राघौगढ़। विधायकजी के रिपोर्ट कार्ड में आज बारी है मध्यप्रदेश की राघौगढ़ विधानसभा क्षेत्र की। राघौगढ़ विधानसभा क्षेत्र में शुरू से लेकर अब तक इस सीट पर राजमहल का खासा असर रहा है। कांग्रेस के वर्तमान विधायक जयवर्धन सिंह भी राजघराने से हैं। यूं तो विधायक जयवर्धन सिंह के खिलाफ यहां ज्यादा नाराजगी देखने को नहीं मिलती। लेकिन पिछले चुनाव में किए गए वादों में कुछ ऐसे वादे अब तक अधूरे हैं और आज भी राघौगढ़ की जनता सड़क, पानी, बिजली और बेरोजगारी जैसी समस्या से जूझ रही है।
महल राघौगढ़ की राजनीति का अहम केंद्र बिंदु रहा है। कभी यहां के राजा यानी कांग्रेस के दिग्गज नेता और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की सभा लगती थी। उसके बाद छोटे राजा यानी लक्ष्मण सिंह ने भी सभा लगाकर जनसुनवाई की। अब इस राजपरिवार की विरासत दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह क्षेत्र के विधायक होने के नाते संभाल रहे हैं। लेकिन लोकतंत्र के इस दौर केवल महल का बैकग्राउंड ही सफलता की गारंटी नहीं है। इस बात को कांग्रेस विधायक जयवर्धन सिंह भी बखूबी समझते हैं। यही वजह है कि वो राजा के दरबार की जगह लोगों के बीच खड़े होकर उनकी फरियाद सुनते हैं।
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पिछले कई बरसों के राघौगढ़ की जनता यहां के राजपरिवार और कांग्रेस पर अपना भरोसा जताती आ रही है और मौजूदा विधायक जयवर्धन सिंह के खिलाफ ज्यादा नाराजगी नजर नहीं आती। लेकिन विधानसभा क्षेत्र में आज भी सड़क, पानी, बिजली और बेरोजगारी जैसी समस्याएं हैं। राघौगढ़ नगर में तो अच्छी सड़कें नजर आती हैं, लेकिन ग्रामीण इलाकों में अभी भी पक्की सड़कों का इंतजार है। वहीं बेरोजगारी भी यहां आने वाले चुनाव में बड़ा सियासी मुद्दा बनेगा।
राघौगढ़ में इस बार एबी रोड पर लगा टोल नाका भी चुनावी मुद्दा बन सकता है। दरअसल लोगों को अपनी विधानसभा में ही वाहन से जाने पर टोल चुकाना पड़ता है। वहीं प्रधानमंत्री आवास योजना और राज्य सरकार की योजनाओं का लाभ नहीं मिलने से भी लोग खफा हैं। हालांकि विधायक दावा कर रहे हैं कि उन्होंने जनता से किया हर वादा पूरा किया है। लेकिन बीजेपी के नेता इस दावे को सिरे से खारिज करते हैं। कुल मिलाकर राघौगढ़ में कभी इस महल के आगे गुहार लगाने वाली जनता आज पूरे हक से आवाज बुलंद करती है। लेकिन राजतंत्र के लोकतंत्र के इतने लंबे सफर के बाद भी कुछ दुश्वारियां ऐसी हैं जिनका का हल न तो पहले हुआ और ना आज हो पाया है
राघौगढ़ के सियासी इतिहास की बात की जाए तो कांग्रेस के इस अभेद्य किले को भेदने में बीजेपी अब तक नाकाम रही है। बतौर मुख्यमंत्री रहते हुए दिग्विजय सिंह ने 2003 में यहीं से शिवराज सिंह चौहान को पराजित किया था। बीजेपी ने चुनाव दर चुनाव नए-नए प्रयोग कर अपने उम्मीदवारों के चेहरे बदले, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। इस बार राघौगढ़ में कांग्रेस के इस मजबूत किले के तिलस्म को तोड़ना बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है
गुना जिले में आने वाली राघौगढ़ विधानसभा मध्यप्रदेश का अहम सियासी केंद्र माना जा सकता है। यहां होने वाली सियासी गतिविधियों का असर दूसरे सीटों पर भी पड़ता है। लिहाजा आने वाले चुनाव में इस सीट पर पूरे राज्य की नजर होगी। वैसे राघौगढ़ के सियासी इतिहास की बात की जाए तो यहां की राजनीति पर महल का असर शुरू से ही रहा है और यही यहां से कांग्रेस की सफलता की बड़ी वजह भी रही है। राघौगढ़ सीट पर या तो राजपरिवार के सदस्य चुनाव लड़ते आए हैं या फिर उनके समर्थक। यही कारण रहा कि राघौगढ़ सीट कभी भी किले की राजनीति से अछूती नहीं रह सकी। कांग्रेस अभी भी दावा कर रही है कि इस बार भी पार्टी रिकॉर्ड जीत हासिल करेगी।
