मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं ? | Watch Video:

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं ?

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं ?

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 08:13 PM IST, Published Date : August 17, 2018/5:30 am IST

रायपुर।  भारत रत्न और दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कविता की विरासत में मिली थी। उनकी कविताओं में राष्ट्र या राजनीति के स्तर पर उपजे हालात का जिक्र होता था या कभी नाराजगी, हौसला और खुशी झलकती थी। जनता पार्टी जब बिखरी, तब उन्होंने ‘गीत नहीं गाता हूं’ कविता लिखी थी। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की स्थापना पर कविता लिखी- ‘गीत नया गाता हूं’।  हम आपको उनकी ये कविताएं सुनाने जा रहे हैं। 

देखें वीडियो-

1. ऊंचाई

 

ऊंचे पहाड़ पर,

पेड़ नहीं लगते,

पौधे नहीं उगते,

न घास ही जमती है।

जमती है सिर्फ बर्फ,

जो, कफ़न की तरह सफेद और,

मौत की तरह ठंडी होती है।

खेलती, खिलखिलाती नदी,

जिसका रूप धारण कर,

अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।

 

ऐसी ऊंचाई,

जिसका परस

पानी को पत्थर कर दे,

ऐसी ऊंचाई

जिसका दरस हीन भाव भर दे,

अभिनंदन की अधिकारी है,

आरोहियों के लिये आमंत्रण है,

उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,

किन्तु कोई गौरैया,

वहां नीड़ नहीं बना सकती,

ना कोई थका-मांदा बटोही,

उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

सच्चाई यह है कि

केवल ऊंचाई ही काफी नहीं होती,

सबसे अलग-थलग,

परिवेश से पृथक,

अपनों से कटा-बंटा,

शून्य में अकेला खड़ा होना,

पहाड़ की महानता नहीं,

मजबूरी है।

ऊंचाई और गहराई में

आकाश-पाताल की दूरी है।

जो जितना ऊंचा,

उतना एकाकी होता है,

हर भार को स्वयं ढोता है,

चेहरे पर मुस्कानें चिपका,

मन ही मन रोता है।

जरूरी यह है कि

ऊंचाई के साथ विस्तार भी हो,

जिससे मनुष्य,

ठूंठ सा खड़ा न रहे,

औरों से घुले-मिले,

किसी को साथ ले,

किसी के संग चले।

भीड़ में खो जाना,

यादों में डूब जाना,

स्वयं को भूल जाना,

अस्तित्व को अर्थ,

जीवन को सुगंध देता है।

धरती को बौनों की नहीं,

ऊंचे कद के इंसानों की जरूरत है।

इतने ऊंचे कि आसमान छू लें,

नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,

किन्तु इतने ऊंचे भी नहीं,

कि पांव तले दूब ही न जमे,

कोई काँटा न चुभे,

कोई कली न खिले।

न वसंत हो, न पतझड़,

हो सिर्फ ऊंचाई का अंधड़,

मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।

 

मेरे प्रभु!

मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना,

गैरों को गले न लगा सकूं,

इतनी रुखाई कभी मत देना।

 

2. दो अनुभूतियां

 

 

– पहली अनुभूति

बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं 

टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं

गीत नहीं गाता हूं

 

लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर

अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं

गीत नहीं गाता हूं

 

पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद

मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं

गीत नहीं गाता हूं

 

दूसरी अनुभूति

 

गीत नया गाता हूं

 

टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर

पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर

झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात

 

प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूं

गीत नया गाता हूं

 

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी

अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी

हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,

 

काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं

गीत नया गाता हूं

 

3. दूध में दरार पड़ गई

 

खून क्यों सफेद हो गया?

 

भेद में अभेद खो गया

बंट गये शहीद, गीत कट गए,

कलेजे में कटार दड़ गई

दूध में दरार पड़ गई।

 

खेतों में बारूदी गंध,

टूट गये नानक के छंद

सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।

वसंत से बहार झड़ गई

दूध में दरार पड़ गई।

 

अपनी ही छाया से बैर,

गले लगने लगे हैं गैर,

ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।

बात बनाएं, बिगड़ गई।

दूध में दरार पड़ गई।

 

4. कदम मिलाकर चलना होगा

 

बाधाएं आती हैं आएं

घिरें प्रलय की घोर घटाएं,

पांवों के नीचे अंगारे,

सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,

निज हाथों में हंसते-हंसते,

आग लगाकर जलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

 

हास्य-रूदन में, तूफानों में,

अगर असंख्यक बलिदानों में,

उद्यानों में, वीरानों में,

अपमानों में, सम्मानों में,

उन्नत मस्तक, उभरा सीना,

पीड़ाओं में पलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

 

उजियारे में, अंधकार में,

कल कहार में, बीच धार में,

घोर घृणा में, पूत प्यार में,

क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,

जीवन के शत-शत आकर्षक,

अरमानों को ढलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

 

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,

प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,

सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,

असफल, सफल समान मनोरथ,

सब कुछ देकर कुछ न मांगते,

पावस बनकर ढलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

 

कुछ कांटों से सज्जित जीवन,

प्रखर प्यार से वंचित यौवन,

नीरवता से मुखरित मधुबन,

परहित अर्पित अपना तन-मन,

जीवन को शत-शत आहुति में,

जलना होगा, गलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

 

5. मनाली मत जइयो

 

मनाली मत जइयो, गोरी 

राजा के राज में. 

