बदलाव के फार्मूले पर छत्तीसगढ़ की सियासी थ्योरी, देखना होगा भुनाया जाता है या फिर भुलाया ! | Chhattisgarh Assembly Election 2018 Detailed Analysis , Local Agenda and Politics

बदलाव के फार्मूले पर छत्तीसगढ़ की सियासी थ्योरी, देखना होगा भुनाया जाता है या फिर भुलाया !

बदलाव के फार्मूले पर छत्तीसगढ़ की सियासी थ्योरी, देखना होगा भुनाया जाता है या फिर भुलाया !

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 07:56 PM IST, Published Date : November 11, 2018/6:27 am IST

रायपुर। छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव के लिए काउंट डाउन शुरु हो गई है। बीजेपी-कांग्रेस सत्ता के लिए तो अजीत जोगी और मायवती सियासी उलटफेर के लिए ताकत लगा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में पिछले 15 बरस से बीजेपी की सरकार है और वो चौथी पारी के लिए मिशन 65 प्लस के साथ चुनावी मैदान में है। सियासी गुणा-भाग की थ्योरी में बीजेपी को यकीन है कि सूबे के मुखिया रमन सिंह का चेहरा और सरकार के कामकाज के कारण उसे चौथी बार सत्ता मिलेगी। हालांकि कांग्रेस के पास ऐसा कोई चमत्कारिक चेहरा तो बिल्कुल नहीं है लेकिन कांग्रेस बदलाव और सरकार के भ्रष्टाचार के भरोसे सत्ता के प्रमेय को सिद्ध करने की कोशिश में है। इन सभी के बीच जोगी-मायावती की जोड़ी जादुई आंकड़े 46 के अंक में ऐसा कुछ गुणा भाग करने की फिराक में है कि दोनों के प्रमेय के समीकरण ही गड़बड़ा जाएं। खैर, सियासी गणित में कोई फिक्स फार्मूला होता नहीं है, जिसने बाजी मार ली उसका फार्मूला सिद्ध माना जाता है। इतना तो तय है कि छत्तीसगढ़ के चुनाव से मुद्दे गायब है। पूरी थ्योरी सत्ता विरोधी लहर या बदलाव के इर्द-गिर्द घूमती दिखाई दे रही है। देखना होगा इसे भुनाया जाता है या फिर भुलाया जाता है।

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छत्तीसगढ़ में दो चरणों में 12 और 20 नवंबर को वोट डाले जाएंगे। 12 तारीख को बस्तर की 12 और राजनांदगांव की 6 सीटों पर चुनाव होंगे। मैदानी इलाकों की 78 सीटों के लिए 20 नवंबर को मतदान हैं। लिहाजा पहले चरण के लिए दोनों तरफ से ताकत झोंकी जा चुकी है। पीएम नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी एक साथ इन इलाकों के दौरे पर हैं। पहले चरण के चुनाव में मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह का क्षेत्र राजनांदगांव भी आता है। इस सीट पर उनके खिलाफ कांग्रेस से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला मैदान में है। संभवत: यह पहला ऐसा चुनाव क्षेत्र होगा, जहां पर पक्ष-विपक्ष दोनों अटलजी के नाम पर वोट मांग रहे हैं। राजनांदगांव सहित बस्तर के जिन 18 सीटों पर पहले चरण के तहत वोट डाले जाएंगे, वहां की तासीर थोड़ी अलग है। नक्सल प्रभावित जिलों बस्तर, कोडागांव, कांकेर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा की कई सीटों पर हर बार अलग अलग नतीजे आते हैं। यहां कभी बीजेपी को जीत मिली है तो कभी कांग्रेस को। राजनांदगांव की डोंगरगढ़ और बस्तर की नारायणपुर और जगदलपुर सीट में भाजपा कभी नहीं हारी। इसी तरह कोंटा सीट से हर बार कांग्रेस जीतती रही है, लेकिन इस बार कोंटा से सीपीआई के मनीष कुंजाम और कांकेर जिले की भानुप्रतापपुर सीट से जोगी कांग्रेस के मानक दरपट्टी समीकरण बिगाड़ सकते हैं। ये दोनों सीट पर कांग्रेस के विधायक हैं। ऐसे में कांग्रेस के लिए दोहरी चुनौती है। कांग्रेस ने यहां नए चेहरों को अपेक्षाकृत ज्यादा मौका दिया है। जबकि बीजेपी सरकार में मंत्री केदार कश्यप और महेश गागड़ा मैदान जैसे पुराने चेहरे भी हैं।