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1977 और 1980 में दिग्विजय सिंह राघौगढ़ सीट से विधायक रहे। 1985 में मूल सिंह यहां पर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते। लेकिन 1990 और 1993 में इस सीट से लक्ष्मण सिंह यहां से विधायक रहे। इसके बाद 1998 और 2003 में भी दिग्विजय सिंह यहां से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। 2008 की बात करें तो कांग्रेस के टिकट पर मूलसिंह दादाभाई चुनाव लड़े और जीते। लेकिन 2013 में कांग्रेस ने यहां दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह को मैदान में उतारा, वे बीजेपी प्रत्याशी राधेश्याम धाकड़ को शिकस्त देकर पहली बार विधानसभा पहुंचे। इस चुनाव में कांग्रेस को जहां 98041 वोट मिले वहीं बीजेपी को महज 39837 वोट मिले। इस तरह जीत का अंतर 58204 वोटों का रहा।
अब जब चुनाव नजदीक है तो राघौगढ़ में एक बार फिर सियासी हलचल तेज हो चली है। बीजेपी के सामने जहां महल के असर को खत्म करके कांग्रेस को मात देने की चुनौती है तो वहीं कांग्रेस के सामने महल के भरोसे अपनी पकड़ को बनाए रखने की। इसी बीच बीजेपी नेताओं का दावा है कि कांग्रेस की ये परंपरागत सीट अब बीजेपी के कब्जे में होगी। बीजेपी लाख दावे करे कि वो इस बार राघौगढ़ में कमल खिलेगा लेकिन हकीकत ये है कि तमाम कोशिशों और चुनाव दर चुनाव नए-नए प्रयोग करने के बाद भी बीजेपी किले में सेंध नहीं लगा पाई है। और राघौगढ़ में कांग्रेस आज भी अजेय बनी हुई है।
राघौगढ़ की राजनीति में लंबे समय तक राजमहल का असर रहा है और आज भी कांग्रेस के प्रत्याशी का फैसला यहीं से होता है। आगामी विधानसभा चुनाव की बात करें तो कांग्रेस से जयवर्धन सिंह टिकट के इकलौते दावेदार हैं। वहीं बीजेपी हर बार यहां जीतने के इरादे से प्रत्याशी तो बदलती है लेकिन उसे सफलता अब तक नहीं मिली है। ऐसे में पार्टी आलाकमान के सामने चुनौती है कि वो इस बार सही उम्मीदवार को चुनाव मैदान में उतारे।
राघौगढ़ की राजनीति में अगर कांग्रेस अजेय बनी हुई है। तो इसमें यहां के राजपरिवार का खासा योगदान रहा है। वर्तमान विधायक जयवर्धन सिंह भी राजघराने से ही आते हैं। जयवर्धन सिंह क्षेत्र की जनता के बीच काफी लोकप्रिय हैं और आगामी चुनाव में एक बार फिर ताल ठोंकने के लिए तैयार हैं। राघौगढ़ के सियासी समीकरण पर गौर करें तो कांग्रेस में प्रत्याशी के रूप में जयवर्धन सिंह ही इकलौते चेहरे नजर आते हैं। उनके अलावा कोई भी नेता इस सीट से दावेदारी करने के लिए तैयार नहीं। जयवर्धन सिंह भी पूरे आत्मविश्वास के साथ रिकार्ड जीत की बात करते हैं।
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वहीं दूसरी ओर बीजेपी में भी टिकट के लिए ज्यादा लड़ाई नहीं है। पिछली बार जयवर्धन सिंह के हाथों शिकस्त खाने वाले बीजेपी नेता राधेश्याम धाकड़ इस बार भी क्षेत्र से हुंकार भर रहे हैं। उनका दावा है कि पार्टी इस बार राघौगढ़ का इतिहास जरूर बदलेगी। कांग्रेस से खफा होकर छह महीने पहले बीजेपी का दामन थामने वाले अनिमेश भार्गव भी दावेदारी कर रहे हैं। हालांकि चर्चा ये भी है कि किले की धुर विरोधी चांचौड़ा विधायक ममता मीना के पति आईपीएस रघुवीर मीना वीआरएस लेकर किले के खिलाफ मैदान में उतर सकते हैं। लेकिन आईपीएस रघुवीर इसे महज चर्चा बता रहे हैं और वैसे भी ऐसा होने की संभावना कम ही नजर आ रही है।
दोनों दलों में प्रत्याशियों को लेकर स्थिति पहले से लगभग साफ है। इस कारण यहां के चुनावी समीकरण ज्यादा उलझे हुए नहीं हैं। हालांकि दोनों की दल के नेता दावा कर रहे हैं कि इस बार राघौगढ़ विधानसभा सीट पर उनका कब्जा होगा।
वेब डेस्क, IBC24
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