फ्लैश बैक : मध्यप्रदेश की सियासत के लिए बदलाव का वर्ष रहा साल 2018, देखिए | Flashback: Year 2018 has been a year of change for the plotics of MP

फ्लैश बैक : मध्यप्रदेश की सियासत के लिए बदलाव का वर्ष रहा साल 2018, देखिए

फ्लैश बैक : मध्यप्रदेश की सियासत के लिए बदलाव का वर्ष रहा साल 2018, देखिए

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 07:52 PM IST, Published Date : December 28, 2018/10:51 am IST

भोपाल। साल 2018 मध्यप्रदेश की सियासत के लिए बदलाव वाला साल रहा। यही वो साल है जिसके आखिरी महीने में बीजेपी 15 साल पुरानी सत्ता से बेदखल हुई और दम तोड़ती कांग्रेस को जीत की संजीवनी मिली। प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के लिए भी ये साल बेहद खास साबित हुआ। महज 9 महीने में वो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए।

वह 2018 में जनवरी का महीना था, जब गुजरात की पूर्व मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल को मध्य प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया। आनंदीबेन प्रदेश की सत्ताइसवीं राज्यपाल बनीं जबकि मध्य प्रदेश को दूसरी बार महिला राज्यपाल मिला। आनंदीबेन ने राज्यपाल की जिम्मेदारी संभालने के बाद ताबड़तोड़ दौरे शुरू किए, जिसके बाद कयास लगाए जाने लगे कि ये शाह-मोदी की जोड़ी का कोई नया प्लान है।

जनवरी महीने में ही शिवराज सरकार ने आनंद मंत्रालय बनाने की घोषणा की। मध्यप्रदेश पूरे देश में पहला राज्य था, जहां लोगों की जिंदगी को खुश करने के लिए आनंद मंत्रालय के विचार को आगे बढ़ाया गया। योजना थी कि इस मंत्रालय के जरिए राज्य के हर नागरिक के लिए इस तरह के कार्यक्रम चलाए जाएंगे कि वो फील गुड कर सके।

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फरवरी का महीना बीजेपी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए बेहतर नहीं रहा। सिंधिया के गढ़ कोलारस और मुंगावली के उपचनाव परिणाम ने प्रदेश में सियासी बदलाव के संकेत दे दिए। इसी दौरान शिवराज सिंह चौहान ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया। कांग्रेस की आपत्ति के बावजूद मंत्रिमंडल का विस्तार तो हुआ लेकिन अशोक नगर विधायक गोपीलाल जाटव को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया जा सका। इन दोनों ही सीटों पर बीजेपी की हार का स्वाभाविक नतीजा ये रहा कि कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साह से भर गए जबकि बीजेपी खेमे में मायूसी छा गई। मप्र में हुए उपचुनावों में कांग्रेस की जीत से सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया का कद पार्टी में और बढ़ गया क्योंकि इन उपचुनावों की कमान उन्होंने ही संभाल रखी थी। प्रत्याशी चयन से लेकर प्रचार और फिर देर रात चुनाव आयोग में शिकायत तक सिंधिया का हर दांव यहां बीजेपी पर भारी पड़ा था।

2018 में तीन महीने बीतने को थे, ऐसे में दोनों ही पार्टियां अपने-अपने संगठन को कसने में जुट गई थीं। कांग्रेस ने प्रदेश अध्यक्ष पद से अरुण यादव की छुट्टी करते हुए कमलनाथ को ये जिम्मेदारी देकर सबसे बड़ा दांव खेला। इसके बाद कांग्रेस को बूथ लेवल तक मजबूत करने के लिए कमलनाथ ने कई बड़े फैसले लिए। दूसरी तरफ बीजेपी ने भी नंदकुमार सिंह चौहान को हटाकर राकेश सिंह को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी सौंपी।

विधानसभा चुनाव को लेकर दोनों ही अपनी पार्टियों ने अपने-अपने नए सेनापतियों को तैनात कर दिया था और अब बारी थी नए सेनापति की सियासी रणनीति की। कमलनाथ ने चार कार्यकारी अध्यक्ष के साथ-साथ कई जिला अध्यक्षों को बदला तो राकेश सिंह ने पुरानी टीम के सहारे चुनावी मैदान में उतरने का फैसला किया। अप्रैल वो महीना रहा जिसने एमपी की आगे सियासत तय की। 2 अप्रैल को एट्रोसिटी एक्ट को लेकर दलित संगठनों ने भारत बंद का आह्वान किया और इस बंद ने बवाल का रूप ले लिया। सवर्ण और दलितों के समूह कई जगह आमने-सामने आ गए। इस टकराव का सबसे ज्यादा असर मध्यप्रदेश के चंबल इलाके में देखने को मिला। शांतिपूर्ण बंद देखते ही देखते खूनी संघर्ष में बदल गया और इस संघर्ष में 6 दलितों की जान चली गई। इन मौतों के लिए सवर्णो को जिम्मेदार माना गया।

