कल खेल में हम हों न हों
गर्दिश में तारे रहेंगे सदा
भूलोगे तुम, भूलेंगे वो
पर हम तुम्हारे रहेंगे सदा
होंगे यहीं अपने निशाँ
इसके सिवा जाना कहाँ
जीना यहाँ मरना यहाँ …
कलाकार बनाए नहीं जाते वो पैदा होते हैं, मूक फिल्मों के दौर में पृथ्वीराज कपूर ने अभिनय कला को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, ग्रेट शो मैन राज कपूर ने श्वेत-श्याम चलिचत्र से ईस्टमैन कलर फिर सिनेमास्कोप की दुनिया तक एक छत्र राज किया, शम्मी कपूर की शोख अदाओं ने पूरे युवा वर्ग को आंदोलित किया, शशि कपूर और रणधीर कपूर ने रजतपट पर ऐसा जलवा बिखेरा कि लोग वाह-वाह कर उठे, सच कहें तो कपूर खानदान की रगो में बह रहा रक्त ही चरित्र है।
मायानगरी में किंग बनना आसान है, मुश्किल है जोकर बनना। इस क्षेत्र में जिसने इसे निभा लिया वह बहरूपिया ही रुपहले पर्दे और लोगों के दिलों में अमर है। जोकर के इस चरित्र को देखकर जिसने अपने कदम फिल्म इंडस्ट्री में पैर जमाएं हों, उसे अभिनय का रिंग मास्टर बनने से कौन रोक सकता था।
चिंटू ने बचपन में लोरियां कम, लाइट – कैमरा -एक्शन का स्वर ज्यादा सुना। दादा पृथ्वीराज कपूर ने बतौर अभिनेता मूक फ़िल्मों से अपना करियर शुरू किया। उन्हें भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के संस्थापक सदस्यों में से एक होने का भी गौरव हासिल है। पृथ्वीराज ने सन् 1944 में मुंबई में पृथ्वी थिएटर की स्थापना की, जो देश भर में घूम-घूमकर नाटकों का प्रदर्शन करता था। इन्हीं से कपूर ख़ानदान की भी शुरुआत भारतीय सिनेमा जगत में होती है।
द ग्रेट शो मैन राज कपूर हिन्दी सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक, अभिनय ऐसा कि तत्कालीन सोवियत संघ और मध्य-पूर्व में राज कपूर की लोकप्रियता हॉलीवुड के स्टार को भी पीछे छोड़ दें। ऐसे दादा पृथ्वी राज कपूर और पिता रणबीर राज कपूर को देखकर ही चिंटू ने अपने अभिनय के कैनवास में रंग भरे।
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मेरा नाम जोकर : असफल परन्तु कालजयी
सन् 1970 के दिसंबर में राज कपूर के स्थापित किए आरके फिल्म्स के बैनर तले बनी अपने समय की सबसे महंगी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ अखिल भारतीय स्तर पर एक साथ प्रदर्शित हुई। यह राज कपूर के जीवन की सबसे महत्त्वाकांक्षी फिल्म थी। जिसमें चिंटू ने बाल कलाकार के तौर पर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई।
फिल्म समालोचक प्रहलाद अग्रवाल के शब्दों में :
“निश्चय ही राजकपूर इसके माध्यम से (बाजार) लूटने के लिए नहीं, अपने कलाकार की मुक्ति की उद्दाम आकांक्षा से उद्वेलित होकर निकले थे। एक निर्देशक और एक कलाकार के रूप में राजकपूर ने अपनी जिन्दगी का सब-कुछ ‘जोकर’ को दिया। एक निर्माता के रूप में उन्होंने अंग्रेजी की ‘लेफ्ट नो स्टोन अनटर्न्ड’ कहावत चरितार्थ की। ‘मेरा नाम जोकर’ राजकपूर के सपनों का एक ऐसा तमाशा था जिसे वह एक साथ कलात्मक और व्यावसायिक ऊंचाइयों तक पहुंचाना चाहते थे।… ‘जोकर’ असफल हो गयी। राजकपूर की जिन्दगी का सबसे बड़ा सपना मिट्टी में मिल गया। वह सपना जिसके लिए उसने अपना पूरा अस्तित्व दांव पर लगा दिया था। इस सब के बावजूद ‘जोकर’ राजकपूर की महानतम कलाकृति है जिसमें उसने अपने व्यक्तित्व, अपने रचनात्मक कौशल और कलाकार की पीड़ा को अत्यन्त मार्मिक और सघन अभिव्यक्ति दी है।
मेरा नाम जोकर तो उस समय फ्लॉप हो गई, राजकपूर डिप्रेशन में चले गए, लेकिन इस फिल्म ने एक बेहद प्रतिभाशाली कलाकार को जन्म दे दिया था। चिंटू बचपन से किशोरावस्था का “ऋषि” रुप में आ गया था, ऋषि की अभिनय साधना को देखकर राजकपूर की उम्मीदें एक बार जवान हो रहीं थी। इस बार पिता ने खुद को कैमरे के पीछे सीमित कर लिया और रजतपट पर पेश किया अपने बेटे ऋषि कपूर को …
मैं शायर तो नहीं
मगर ऐ हंसीं
जबसे देखा, मैंने तुझको, मुझको
शायरी, आ गई
