जब भगत सिंह की फांसी का विरोध करने लीग ऑफ नेशन्स पहुंच गए थे डाॅ लोहिया... | when ram manohar lohiya go to League of Nations for protest against the execution of Bhagat Singh

जब भगत सिंह की फांसी का विरोध करने लीग ऑफ नेशन्स पहुंच गए थे डाॅ लोहिया…

जब भगत सिंह की फांसी का विरोध करने लीग ऑफ नेशन्स पहुंच गए थे डाॅ लोहिया...

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 09:01 PM IST, Published Date : October 12, 2017/8:10 am IST

 

डाॅ राममनोहर लोहिया…… एक ऐसा व्यक्तित्व जिसे समझाने के लिए शायद शब्द कम पड़ जाएं, स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय राजनीति के विराट व्यक्तित्व, भारतीय समाजवाद के प्रचारक और एक महान देशभक्त। लोहिया जी के बारे में कहा जाता है कि वे राजनीतिज्ञों तथा नौकरशाहों के लिए किसी बुरे सपने से कम नही थे, वहीं दलितों व शोषितों के लिए शक्ती। राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 में तत्कालिन अकबरपुर और वर्तमान के अंबेडकर नगर में हुआ, प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने जर्मनी जाकर नमक और सत्याग्रह विषय पर अर्थशास्त्र में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वैसे लोहिया जी को किसी एक श्रेणी मे रखना बहुत मुश्किल है, लेकिन कहा जा सकता है कि उनके विचारों पर महात्मा गांधी और कार्ल मार्क्स  के विचारों की गहरी छाप थी। वे कहा करते थे गांधी और मार्क्स से सीखने के लिए अमूल्य खजाने पड़े है।

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राममनोहर लोहिया ने देश को आदर्श समाज व राष्ट्र के लिए तीसरा रास्ता सुझाया या कहें देश के सामने समाजवाद का ठोस रूप प्रस्तुत किया। उनके अनुसार समाजवाद गरीबी के समान बंटवारें का नाम नहीं बल्कि समृद्धि के ज्यादा से ज्यादा वितरण का नाम है। बिना समता के समृद्धि को असंभव और बिना समृद्धि के समता को व्यर्थ मानने वाले लोहिया का मानना था कि आर्थिक बराबरी होने पर जाति व्यवस्था अपने आप खत्म हो जाएगी। व्यवस्था में बदवाल के लिए लोहिया ने मौजूदा सरकारों पर भी निशाना साधा उन्होंने कहा मुखैटा चढ़ा रखी सरकारें बुनियादी कसौटी पर विफल हैं। और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों से निपटने में नाकाम है। राम मनोहर लोहिया सिर्फ विचारक ही नहीं बल्कि एक सशक्त और निडर नेता थे, उनके साहस और निर्भिकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे भगत सिंह की फांसी का विरोध करने बर्लिन में चल रही लीग आॅफ नेशन्स की बैठक में पहुंच गए और दर्शकदिर्घा में बैठे लोहिया ने अचानक सीटी बजाना शुरू कर दिया और तमाम देशों के प्रतिनिधयों का ध्यान भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के दमन की ओर आकर्षित किया। हांलाकि इस बाद लोहिया को दर्शक दिर्घा से बाहार निकाल दिया लेकिन तब तक वे अपना काम कर चुके थे।

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लोहिया के भाषणों में इतना तेज और ओजस का था की सिर्फ उनके भाषणों के कारण अंग्रेज सरकार ने उन्हें दो बार गिरफ्तार कर लिया था वैसे लोहिया एक बार तो अपने मित्र जयप्रकाश नारायण के साथ हजारीबाग जेल से फरार भी हो गए थे, और अंडरग्राउंड रहते हुए ही उन्होंने आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया। वहीं देश की आजादी के बाद उन्होंने सत्ताधारी कांग्रेस का साथ सिर्फ यह कहते हुए छोड़ दिया की ज्यादा समय तक सत्ता में रहने से कांग्रेस में दोष आ गए है और देश को समानांतर गैरकांग्रेसी पार्टी की जरूरत है। कांग्रेस से अलग होने के बाद तो जैसे लोहिया ने सत्ता के विरूद्ध आंदोलन ही छेड़ दिया। एक बार तो संसद भवन में उन्होंने प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के एक दिन के खर्च की तुलना गरीब बहुसंख्यक जनता के खर्च से कर नेहरू और कांग्रेस को धर्मसंकट में डाल दिया था।

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अपने तीखे और सवाल खड़े करते भाषणों ने लोहिया जी को देश की आजदी बाद भी जेल के दर्शन कराए लेकिन वे डिगे नहीं बल्कि और अधिक मजबूती के साथ गरीब, कुचले और सबसे हाशिए पर पड़े लोगों के लिए काम करते रहे। समाज को अपना कार्यक्षेत्र मानने वाले लोहिया चाहते थे कि व्यक्ति-व्यक्ति के बीच कोई भेद, कोई दुराव और कोई दीवार न रहे। सब समान हो, सब जन का मंगल हो। उन्होंने सदा ही विश्व-नागरिकता का सपना देखा था। उनकी महानता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है की वे मानव मात्र को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व का नागरिक मानते थे। जनता को वह जनतंत्र का निर्णायक मानते थे। लेकिन 12 अक्टूबर 1967 को मात्र 57 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया। 

 
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