तीन महीने तक चली दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा अप्रैल में ही खत्म हुई। दिग्विजय सिंह की यात्रा करीब 140 से ज्यादा विधानसभा से होकर गुजरी। इनमें से ज्यादातर वो इलाके थे, जहां बीजेपी का कब्जा था। इस यात्रा के दौरान दिग्विजय सिंह ने 1300 किलोमीटर का सफर किया और अपने पुराने साथियों से मुलाकात के साथ-साथ वो नेटवर्क खड़ा किया, जो विधानसभा चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाने वाला था।

मई का महीना आते-आते मौसम के साथ-साथ प्रदेश की सियासत भी गर्म होने लगी। मई के पहले ही दिन तपती दोपहरी में कांग्रेस के तमाम बड़े नेता कमलनाथ की ताजपोशी से पहले हुए रोड शो में शामिल हुए। कमलनाथ, सिंधिया और दिग्विजय के एक साथ आने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह तो बढ़ा ही, कमलनाथ के प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में बैठने से भी संगठन में नई ताकत आ गई। करीब एक महीने तक कमलनाथ ने रोज औसतन 6 बैठके लीं और संगठन को मजबूत करने में पूरा जोर लगा दिया।

दिग्विजय सिंह के मजबूत नेटवर्क और पूरे प्रदेश में उनके नेटवर्क का फायदा उठाने के लिए उनको समन्वय का काम सौंपा गया। दिग्विजय सिंह ने ओरछा के राम राजा मंदिर से अपनी एकता यात्रा शुरू की। उन्होंने पंगत से संगत कार्यक्रम भी चलाया, जिसमें उन्होंने नाराज कांग्रेसी नेताओं को एक साथ खाने पर बैठाया और कांग्रेस के समर्थन में काम करने की शपथ दिलवाई ।

जून का महीना मध्यप्रदेश में सियासत का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। जब किसान सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। 1 जून से 10 जून तक प्रदेश के किसानों ने पूरी तरह से लामबंद होकर गांव और शहरों में सब्जी और दूध की सप्लाई ठप कर दी। इस बीच 6 जून को मंदसौर गोली कांड की बरसी पर यहां पहुंच कर राहुल गांधी ने कर्ज माफी का ट्रंप कार्ड खेल दिया और नतीजा ये रहा कि जब चुनाव हुए तो कांग्रेस प्रदेश की सत्ता में लौट आई। कर्जमाफी एक ऐसा मुद्दा रहा, जिसके जरिए राहुल ने न सिर्फ तीन राज्यों में जीत की स्क्रिप्ट तैयार की बल्कि केंद्र की मोदी सरकार को भी उन्होंने इसके सहारे घेरना शुरू किया। मध्यप्रदेश से कामयाब हुए इस फार्मूले को अब कांग्रेस 2019 के आम चुनावों में आजमाने के लिए बेताब है।

किसान नाराज थे तो बीजेपी सरकार कर्मचारियों को साधने में जुट गई। जून में ही सरकारी कर्मचारियों की रिटायरमेंट उम्र 60 से 62 साल करके कर्मचारियों को बड़ा तोहफा दिया गया। बीजेपी को उम्मीद थी कि विधानसभा में किसानों की नाराजगी की भरपाई कर्मचारियों से कर ली जाएगी लेकिन परिणामों ने इस अनुमान को झुठला दिया। जून की 14 तारीख को बीजेपी ने बाबा महाकाल के दर्शन करके जन आशीर्वाद यात्रा भी शुरुआत की। इस कार्यक्रम में पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह भी मौजूद रहे। अपनी जनआशीर्वाद यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री ने करीब 200 विधानसभा सीटों को कवर किया, लेकिन सियासत के खेल में इस बार कांग्रेस पीछे दिखने के लिए तैयार नहीं थी। कार्यकारी अध्यक्ष जीतू पटवारी भी जन आशीर्वाद यात्रा के पीछे-पीछे पोल-खोल यात्रा निकाल कर सरकार को कटघरे में खड़ा करते रहे।