 

जइयो तो जइयो, 

उड़िके मत जइयो, 

अधर में लटकीहौ, 

वायुदूत के जहाज में।

 

जइयो तो जइयो, 

सन्देसा न पइयो, 

टेलीफोन बिगड़े हैं, 

मिर्धा महाराज में।

 

जइयो तो जइयो, 

मशाल ले के जइयो, 

बिजुरी भइ बैरिन 

अंधेरिया रात में। 

 

जइयो तो जइयो, 

त्रिशूल बांध जइयो, 

मिलेंगे खालिस्तानी, 

राजीव के राज में।

 

मनाली तो जइहो

सुरग सुख पइहो

दुख नीको लागे, मोहे 

राजा के राज में।

 

6. एक बरस बीत गया 

  

झुलसाता जेठ मास 

शरद चांदनी उदास 

सिसकी भरते सावन का 

अंतर्घट रीत गया 

एक बरस बीत गया 

 

सीकचों में सिमटा जग 

किंतु विकल प्राण विहग 

धरती से अम्बर तक 

गूंज मुक्ति गीत गया 

एक बरस बीत गया 

 

पथ निहारते नयन 

गिनते दिन पल छिन 

लौट कभी आएगा 

मन का जो मीत गया 

एक बरस बीत गया

 

7. कौरव कौन, कौन पांडव

 

कौरव कौन

कौन पांडव,

टेढ़ा सवाल है|

दोनों ओर शकुनि

का फैला

कूटजाल है।

धर्मराज ने छोड़ी नहीं

जुए की लत है।

हर पंचायत में

पांचाली

अपमानित है।

बिना कृष्ण के

आज

महाभारत होना है,

कोई राजा बने,

रंक को तो रोना है।

 

8. मैं न चुप हूं न गाता हूं

 

सवेरा है मगर पूरब दिशा में

 

घिर रहे बादल

 

रूई से धुंधलके में

 

मील के पत्थर पड़े घायल

 

ठिठके पांव

 

ओझल गांव

 

जड़ता है न गतिमयता

 

स्वयं को दूसरों की दृष्टि से

 

मैं देख पाता हूं

 

न मैं चुप हूं न गाता हूं

 

समय की सदर साँसों ने

 

चिनारों को झुलस डाला,

 

मगर हिमपात को देती

 

चुनौती एक दुर्ममाला,

 

बिखरे नीड़,

 

विहंसे चीड़,

 

आंसू हैं न मुस्कानें,

 

हिमानी झील के तट पर

 

अकेला गुनगुनाता हूं।

 

न मैं चुप हूं न गाता हूं।

 

9. जो बरसों तक सड़े जेल में

 

जो बरसों तक सड़े जेल में, उनकी याद करें।

 

जो फांसी पर चढ़े खेल में, उनकी याद करें।

 

याद करें काला पानी को,

 

अंग्रेजों की मनमानी को,

 

कोल्हू में जुट तेल पेरते,

 

सावरकर से बलिदानी को।

 

याद करें बहरे शासन को,

 

बम से थर्राते आसन को,

 

भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू

 

के आत्मोत्सर्ग पावन को।

 

अन्यायी से लड़े,

 

दया की मत फरियाद करें।

 

उनकी याद करें।

 

बलिदानों की बेला आई,

 

लोकतंत्र दे रहा दुहाई,

 

स्वाभिमान से वही जियेगा

 

जिससे कीमत गई चुकाई

 

मुक्ति माँगती शक्ति संगठित,

 

युक्ति सुसंगत, भक्ति अकम्पित,

 

कृति तेजस्वी, घृति हिमगिरि-सी

 

मुक्ति मांगती गति अप्रतिहत।

 

अंतिम विजय सुनिश्चित, पथ में

 

क्यों अवसाद करें?

 

उनकी याद करें।

 

10. मौत से ठन गई

ठन गई!

मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,

मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,

यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,

जिन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,

लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?

तू दबे पांव, चोरी-छिपे से न आ,

सामने वार कर फिर मुझे आजमा।

मौत से बेखबर, ज़िन्दगी का सफर,

शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई गम ही नहीं,

दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,

न अपनों से बाकी हैं कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,

आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज तूफान है,

नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,

देख तेवर तूफां का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।

 

 

 

 

 

वेब डेस्क, IBC24