाना पैदावार बढ़कर 2.5 लाख चूजों पर पहुंची

देश भर में कड़कनाथ की बांग, झाबुआ में सालाना पैदावार बढ़कर 2.5 लाख चूजों पर पहुंची

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 08:15 PM IST, Published Date : August 14, 2022/2:15 pm IST

(हर्षवर्धन प्रकाश)

इंदौर, 14 अगस्त (भाषा) मध्य प्रदेश के झाबुआ मूल का कड़कनाथ मुर्गा डेढ़ दशक पहले विलुप्ति की ओर बढ़ रहा था, लेकिन नस्ल बचाने के वैज्ञानिक प्रयासों और जियोग्राफिकल इंडिकेशन्स (जीआई) का अहम तमगा मिलने के बाद इसके दिन बदल गए हैं। काले रंग के पौष्टिक मांस के लिए मशहूर यह कुक्कुट प्रजाति इस आदिवासी बहुल जिले से निकलकर देश के अधिकांश हिस्सों में फैल चुकी है।

झाबुआ के कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) के प्रमुख डॉ. आईएस तोमर ने पीटीआई-भाषा से कहा,‘‘इन दिनों देश के लगभग हर राज्य के कुक्कुट पालन केंद्रों के संचालक कड़कनाथ मुर्गे की शुद्ध नस्ल के चूजों के लिए झाबुआ की अलग-अलग हैचरी (मशीन से अंडे सेकर इनसे चूजे निकालने का उपक्रम) का रुख कर रहे हैं।’

उन्होंने बताया कि मांग में इजाफे के चलते झाबुआ में सरकारी, निजी और सहकारी स्तर पर कड़कनाथ के चूजों की कुल पैदावार बढ़कर 2.5 लाख के वार्षिक स्तर पर पहुंच चुकी है।

तोमर ने बताया कि केवीके ने सरकार की एक परियोजना के तहत वर्ष 2009-10 में अध्ययन किया, तो पता चला कि मुर्गी पालन के सही तरीकों के प्रति आदिवासियों में जागरूकता के अभाव के कारण तब कड़कनाथ के चूजों की मृत्यु दर काफी अधिक थी।

उन्होंने कहा कि अध्ययन से यह भी मालूम पड़ा कि आदिवासी क्षेत्रों में कड़कनाथ और दूसरी प्रजातियों के मुर्गे-मुर्गियों को साथ रखा जा रहा था जिससे इसकी संकर नस्लें पैदा हो रही थीं और कड़कनाथ के वजूद पर खतरा मंडरा रहा था।

तोमर ने बताया कि इन तथ्यों के प्रकाश में आने पर केवीके ने झाबुआ में अपनी हैचरी शुरू की और कड़कनाथ की मूल नस्ल को बचाने तथा इसे बढ़ावा देने का बीड़ा उठाया।

उन्होंने कहा कि स्थानीय आदिवासियों को इस मुर्गा प्रजाति को पालने के उचित तौर-तरीकों को लेकर प्रशिक्षित भी किया गया जिनमें इनका टीकाकरण और सही खुराक शामिल है।

तोमर के मुताबिक, दूसरी मुर्गा प्रजातियों के चिकन के मुकाबले कड़कनाथ के काले रंग के मांस में चर्बी और कोलेस्ट्रॉल काफी कम होता है, जबकि इसमें प्रोटीन की मात्रा अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा होती है।

कुक्कुट उद्योग के जानकारों के मुताबिक, इन गुणों के चलते देश भर में बढ़ती मांग ने झाबुआ में ‘‘कड़कनाथ अर्थव्यवस्था’ विकसित कर दी है और आदिवासी बहुल जिले में इसके चूजों, अंडों और मुर्गों से संबंधित कुल वार्षिक कारोबार चार करोड़ रुपये के आस-पास पहुंच चुका है।

झाबुआ में कड़कनाथ के उत्पादन से जुड़ी एक सहकारी संस्था के प्रमुख विनोद मेड़ा ने कहा,‘‘हम देश भर के राज्यों के लोगों के साथ हर साल 20 से 25 लाख रुपये का कारोबार कर लेते हैं। इन दिनों करीब 1.5 किलोग्राम वजन का एक कड़कनाथ मुर्गा 1,000 से 1,200 रुपये के बीच बिक रहा है, जबकि पांच साल पहले यह मुर्गा 500 से 800 रुपये के बीच बिकता था।’’

गौरतलब है कि घरेलू बाजार में झाबुआ के कड़कनाथ मुर्गे की प्रामाणिकता को तब बल मिला, जब देश की जियोग्राफिकल इंडिकेशन्स रजिस्ट्री ने वर्ष 2018 में ‘मांस उत्पाद तथा पोल्ट्री एवं पोल्ट्री मांस’ की श्रेणी में कड़कनाथ चिकन के नाम भौगोलिक पहचान (जीआई) का चिह्न पंजीकृत किया था।

झाबुआ मूल के कड़कनाथ मुर्गे को स्थानीय जुबान में ‘कालामासी’ कहा जाता है। इसकी त्वचा और पंखों से लेकर मांस तक का रंग काला होता है। कड़कनाथ प्रजाति के जीवित पक्षी, इसके अंडे और इसका मांस दूसरी कुक्कुट प्रजातियों के मुकाबले महंगी दरों पर बिकता है।

भाषा हर्ष नेत्रपाल

नेत्रपाल

 

(इस खबर को IBC24 टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)