16 अगस्त को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। इसके बाद बीजेपी ने अटलजी की अस्थि कलश यात्रा निकाली और पूरे देश के तमाम पवित्र नदियों में अस्थि विसर्जन किया गया। बीजेपी के इस फैसले पर जमकर सियासत भी हुई। कांग्रेस ने इस फैसले पर सवाल उठाते हुए अटलजी के नाम पर वोट पाने के लिए कलश यात्रा निकालने की आरोप लगाया ।

सितंबर का महीना आ चुका था और चुनाव में दो महीने का वक्त बचा था। चुनाव के लिए बिसात बिछ चुकी थी और अब बारी थी चालें चलने की। सितंबर महीने में दोनों ही पार्टियां का प्रचार परवान चढ़ने लगा था। 17 सितंबर को राहुल गांधी ने भोपाल में रोड-शो किया। वहीं बीजेपी ने 25 सितंबर को भोपाल के जंबूरी मैदान में कार्यकर्ता महाकुंभ किया, जिसमें खुद पीएम मोदी शामिल हुए थे। 17 सितंबर के बाद फिर राहुल गांधी एमपी दौरे पर पहुंचे। 28 -29 सितंबर को वो विंध्य इलाके के दौरे पर रहे। राहुल गांधी ने विंध्य में अपने दौरे की शुरुआत चित्रकूट में कामतानाथ मंदिर में दर्शन कर यात्रा के साथ की। राहुल गांधी के इस कदम को सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति से जोड़कर देखा गया।

अक्टूबर के पहले सप्ताह में ही 6 अक्टूबर को इलेक्शन कमीशन ने पांच राज्यों के चुनाव की तारीखों का ऐलान किया। इसके बाद पूरे प्रदेश आचार संहिता लागू हो गई। इस ऐलान के बाद एमपी में चुनाव प्रचार ने जोर पकड़ लिया। अक्टूबर में ही शिवराज को सबसे बड़ा झटका लगा। जब मंत्री का दर्जा प्राप्त कंप्यूटर बाबा ने अपने पद से इस्तीफा देकर सरकार पर जमकर निशाना साधा और उन पर साधु-संतों को धोखा देने का आरोप लगा दिया। नवंबर महीना पूरे प्रदेश के लिए सबसे अहम साबित हुआ। पीएम मोदी, राहुल गांधी, कमलनाथ, सिंधिया, और अमित शाह समेत दर्जन भर केंद्रीय मंत्रियों ने मध्यप्रदेश मे डेरा डाल दिया। इसके साथ ही चुनाव प्रचार अपने चरम पर पहुंच गया। प्रधानमंत्री मोदी ने 11 आमसभाएं की तो राहुल गांधी ने 33 रोड शो-आमसभा करके अपने उम्मीदवारों के पक्ष में माहौल बनाया। 28 नवंबर को मप्र में वोट डाले गए। वोट प्रतिशत को देख तमाम राजनीतिक पंडित भविष्यवाणी से बचते दिखे। कोई ये नहीं बता पाया कि वोटिंग सरकार के पक्ष में है या विरोध में। वोटिंग के बाद प्रदेश की पूरी जनता को काउंटिंग के लिए 13 दिन इंतजार करना पड़ा, इस दौरान कांग्रेस की तरफ से कोशिश गई कि आखिरी तक सक्रियता बनी रहे। कई स्ट्रांग रुम में गड़बड़ी की शिकायतें भी आई तो कई जगह कांग्रेस कार्यकर्ता स्ट्रांग रुम के बाहर 24 घंटे पहरा देते रहे।

आखिरकार फैसले की तारीख आ ही गई। 11 दिसंबर की सुबह 8 बजे हर जिला मुख्यालय में डाक मतपत्र खुलने का जो सिलसिला शुरू हुआ। वो रात 3 बजे तक चलता रहा। रुझानों में किसी 20-20 मैच की तरह कभी कांग्रेस आगे तो कभी बीजेपी होती। आखिर में पूरे परिणाम जब आए तो। कांग्रेस 114 और बीजेपी को 109 सीटें मिली। जबकि 7 सीटें-निर्दलीय,बीएसपी और एसपी के खाते में गईं।