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बस्तर और राजनांदगांव के बाद दूसरा महत्वपूर्ण इलाका है सरगुजा। यहां से कांग्रेस को अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है। नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव का इलाका है। वे राजपरिवार और कांग्रेस के बड़े चेहरे के रुप में पहचाने जाते हैं। कहा जाता है कि सूबे के इस उत्तरी भाग में सत्ता का समीकरण छिपा हुआ है। अम्बिकापुर, सूरजपुर, बलरामपुर, कोरिया और जशपुर जिले की 14 सीटे निर्णायक हो सकती हैं। यहां की 9 सीटें आदिवासियों के लिये आरक्षित हैं। गैर आदिवासी सीटों पर भी एसटी वोटर निर्णायक भूमिका में है। इसके अलावा सामरी, रामानुजगंज, भरतपुर-सोनहत, लुंड्रा, सीतापुर जैसी कुछ सीटें ऐसी हैं जहां पर विधायक पहचान नहीं है। यहां पर रमन सिंह या टीएस बाबा चेहरा हैं। सरगुजा के कुछ इलाकों में हाथी और हल की जुगलबंदी नजर आती हैं। प्रतापपुर विधानसभा सीट गोंड़ और कंवर बहुल इलाका है। यहां कंबल वाले बाबा की राजनीति रंग देखने को मिल सकता है। यह गृहमंत्री रामसेवक पैकरा की सीट है। कंबल वाले बाबा से गृहमंत्री के गहरे संबंध हैं। इस बार उनका मुकाबला कांग्रेस के डॉ प्रेमसाय टेकाम से है। वे साल 2013 के चुनाव में करीब 8 हजार वोट से जीते थे। इसी तरह सीतापुर, प्रेमनगर, भानुप्रतापपुर, कुनकुरी, पत्थलगांव, भरतपुर-सोनहट, सामरी, मनेन्द्रगढ़, लुंड्रा, बैंकुठपुर ऐसी सीटें हैं, जहां पर जातीय समीकरण जीत हार में मायने रखते हैं। टिकट वितरण भी काफी हद तक इसी आधार पर हुए हैं।

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पूरे सरगुजा की सबसे हॉट सीट अंबिकापुर है, क्योंकि यहां से नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव चुनाव लड़ रहे हैं। यहां उनका अच्छा खासा प्रभाव है। छत्तीसगढ़ में नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव के पिता एमएस सिंहदेव अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव रहने के बाद योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे। इसी तरह देवेंद्र कुमारी सिंहदेव विधायक और सिंचाई मंत्री बनीं. बाद के सालों में अंबिकापुर की सीट आरक्षित हो गई तो राज परिवार चुनावी राजनीति से अलग हो गया। लेकिन 2008 में जब यह सीट फिर से सामान्य हुई तो टीएस सिंहदेव मैदान में उतरे। टीएस सिंहदेव ने भाजपा के अनुराग सिंहदेव को 980 वोटों से हराया और 2013 के चुनाव में फिर से उन्होंने अनुराग सिंहदेव को 19,558 वोटों से मात दी। सिंहदेव को इस जीत के बाद विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया गया। सिंहदेव को टक्कर देने के लिए एक बार फिर अनुराग सिंहदेव हैं।

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मैदानी इलाकों में सबसे महत्वपूर्ण बिलासपुर संभाग है। बिलासपुर जिले में विधानसभा की कुल सात सीटें हैं, जिनमें पांच सामान्य और एक अनुसूचित जाति और एक अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। बिलासपुर की सबसे हाईप्रोफाइल सीटों में से एक है मरवाही। इस विधानसभा सीट पर कई सालों से जोगी परिवार का कब्जा रहा है। यहां से फिलहाल अजीत जोगी के बेटे अमित जोगी विधायक हैं। लेकिन इस बार यहां के सियासी समीकरण में बदलाव होने के आसार प्रबल हैं। फिलहाल मरवाही से कांग्रेस ने गुलाब सिंह राज को उतारा है और बीजेपी से अर्चना पोर्ते उम्मीदवार हैं। हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी यहां से चुनाव लड़ रहे हैं। इस लिहाज इस सीट पर त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति साफ नजर आ रही है। यह आदिवासी के लिए आरक्षित सीट है। पिछले चुनाव में अमित जोगी सर्वाधिक मतों से जीत कर आए थे। इसी तरह कोटा विधानसभा सीट भी जोगी परिवार के कारण चर्चा में है। यहां से रेणु जोगी के मुकाबले में आने से त्रिकोणीय संघर्ष के हालात हैं।

