Satyanarayan Bhagwan ki Katha : श्री सत्यनारायण कथा के चौथे अध्याय में है “जाने-अनजाने हुए पापों से मुक्ति तथा भगवान विष्णु जी का आशीर्वाद”
In the fourth chapter of Shri Satyanarayan Katha, there is "Freedom from known and unknown sins and blessings of Lord Vishnu"
Satyanarayan Vrat Katha - Chautha Adhyay..
Satyanarayan Bhagwan ki Katha : सत्यनारायण कथा का चौथा अध्याय पढ़ने से भगवान सत्यनारायण की कृपा प्राप्त होती है। इस अध्याय में साधु नामक व्यापारी द्वारा भगवान के प्रसाद का अपमान करने और उसके बाद भगवान द्वारा उसे दंडित करने की कथा है। इस अध्याय को पढ़ने से भक्तों को यह सीख मिलती है कि भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा और विश्वास रखना चाहिए और उनके प्रसाद का अपमान नहीं करना चाहिए। आईये यहाँ प्रस्तुत है श्री सत्यनारायण कथा – चौथा अध्याय
श्री सत्यनारायण व्रत कथा – चतुर्थ अध्याय
सूत जी ने आगे कहा, “वैश्य ने यात्रा आरम्भ की और अपने नगर को चला। उनके थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर दण्डी वेषधारी श्री सत्यनारायण भगवान ने उसकी परीक्षा लेने हेतु उससे पूछा, “हे वैश्य! तेरी नाव में क्या है? अभिमानि वणिक हँसता हुआ बोला, “हे दण्डी! आप क्यों पूछते हैं? क्या धन लेने की कामना है? मेरी नाव में तो बेल के पत्ते भरे हैं।”
वैश्य के ऐसे वचन सुनकर दण्डी वेशधारी श्री सत्यनारायण भगवान बोले, “तुम्हारा वचन सत्य हो! ऐसा कहकर वे वहाँ से चले गये और कुछ दूर जाकर समुद्र के तट पर बैठ गये।
Satyanarayan Bhagwan ki Katha
दण्डी महाराज के जाने के पश्चात वैश्य ने नित्य-क्रिया से निवृत्त होने के उपरान्त नाव को ऊँची उठी देखकर अचम्भा किया तथा नाव में बेल-पत्ते आदि देखकर मूर्च्छित हो भूमि पर गिर पड़ा। मूर्च्छा खुलने पर अति शोक करने लगा। तब उसके दामाद ने कहा, “आप शोक न करें। यह दण्डी महाराज का श्राप है, अतः हमें उनकी शरण में ही चलना चाहिये, वही हमारे दुःखों का अन्त करेंगे।” दामाद के वचन सुनकर वह वैश्य दण्डी भगवान के पास पहुँचा और अत्यन्त भक्तिभाव से पश्चाताप करते हुये बोला, “मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे, उनके लिये मुझे क्षमा करें।” ऐसा कहकर वह शोकातुर हो रोने लगा। तब दण्डी भगवान बोले, “हे वणिक पुत्र! मेरी आज्ञा से ही बार-बार तुझे दुख कष्ट प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ है।” तब उस वैश्य ने कहा, “हे भगवन्! आपकी माया को ब्रह्मा आदि देवता भी नहीं जान पाते, तब मैं मुर्ख भला कैसे जान सकता हूँ। आप प्रसन्न होइये, मैं अपनी क्षमता अनुसार आपकी पूजा करूँगा। मेरी रक्षा कीजिये और मेरी नौका को पहले के समान धन से परिपूर्ण कर दीजिये।”
Satyanarayan Bhagwan ki Katha
उसके भक्ति से परिपूर्ण वचन सुनकर श्री सत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गये और उसकी इच्छानुसार वर देकर अन्तर्धान हो गये। तब ससुर एवं दामाद दोनों ने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है। फिर वह विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन कर साथियों सहित अपने नगर को चला। जब वह अपने नगर के निकट पहुँचा तब उसने एक दूत को अपने घर भेजा। दूत ने साधु वैश्य के घर जाकर उसकी पत्नी को नमस्कार किया और कहा, “आपके पति अपने जमाता सहित इस नगर मे समीप आ गये हैं।” लीलावती और उसकी कन्या कलावती उस समय भगवान का पूजन कर रही थीं। दूत का वचन सुनकर साधु की पत्नी ने बड़े हर्ष के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन पूर्ण किया तथा अपनी पुत्री से कहा, “मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ, तू पूजन पूर्ण कर शीघ्र आ जाना।” परन्तु कलावती पूजन एवम् प्रसाद छोड़कर अपने पति के दर्शन के लिये चली गयी।
Satyanarayan Bhagwan ki Katha
पूजन एवम् प्रसाद की अवज्ञा के कारण भगवान सत्यनारायण ने रुष्ट हो, उसके पति को नाव सहित पानी में डुबो दिया। कलावती अपने पति को न पाकर रोती हुयी भूमि पर गिर पड़ी। नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोती हुआ देख साधु नामक वैश्य द्रवित हो बोला, “हे प्रभु! मुझसे या मेरे परिवार से अज्ञानतावश जो अपराध हुआ है, उसे क्षमा करें।”
Satyanarayan Bhagwan ki Katha
उसके ऐसे वचन सुनकर सत्यदेव भगवान प्रसन्न हो गये। आकाशवाणी हुयी, “हे वैश्य! तेरी पुत्री मेरा प्रसाद छोड़कर आयी है, इसीलिये इसका पति अदृश्य हुआ है। यदि वह घर जाकर प्रसाद ग्रहण कर लौटे तो इसे इसका पति अवश्य मिलेगा।” आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुँचकर प्रसाद ग्रहण किया एवं तत्पश्चात आकर अपने पति को पूर्व रूप में पाकर वह अति प्रसन्न हुयी तथा उसने अपने पति के दर्शन किये। तत्पश्चात साधु वैश्य ने वहीं बन्धु-बान्धवों सहित सत्यदेव का विधिपूर्वक पूजन किया। वह इस लोक के सभी प्रकार के सुख भोगकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुआ।
॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा चतुर्थ अध्याय सम्पूर्ण ॥
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