ये चुनाव दोनों ही पार्टियों के लिए कितना अहम था। ये आप इसी बात से ही समझ सकते हैं कि फैसले के दिन मुख्यमंत्री निवास पर खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पार्टी के बड़े नेताओं के साथ सुबह से रात 1 रात करीब डटे रहे तो वहीं कांग्रेस के दिग्गज कमलनाथ,सिंधिया, और दिग्विजय सिंह भी अपनी टीम के साथ पल पल बदलते हालात पर नजर बनाए हुए थे। चुनाव परिणाम वाली रात को ही करीब 2.30 बजे कांग्रेस के नेता प्रेस हॉल में पहुंचे और मीडिया से कहा कि उन्हें निर्दलीय, एसपी और बीएसपी का समर्थन हासिल हैं और वो सरकार बनाने का दावा पेश करेंगे । इसके अगले दिन सुबह 11 बजे शिवराज सिंह चौहान ने राज्यपाल से मुलाकात करके इस्तीफा सौंप दिया तो दूसरी ओर दोपहर 12 बजे कमलनाथ ने सरकार बनाने का दावा पेश किया।

सरकार बनाने का दावा करना जितना मुश्किल था उससे ज्यादा मुश्किल था मुख्यमंत्री चुनना। आलकमान ने एके एंटनी पर्यवेक्षक बनाकर भेजा। एंटनी ने वन-टू-वन विधायकों के साथ चर्चा की और रिपोर्ट तैयार करके कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को सौंपने की घोषणा कर दी। जाहिर है अब निगाहें दिल्ली पर थी जहां से प्रदेश के मुखिया की घोषणा होना थी। नतीजा आया तो सीएम के लिए खींचतान शुरू हो गई। ये खींचतान दिल्ली तक पहुंच गई। कमलनाथ, सिंधिया और दिग्विजय समेत तमाम बड़े नेता दिल्ली में थे और आलाकमान से उनकी मुलाकातें हो रही थीं। कभी सिंधिया के नाराज होने की खबर आती तो कभी उपमुख्यमंत्री का फार्मूला निकलता। किन दो दिन तक चली रस्साकशी के बाद मुख्यमंत्री के पद पर आलाकमान की तरफ से मुहर लग गई, जिसका ऐलान भोपाल में किया गया

मुख्यमंत्री के तौर पर आलाकमान ने भरोसा जताकर ये साबित कर दिया कि प्रदेश को पटरी पर लाने के लिए अनुभव और समन्वय के साथ काम करने वाले शख्स की जरुरत है। शपथ ग्रहण की तारीख भी छत्तीसगढ़ और राजस्थान के साथ ही रखी गई और 18 नवंबर को शपथ ग्रहण के इस मंच को 2019 के महागठबंधन की तस्वीर के तौर पर भी पेश किया गया जहां सिर्फ कांग्रेस के नेता नहीं बल्कि केंद्रीय राजनीति के तमाम दिग्गज मौजूद रहे।

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18 नवंबर को मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के तत्काल बाद कमलनाथ ने जिस पहली फाइल पर दस्तखत किया, वो किसानों की कर्ज माफी को लेकर थी। इसके अलावा कमलनाथ ने चार और बड़े फैसले लेकर ये संदेश देने की कोशिश की कि वक्त है बदलाव का सिर्फ एक चुनावी नारा नहीं बल्कि उनके वर्क कल्चर का हिस्सा भी होगा। कमलनाथ के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी टीम चुनने की थी, क्योंकि अगले कुछ महीनों बाद ही लोकसभा चुनाव होने हैं और उन्हें वरिष्ठ विधायकों के साथ-साथ युवाओं को भी मौका देना था। बड़े नेताओं के समर्थकों को जगह देने के साथ साथ मध्यप्रदेश के हर क्षेत्र को मौका देना भी कमलनाथ के लिए अपनी कैबिनेट चुनने में परेशानी खड़ी कर रहा था। पर जिन लोगों को उन्होंने मंत्री बनाया, उसे देखकर कह सकते हैं कि उन्होंने बैलेंस बनाने की भरसक कोशिश की है।

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कमलनाथ ने सियासत के मंजे हुए खिलाड़ी की तरह हालात का आकलन किया और अपनी टीम में 28 खिलाड़ियों को चुना। एक ऐसी टीम, जिसमें अनुभव भी है और युवाओं का उत्साह भी। बदलाव भरे इस साल में यदि देखे तो मौजूदा मुख्यमंत्री कमलनाथ सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरे। उन्होंने 15 साल तक सत्ता में रही बीजेपी को शिकस्त तो दी ही। साथ में अपनी पार्टी को भी आत्मविश्वास से भर दिया।

 
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