बिलासपुर की एक और सीट है बिल्हा की। यह सीट दो जिलों के नक्शे में शामिल है, इस सीट का आधे से ज्यादा हिस्सा मुंगेली और एक हिस्सा बिलासपुर जिले में आता है। बिल्हा का चुनावी रण भाजपा के धरमलाल कौशिक और जोगी कांग्रेस के सियाराम कौशिक के नाम रहा है। बिल्हा से कांग्रेस से राजेन्द्र शुक्ला उम्मीदवार हैं। यहां त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति नजर आ रही है। बिलासपुर विधानसभा सीट पर पूरे राज्य की नजर है। भाजपा विधायक अमर अग्रवाल यहां से चार बार चुनाव जीत चुके हैं। कांग्रेस के लाख एक्सपेरिमेंट के बाद भी यह सीट उसके हाथों नहीं आ पाई है। कांग्रेस ने यहां से शैलेष पांडे को प्रत्याशी बनाया है। जबकि यहां से अटल श्रीवास्तव की मजबूत दावेदारी थी। उनको दरकिनार करके पार्टी ने शैलेष पांडे को उम्मीदवार बनाया है। हालांकि इसके खिलाफ नाराजगी भी साफतौर पर देखने को मिली, लेकिन देखना होगा कि इसका कितना असर चुनाव में पड़ेगा।

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इसी तरह बेलतरा, तखतपुर, मस्तुरी, मुंगेली सरकार बनाने और बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके अलावा जांजगीर-चांपा, कोरबा और रायगढ़ ऐसे जिले हैं, जहां पर बीजेपी और कांग्रेस के लिए करो या मरो की स्थिति है। पुराना बिलासपुर संभाग के अंतर्गत आने वाले इन जिलों में जोगी और बसपा का अच्छा खासा प्रभाव है। ऐसे में इन दोनों दलों की वोट किसी के लिए फायदे और नुकसानदायक साबित हो सकते हैं। जांजगीर की अकलतरा सीट से जोगी की बहू ऋचा जोगी बसपा की टिकट पर चुनाव लड़ रही है। यह बसपा की परंपरागत सीट मानी जाती है। ऐसे में बीजेपी कांग्रेस के उम्मीदवार त्रिकोणीय संघर्ष के पेंच में फंस गए हैं। इसी तरह जैजैपुर, चंद्रपुर, पामगढ़ का इलाका भी बसपा के प्रभाव वाला माना जाता है। इस इलाके में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटें ज्यादा है, जहां जोगी और मायावती का कॉकटेल सियासी गणित को प्रभावित करने में भारी पड़ सकता है।

इसके बाद दुर्ग और रायपुर संभाग पर गौर करे, तो दोनों दल सोशल इंजीनियरिंग के भरोसे हैं। हालांकि दुर्ग में बीजेपी के सामने बागियों की भी चुनौती है। यहां से बीजेपी की राष्ट्रीय महासचिव सरोज पांडे के भाई और भाभी के बगावती तेवर ने पार्टी को काफी परेशान किया। हालांकि दोनों को मना लेने के दावे किए जा रहे हैं, लेकिन इसकी पुष्टि तो चुनाव नतीजों से ही होगी। यहां विधानसभा की 20 सीटें हैं। जिसमें वैशालीनगर, भिलाई और पाटन में मुकाबले पर सभी की नजरें टिकी हुई हैं। वैशालीनगर से सरोज पांडे के परिवार के सदस्यों ने ताल ठोंक कर पार्टी की मुश्किलें बढ़ा दी थी। भिलाई में मंत्री प्रेमप्रकाश पांडे की प्रतिष्ठा दांव पर है, जबकि पाटन से प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कांग्रेस प्रत्याशी हैं, उन्हें भी अपने इलाके में कुर्मी और साहू समाज की नाराजगी से जूझना पड़ रही है। दुर्ग ग्रामीण सीट से कांग्रेस प्रत्याशी के बदलने के कारण यह हॉट सीट हो गई है।

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दुर्ग संभाग में इस बार जातिगत समीकरण के आधार पर टिकट वितरण किया गया है। बीजेपी ने साहू समाज को खास तवज्जो दी है। भाजपा ने 2013 के मुकाबले 7 सीट में नए चेहरे को मौका दिया है। जबकि, 10 सीटों में प्रत्याशी रिपीट किए हैं। पार्टी ने दुर्ग ग्रामीण की विधायक और महिला एवं बाल विकास मंत्री रमशीला साहू का टिकट काट दिया है। दुर्ग जिले की 3 सीट दुर्ग शहर, दुर्ग ग्रामीण और पाटन में नए चेहरे को चुनावी मैदान में उतारा है। भाजपा ने पाटन से पीसीसी चीफ भूपेश बघेल के खिलाफ साहू समाज के नेता मोतीराम साहू को प्रत्याशी घोषित किया है। वहीं दुर्ग शहर से दुर्ग मेयर चंद्रिका चंद्राकर को प्रत्याशी बनाया है। वहीं दुर्ग ग्रामीण से पूर्व मंत्री जगेश्वर साहू को मौका दिया है। वैशालीनगर से विद्यारतन भसीन को तमाम विरोध के बावजूद दोबारा मौका दिया गया है।

