कौवे फिर कान लेकर उड़ने लगे | The crows again started flying with ears

कौवे फिर कान लेकर उड़ने लगे

कौवे फिर कान लेकर उड़ने लगे

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 03:35 AM IST, Published Date : September 22, 2020/6:03 am IST

रायपुर। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन याद हैं? सारा बवाल इस भ्रम और डर को फैलाकर हुआ कि सरकार CAA के जरिए एक समुदाय विशेष की नागरिकता छीन कर उन्हें डिटेंशन सेंटर में कैद कर देगी। बस फिर क्या था। शहर-शहर शाहीन बाग सज गए और प्रायोजित प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया। CAA विरोधियों के उस ‘प्रयोग’ की कीमत दिल्ली दंगे में 50 से ज्यादा लोगों को अपनी जान से हाथ धोकर चुकानी पड़ी।

     थोड़ा पीछे चलिए। 2 अप्रैल 2018 का भारत बंद याद करिए। आरक्षण खत्म होने की कपोल कल्पित आशंका को हिंसा और आगजनी में भड़का कर तब 17 लोगों की जान ले ली गई थी। करोड़ों रुपए की संपत्ति स्वाहा हो गई थी, सो अलग। दोनों घटनाओं में लोगों को बरगलाने का पैटर्न एक समान था। कौवे के कान ले जाने वाला। जबकि हकीकत में ना किसी की नागरिकता छिननी थी और ना किसी का आरक्षण।

    अब एक बार फिर लोगों को कौवे के पीछे दौड़ाने की तैयारी है। इस बार ‘प्रयोग’ किसानों पर है। हरियाणा और पंजाब में तो कौवे किसानों का कान लेकर उड़ भी गए हैं। बाकी प्रदेशों में भी किसानों को कौवे के पीछे दौड़ाने की कवायद शुरू हो गई है। 25 सितंबर को राष्ट्रीय प्रदर्शन की तैयारी है। सरकार बारम्बार किसानों को समझा रही है- भैया! ना MSP खत्म हो रही है और ना ही मंडियां। पूरे देश में आपको जहां का रेट पोसाए आप वहां अपना गल्ला बेचिए। प्रधानमंत्री अपने संबोधनों के अलावा ट्वीट पर ट्वीट करके कृषि सुधार विधेयकों की खूबियां गिना रहे हैं। मंत्री प्रेस कॉन्फ्रेंस करके किसानों को विरोधियों के बहकावे में नहीं आने की समझाइश दे रहे हैं। लेकिन विपक्ष कौवे के पीछे किसानों को दौड़ाने के हाथ आए इस मौके को इतनी आसानी से नहीं जाने देना चाहता। सो आगे मुकाबला दिलचस्प होना तय है।

   दरअसल मौजूदा दौर में अब सारी राजनीतिक लड़ाई किसी नीति और योजना के गुण-दोषों पर सार्थक बहस करने की बजाए धारणाओं पर आकर टिक गई है। योजना कोई हो, विरोधियों का स्वयमेव सिद्ध अंतिम निष्कर्ष यही है कि चूंकि योजना मोदी सरकार लाई है, इसलिए वो जनविरोधी और कार्पोरेट को फायदा पहुंचाने वाली ही होगी। इसके उलट केवल विरोध के लिए विरोध की विपक्षी मानसिकता से सत्तापक्ष ये आम धारणा स्थापित करने में कामयाब रहा है कि अगर फैसले के खिलाफ मोदीविरोधी प्रलाप कर रहे हैं तो वो जरूर देशहित में उठाया गया कदम होगा। सत्तापक्ष के हिमायतियों के प्रचलित डॉयलाग में कहें तो- ‘बिलबिलाहट बताती है कि चोट सही जगह पर लगी है।‘

     कृषि सुधार बिल भी धारणा की इसी लड़ाई की भेंट चढ़ गया है। विपक्ष की कोशिश सरकार को कार्पोरेटपरस्त साबित करने की है तो सरकार ने अपना पूरा जोर इस बिल को किसानों को दलालों के चंगुल से मुक्त कराने वाला साबित करने में लगा दिया है। यानी रणनीति ये समझाने की है कि कृषि सुधारों का विरोध करने वाले किसानों के नहीं बल्कि दलालों और बिचौलियों के हितचिंतक हैं। अब तक के अनुभव यही बताते हैं कि ये मोदी की अर्जित साख और छवि का कमाल है कि धारणा की लड़ाई में जीत हमेशा मोदी की होती है।