बॉबी सन् 1973 में प्रदर्शित हुई जो बॉक्स आफिस पर सुपरहिट हुई। ऋषि कपूर और डिम्पल कपाड़िया जैसे बिल्कुल नवोदित कलाकारों ने उस समय व्यावसायिक सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। चॉकलेटी चेहरे वाले ऋषि ने अपनी पहली ही फिल्म में दर्शकों को ऐसा रिझाया कि बॉक्स ऑफिस पर महीनों तक हाउसफुल का बोर्ड टंगा नजर आया । मेरा नाम जोकर से जितना नुकसान राज कपूर ने उठाया उसको सूद समेत बॉबी ने लौटा दिया। ना केवल व्यवसायिक तौर पर ये फिल्म सफल रही बल्कि ऋषि कपूर को बॉबी के लिए 1974 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिला । 2008 में फ़िल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार सहित अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
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एक हंगामा उठा दूं, मैं तो जाऊं जिधर से
जीत लेता हूँ दिलों को, एक हल्की सी नजर से
महबूबों की महफ़िल में आज, छायी है छायी है मेरी ही अदा
बचना ऐ हसीनों, लो मैं आ गया
ऋषि कपूर ने अपने करियर में 1973-2000 तक 92 फिल्मों में रोमांटिक हीरो का किरदार निभाया। बतौर सोलो लीड एक्टर 51 फिल्मों में अभिनय किया। ऋषि अपने जमाने के चॉकलेटी हीरो में से एक थे। उन्होंने पत्नी नीतू के साथ 12 फिल्मों में अभिनय किया। प्रेमरोग में बड़े-बड़े स्टार के बीच ऋषि के अभिनय को सराहा गया
सुभाष घई निर्देशित कर्ज फिल्म ने तो ऋषि कपूर के स्टारडम को नई पहचान दी।
आ अब लौट चलें-
ऋषि ने निर्देशन में भी हाथ आजमाया। उन्होंने 1998 में अक्षय खन्ना और ऐश्वर्या राय बच्चन अभिनीत फिल्म ‘आ अब लौट चलें’ निर्देशित की। ऋषि कपूर ने अपने करियर की शुरुआत से हमेशा ही रोमांटिक किरदार निभाया था, लेकिन फिल्म ‘अग्निपथ’ में उनके खलनायक के किरदार को देख सभी हैरान रह गए। ऋषि को इसके लिए आईफा बेस्ट नेगेटिव रोल के अवार्ड से भी नवाजा गया।
ऋषि कपूर ने कैंपियन स्कूल, मुंबई और मेयो कॉलेज, अजमेर में अपने भाइयों के साथ अपनी स्कूली शिक्षा की। उनके भाई रणधीर कपूर और राजीव कपूर, मातृ चाचा, प्रेम नाथ और राजेंद्र नाथ, और पैतृक चाचा, शशि कपूर और शम्मी कपूर सभी अभिनेता हैं। उनकी दो बहनें हैं, बीमा एजेंट रितु नंदा और रिमा जैन हैं।
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2018 में ऋषि कपूर को कैंसर हुआ था। इलाज के लिए वो अमेरिका गए थे। वहां 11 महीने रहने के बाद साल-2019 सितंबर माह में ऋषि भारत लौटे थे। अमेरिका में पूरे वक्त उनके साथ पत्नी नीतू ही थीं। उनके बेटे और सिने सितारे रणबीर कपूर कई बार उनसे मिलने न्यूयॉर्क गए थे। कुछ दिनों पहले ऋषि ने एक इंटरव्यू में कहा था, कपूर खानदान का फिल्मों से रक्त संबंध है, यही वजह है कि ऋषि कपूर ने कहा था कि “अब मैं बहुत बेहतर महसूस कर रहा हूं। और कोई भी काम कर सकता हूं। सोच रहा हूं कि एक्टिंग दोबारा कब शुरू करूं। पता नहीं लोगों को अब मेरा काम पसंद आएगा भी या नहीं। न्यूयॉर्क में मुझे कई बार खून चढ़ाया गया था। तब मैंने नीतू से कहा था- उम्मीद करता हूं कि नए खून के बावजूद मैं एक्टिंग नहीं भूलूंगा।” कैंसर जैसी भयंकर बीमारी का मुकाबला कर रहे 67 वर्षीय ऋषि कपूर को एच एन रिलायंस अस्पताल में भर्ती कराया गया । इससे पहले तबीयत खराब होने के कारण ऋषि कपूर को फरवरी-2020 में भी हॉस्पिटलाइज्ड किया गया था।
ऋषि कपूर को पहले दिल्ली के एक अस्पताल में भर्ती किया गया था। इस बारे में खुद ऋषि ने बताया था कि उन्हें इंफेक्शन हो गया है। . लेकिन दिल्ली से मुंबई आने के बाद उन्हें वायरल फीवर की वजह से फिर से हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा।बता दें कि ऋषि कपूर अपनी फिल्मों के साथ-साथ अपने विचारों के लिए भी खूब जाने जाते हैं। वह अकसर सोशल मीडिया पर समसामयिक मुद्दों पर अपने विचार साझा करते हैं।
अभिनय की जो साधना “ऋषि” ने की वह विरले ही कर पाते हैं। अपने समकालीन अभिनेताओं के बीच ऋषि ने जो पहचान बनाई वो कपूर खानदान की विरासत के अनुरुप और स्वयं की प्रतिभा से अर्जित की गई है, उनका बेटा रणबीर कपूर ‘कपूर खानदान’ की विरासत को थामे फिल्मों में चौथी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहा है। इस काल में भी ऋषि ने जिस तरह से अपनी भूमिका अदा की है, वो उन्हें फिल्म जगत के इतिहास में हमेशा जिंदा रखेगी।
वर्ष | फ़िल्म | टिप्पणी |
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1999 | आ अब लौट चलें |
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