बीजेपी ने साजा से लाभचंद बाफना, बेमेतरा से अवधेश चंदेल, नवागढ़ से दयालदास बघेल, डोंगरगढ़ सरोजनी बंजारे, खैरागढ़ से कोमल जंघेल, कवर्धा से अशोक साहू और पंडरिया मोतीलाल चंद्रवंशी को दोबारा मौका दिया है। पड़ोसी जिले राजनांदगांव में तीन सीट में पार्टी ने पहली बार डोंगरगांव से मधुसूदन यादव, खुज्जी से हीरेंद्र साहू, मोहला मानपुर से कंचनमाला भूआर्य को उतारा है। खैरागढ़ से कांग्रेस के बागी और जोगी कांग्रेस के देवव्रत सिंह काफी जोर लगा रहे हैं। यहां से कांग्रेस के गिरवर जंघेल मैदान में है। कांग्रेस बीजेपी ने लोधी समाज पर दांव खेला है।

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राजधानी रायपुर को कुल चार विधानसभा सीटों में बांटा गया है- रायपुर ग्रामीण, रायपुर उत्तर, रायपुर दक्षिण और रायपुर पश्चिम ये चारों सीटें सामान्य हैं। रायपुर संभाग की बात करें तो इसमें 20 विधानसभा सीटें हैं। जिनमें हर बार रोचक मुकाबले देखने को मिलते हैं। संभाग की अधिकांश सीटों का ट्रेंड रहा है कि यहां के मतदाता अपना प्रतिनिधि बदलते रहते हैं। यहां से बृजमोहन अग्रवाल, राजेश मूणत जैसे दिग्गज मंत्री हैं, तो कांग्रेस के सत्यनारायण शर्मा की प्रतिष्ठा दांव है। रायपुर संभाग के कसडोल से विधानसभा अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल त्रिकोणीय संघर्ष में फंसे हैं।

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दरअसल, राज्य की 90 विधानसभा सीटों में से 39 सीटें आरक्षित हैं, जिसमें से 29 एसटी और 10 एससी वर्ग के लिए है। शेष 51 सीटें सामान्य वर्ग के लिए हैं, हालांकि 51 सामान्य सीट में से 11 पर एससी वर्ग का प्रभाव माना जाता है। यही वजह है कि सामान्य सीट में दूसरे समाज को महत्व मिलता है। जातिगत समीकरण पर गौर करें तो प्रदेश की आधी से ज्यादा सीटों पर पिछड़ा वर्ग का दबदबा दिखता है। राज्य की करीब 48 फीसदी आबादी भी पिछड़ा वर्ग की है। इसलिए एक चौथाई विधायक इसी वर्ग से आते हैं।

कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में रोचक मुकाबले देखने को मिल रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषण भी मानते हैं कि राज्य में चुनावी मुद्दे नदारद हैं और स्थानीय चेहरे नतीजे तय करने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। हालांकि कई सीटें ऐसी हैं, जहां पर हार जीत के आंकड़े काफी हैं, ऐसे में जोड़-तोड़ में कौन बाजी मारता है। इस पर पूरा दारोमदार टिका हुआ है। राजनीतिक विश्लेषण और पूर्व राज्य निर्वाचन आयुक्त डॉ सुशील त्रिवेदी मानते हैं कि प्रचार-प्रसार और प्लानिंग में बीजेपी काफी आगे है। कांग्रेस के नेता आत्ममुग्ध नजर आ रहे हैं। उन्हें ऐसा लगने लगा है कि सत्ता विरोधी लहर का फायदा मिलेगा, लेकिन इसका फायदा एक हद तक ही मिल सकता है। दूसरी तरफ वरिष्ठ पत्रकार दिवाकर मुक्तिबोध का कहना है कि राज्य में बदलाव की हवा जैसी स्थिति है। यह बात सही है कि कांग्रेस कई मामलों में पीछे है, लेकिन जनता ने बदलाव का मन बना लिया होगा, तो इससे बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।