     दरअसल समाज में खलनायक की छवि रखने वाले किसी वर्ग को टारगेट करके उसको ठिकाने लगाने के दावे से फैसले की दीगर खामियां नजरअंदाज हो जाती हैं। याद करिए नोटबंदी में टारगेट अवैध संपत्तिधारी धन्नासेठ, राजनेता और आतंकवादी थे तो जीएसटी में टैक्सचोर व्यापारी। आम आदमी की रुचि नोटबंदी और जीएसटी से उसे क्या मिला से ज्यादा उसके खलनायकों ने क्या खोया का हिसाब लगाने पर थी। कृषि सुधार विधेयक में भी सरकार ने आढ़तियों को किसानों का हक मारने वाले खलनायक के रूप में अपना नया टारगेट चुन लिया है। अपने ऊपर लगने वाले कार्पोरेटपरस्ती के आरोपों की काट के तौर पर विपक्ष को दलाल हिमायती साबित करने का ये जुगाड़ बढ़िया है।

     जबकि यही भाजपा तात्कालीन मनमोहन सरकार की ओर से लाए गए रिटेल कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश प्रस्ताव का ठीक इन्हीं तर्कों के साथ विरोध कर रही थी, जो तर्क आज विपक्ष दे रहा है। संसद में प्रस्ताव के खिलाफ बोलते हुए अरुण जेटली, सुषमा स्वराज जैसे भाजपा नेताओं ने तब बड़ी विदेशी कंपनियों के आने से छोटे किसानों को होने वाले उन्हीं नुकसानों को गिनाया था जो आज कृषि सुधार बिल के खिलाफ मौजूदा विपक्ष गिना रहा है। आज भाजपा जिन आढ़तियों को बिचौलिया और दलाल बताकर उनके चंगुल से किसानों को आजादी दिलाने की बात कर रही है, तब इसी भाजपा की सुषमा स्वराज ने संसद में आढ़तियों को किसानों का हितचिंतक बताते हुए कृषि विपणन व्यवस्था में उनके योगदान का महिमामंडन किया था।

     राजनीति के दोगलेपन की ये विशिष्टता है कि उसका केवल चेहरा बदलता है, चरित्र नहीं। विपक्ष से सत्तापक्ष और सत्तापक्ष से विपक्ष के रूप में भूमिका बदलते ही चरित्र भी बदल जाता है। कितनी दिलचसस्प बात है कि आज जो कांग्रेस कृषि क्षेत्र में बड़ी कंपनियों के हस्तक्षेप को किसानों के भविष्य के लिए खतरा बता रही है, तब रिटेल कारोबार में FDI आने से बिचौलियों की भूमिका खत्म हो जाने का हवाला देते हुए किसानों को होने वाले फायदे गिना रही थी। कांग्रेस के इसी दोगलेपन को आइना दिखाते हुए भाजपा ने आरोप लगाया है कि कृषि सुधार बिल के जिन प्रावधानों का आज कांग्रेस विरोध कर रही है उन्हीं को लागू करने का वादा तो कांग्रेस के घोषणा पत्र में शामिल है। राजनीति के रंग वाकई बड़े निराले हैं।

     वस्तुतः देखा जाए तो मौजूदा अर्थतंत्र में अब कृषि क्षेत्र का कारोबारी संचालन परंपरागत विपणन व्यवस्था के दायरे में सीमित रखना अव्यवहारिक रवैया जान पड़ता है। मौजूदा व्वयस्था से अगर अब तक किसानों की हालत में सुधार नहीं हुआ है तो नए उपायों को आजमाने में भला क्या बुराई है? वैसे भी कृषि सुधार विधेयक के जरिए मौजूदा कृषि कारोबार के किसी दरवाजे को बंद करने की बजाए एक और खिड़की ही तो खोली गई है। रही बात इस खिड़की के खुल जाने से होने वाले नुकसान के आशंका की तो इसे मिल बैठकर आम सहमति स्थापित करके दूर किया जा सकता है। लेकिन बिडंबना ये है कि सहमति का अभाव ही मौजूदा दौर का सबसे बड़ा संकट है।

 
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