कलश स्थापना के साथ नवरात्रि शुरू, प्रथम दिन मां शैलपुत्री की आराधना  | Starting Navratri with the Kalash sthapna

कलश स्थापना के साथ नवरात्रि शुरू, प्रथम दिन मां शैलपुत्री की आराधना 

कलश स्थापना के साथ नवरात्रि शुरू, प्रथम दिन मां शैलपुत्री की आराधना 

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 07:47 PM IST, Published Date : September 21, 2017/8:40 am IST

देशभर में आज कलश (घट) स्थापना के साथ ही नवरात्रि शुरू हो गई है। मंदिरों, पूजा पंडालों और घरों में पूरे विधि-विधान के साथ मां दुर्गा के नौ रुपों की आराधना का पावन पर्व शुरू हुआ। नवरात्रों में कलश स्थािपना का विशेष महत्वे है. इस बार कलश स्थावपना का शुभ मुहूर्त 21 सितंबर की सुबह 6 बजकर 3 मिनट से 8 बजकर 22 मिनट तक और दूसरा शुभ मुहूर्त 11 बजकर 36 मिनट से 12 बजकर 24 मिनट तक बताया गया था। शारदीय नवरात्र इस वर्ष 21 सितंबर से शुरू हुई है, इसलिए आखिरी उपवास यानी नवमी 29 सितंबर को होगी. इसके अगले दिन विजयादशमी मनाई जाती है, जो 30 सितंबर को होगी। 

नवरात्रि के अवसर पर चुचापाली पहाड़ी स्थित मां चंडी के दरबार में उमड़ी श्रद्धालुओं की भीड़

देवी दुर्गा के नौ रूप होते हैं। दुर्गाजी पहले स्वरूप में “शैलपुत्री” के नाम से जानी जाती हैं। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। ऐसी मान्यता है कि शैलपुत्री ने पर्वतराज हिमालय के यहां जन्म लिया था और इसी वजह से उनका नामकरण शैलपुत्री हुआ।  मां शैलपुत्री की आराधना से मनोवांछित फल और कन्याओं को उत्तम वर की प्राप्ति होती है। इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना का प्रारंभ होता है। साथ ही साधक को मूलाधार चक्र जाग्रत होने से प्राप्त होने वाली सिद्धियां हासिल होती हैं। 

नवरात्रि पर सजा मां महामाया का दरबार

माता के शैलपुत्री रूप की व्रत कथा के मुताबिक प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था, इसमें उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया, किन्तु भगवान शंकर को निमंत्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तो वहां जाने की उनकी प्रबल इच्छा हुई, जिसे उन्होंने शंकरजी को बताया। भगवान शंकर ने उनसे कहा कि प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया, उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। इसलिए वहाँ जाना श्रेयस्कर नहीं होगा।’ शंकरजी के इस उपदेश के बावजूद पिता का यज्ञ देखने की उनकी व्यग्रता कम नहीं हुई और आखिरकार भगवान शंकर ने उन्हें अनुमति दे दी। सती ने मायके में देखा कि केवल माता ने उन्हें गले लगाया, बाकी किसी ने आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं की, परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत दुख हुआ। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात न मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है। वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध हो अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया। सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे ‘शैलपुत्री’ नाम से विख्यात र्हुईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद् की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।

 

 

 
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