भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की जयंती पर गूगल डूडल ने भी दी श्रद्धांजलि | Bharat Ratna Ustaad Bismillah Khan's birth anniversary celebrated by Google Doodle

भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की जयंती पर गूगल डूडल ने भी दी श्रद्धांजलि

भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की जयंती पर गूगल डूडल ने भी दी श्रद्धांजलि

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 08:38 PM IST, Published Date : March 21, 2018/8:31 am IST

भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित अतुलनीय शहनाई वादक भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को उनकी 102वीं जयंती पर श्रद्धांजलि दी जा रही है, याद किया जा रहा है। गूगल डूडल ने भी उस्ताद को अपने खास अंदाज में नमन करते हुए श्रद्धांजलि दी है, जो सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। 

 

 

शहनाई वादन को आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाने और नया आयाम देने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खान आज होते, तो गूंज रही होती कहीं शहनाई l शहनाई को शास्त्रीयता के वाद्य का दर्जा दिलाने वाले बिस्मिल्लाह खान की सुर लहरियों में अमन का पैगाम लहराता था। उन्हें भारत रत्न (2001), संगीत नाटक अकादमी के फैलो (1994), ईरान गणराज्य (1992) तलवार मौसिकी, पद्म विभूषण (1980) से भी सम्मानित किया गया। उस्ताद आज होते तो 102 साल के होते और उनकी शहनाई की उम्र हो गई होती 96 साल। वो होते तो शहनाई की स्वर आज भी लहरियों से गंगा की अविरल धारा पूरे देश में अमन का पैगाम फैलाती, जन्माष्टमी पर वृंदावनी सारंग के सुर बिखरते, तो मुहर्रम पर मातमी धुनें आंसुओं का बांध तोड़तीं। वे होते तो बाबा विश्वनाथ के मंदिर उन्हीं की शहनाई की आवाज सुनकर खुलते, लेकिन उस्ताद आज नहीं हैं। 

 

वह उस्ताद जिनका नाम ही अल्लाह के नाम से शुरु होता है, यानी बिस्मिल्लाह। वे शिया मुस्लिम थे, लेकिन शास्त्रीय संगीत ने उनका बिस्मिल्लाह खान कर दिया। उनकी आत्मा में बनारस बसता था और बनारस में वह। लेकिन उनका जन्म बिहार में 21 मार्च 1916 को हुआ था। बिहार से वो बनारस आए तो थे पढ़ने लिखने, लेकिन मामा के साथ शहनाई में ऐसा रमे और ऐसे प्रयोग किए कि पूरी दुनिया में शहनाई की पहचान, दूसरा नाम ही बन गए। उनकी शोहरत की खुशबू और शहनाई की आवाज इतनी मधुर थी कि आजाद भारत की पहली शाम उन्होंने लाल किले पर शहनाई वादन किया था। इसके बाद बरसों तक लाल किले से उनकी शहनाई की तान के साथ ही स्वतंत्रता दिवस मनाने की परंपरा पड़ गई थी। उन्हें फिल्मों से भी बुलावा आया। 1959 में  ‘गूंज उठी शहनाई’ से लेकर 2004 में बनी ‘स्वदेश’ तक उन्होंने अपनी शहनाई के सुरों से सजाया, लेकिन, स्वभाव से फकीर बिस्मिल्लाह खान को फिल्मी दुनिया की चमक-दमक रास नहीं आई और वे जीवन पर्यंत बनारस में ही रहे। उस्ताद खालिस बनारसी थे। वे कहते थे कि, “पूरी दुनिया में चाहे जहां चले जाएं, हमें सिर्फ हिंदुस्तान दिखाई देता है, और हिंदुस्तान के चाहे जिस शहर में हों, हमें सिर्फ बनारस दिखाई देता है। ”

 

आकाशवाणी और दूरदर्शन पर दिन की शुरुआत करने वाली धुन बिस्मिल्लाह खान की शहनाई से निकली मंगल ध्वनि हुआ करती थी। इनमें सुबह और शाम के अलग-अलग सात रागों को समाहित किया गया था। चौदह रागों का यह मिश्रण तो आकाशवाणी और दूरदर्शन की पहचान बन गया था। वे कहते थे, “संगीत वह चीज है जिसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं मानता।” वे कहा करते थे कि सुर भी एक है और ईश्वर भी। इसीलिए जब उस्ताद मोहर्रम के दिनों में आंखों में आंसू भरकर मातमी धुनें बजाते थे तो होली पर राग ‘काफी’ से मस्ती भर देते थे। वे पांच वक्त की नमाज भी पढ़ते थे, तो देवी सरस्वती की उपासना भी उनके लिए जरूरी थी। उन्हें कबीर की विरासत का अलमबरदार आखिर यूं ही नहीं कहा जाता। कहते हैं कि एक बार किसी मौलवी ने उन्हें बताया कि संगीत तो हराम है, तो उन्होंने जवाब देने के बजाए शहनाई उठाकर ‘अल्लाह हू’  बजाना शुरु कर दिया। मौलवी हतप्रभ थे, फिर उन्होंने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में कहा, “माफ कीजिएगा, क्या यह हराम है।” 

2006 को 90 साल की उम्र में उनका निधन हो गया l जीते जी तो उन्होंने इसे अपनाया ही उनकी मौत के बाद भी एक तरफ फातिमा कब्रिस्तान में नीम के पेड़ के नीचे उन्हें शहनाई के साथ दफ्न किया जा रहा था, तो कुछ ही दूरी पर उनके लिए सुंदरकांड का पाठ भी हो रहा था।

विभा राजपूत IBC24