#ATAL_RAAG_सच से कब तक मुंह मोड़ोगे?
सच से कब तक मुंह मोड़ोगे?

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
बांग्लादेश में हिंदू युवक दीपू चंद्र दास की जिस बर्बरता के साथ हत्या की गई है। ब्लासफेमी का आरोप लगाकर उसे जला दिया गया। क्योंकि वो हिंदू था। इस्लामिक आक्रांताओं ने ठीक इसी तर्ज़ पर ही ही भारत को रक्तरंजित किया है। हमारे असंख्य पूर्वजों की नृशंसता के साथ ‘हत्याएं’ की। ये ध्यान रखिए कि भारत में ‘इस्लाम’ , ख़ूनी तलवार के साथ ही आया था। वो कोई शांति का संदेश लेकर नहीं आया था। न ही अरब से कोई विकास की बयार लाया था। जैसा की तथाकथित गल्पकारों ने इतिहास की किताबों में पढ़ाया। इस्लामिक आक्रांताओं का उद्देश्य केवल लूट-मार नहीं था। केवल सत्ता पर कब्ज़ा करने का उनका इरादा नहीं था। बल्कि उनका विज़न शुरू से क्लियर था। वो ये कि — गैर मुस्लिमों को इस्लाम में कन्वर्ट करना था।जो कन्वर्ट नहीं होंगे उन्हें जीने का हक़ नहीं होगा। ये इतिहास की क्रूर सच्चाई है। इन बातों को स्वीकार किए बिना आप आगे नहीं बढ़ सकते। फ़ालतू का एकतरफा सेक्युलर तराना नहीं गा सकते। अगर गाते हैं तो ये सुसाइडल अटेम्प्ट है।
वस्तुत: बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के तख्तापलट के बाद जितने भी घटनाक्रम हो रहे हैं। हिंदुओं का नरसंहार हो रहा है। वो कोई निजी दुश्मनी नहीं है। बल्कि वो मज़हबी आतंक है। एक सोच है। एक साफ्टवेयर है। वो जिस हार्डवेयर में अपलोड होगा। वो ऐसा ही हो जाएगा। ये क्यूं भूलना कि जो आज मज़हबी उत्पात मचा रहे हैं। वो सब कन्वर्टेड ही हैं।
कन्वर्ट हुए तो उनका चेहरा-मोहरा, सोच-पहचान — सब बदल गई। वो उन्हीं लोगों के दुश्मन हो गए जो कभी उनके पूर्वज थे। क्योंकि उनकी मज़हबी कट्टर सोच काफ़िर को जीने का अधिकार ही नहीं देती है।
जो मज़हबी तराने गाते हैं। वो पाकिस्तान, आज के बांग्लादेश को देख लें। उन्हें पता लग जाएगा कि मज़हबी मुल्कों में काफ़िरों का हश्र क्या होता है। ये भी ध्यान रखना चाहिए कि ये वही कृतघ्न बांग्लादेश है जिसका निर्माण ही भारत ने किया था। काश उस वक्त आयरन लेडी, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बंगभूमि का भारत में विलय करवा दी हुई होतीं तो ये नौबत ही न आती। लेकिन जो होना था वो नहीं हुआ। अब उस पर पछतावा, क्रोध और दुःख प्रकट करने के सिवाय कुछ और नहीं बचा है।
आज पाकिस्तान और बांग्लादेश में गैर मुस्लिमों के साथ जो हो रहा है। उसके दोषी केवल अकेले पंडित नेहरू नहीं हैं। बल्कि उसके प्रमुख विलेन में जोगेंद्र नाथ मंडल भी शामिल हैं। ये वही मंडल हैं जिन्होंने ‘दलित-मुस्लिम’ एकता का राग अलापा था। पाकिस्तान के प्रमुख पैरोकारों में से एक थे। पाकिस्तान बनाने में उनकी बड़ी भूमिका थी। जब पाकिस्तान बना तो वो वहां के पहले कानून और श्रम मंत्री भी बने। लेकिन उनका ‘दलित-मुस्लिम’ एकता वाला भ्रम भी बहुत जल्दी टूट गया। भारत विभाजन की त्रासदी के साथ ही लगातार हिंदुओं का कत्लेआम हुआ। हिंदू स्त्रियों के साथ अनाचार हुआ। वो पीड़ा इतनी क्रूर और मर्मांतक थी कि उसकी कल्पना भर से हृदय कांप जाए।
अंततोगत्वा फ़र्ज़ी दलित मुस्लिम एकता का अंतिम हश्र जोगेंद्र नाथ मंडल ने भी देखा। 8 अक्टूबर 1950 को जोगेंद्र नाथ मंडल पाकिस्तान सरकार से इस्तीफा देकर भारत चले आए। भारत के हिंदू समाज के साथ किए पापों के चलते 1968 में वो ख़ुद गुमनामी में मर गए। लेकिन उन्होंने जो अक्षम्य पाप किया — उसकी सज़ा आज भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में बचा-खुचा हिंदू समाज ( सिख समाज) भुगत रहा है। दोयम दर्जे का जीवन जी रहा है। समाप्त होने की स्थिति में है। अपनी सांसों की गिनती गिन रहा है।
ख़ुद अपने इस्तीफे में जोगेंद्र नाथ मंडल ने पाकिस्तान में दलितों पर हुए अत्याचारों को लेकर विस्तार से लिखा था। उसका एक संक्षिप्तांश शायद ‘दलित-मुस्लिम’ एकता वाले पाखंड को लेकर आपकी आंखें खोल दे—
“खुलना जिले के कलशैरा में सशस्त्र पुलिस, सेना और स्थानीय लोगों ने निर्ममता से हिंदुओं के पूरे गांव पर हमला किया। मैंने 28 फरवरी 1950 को कलशैरा और आसपास का दौरा किया। वह स्थान खंडहर में बदल चुका है। लगभग 350 घरों को ध्वस्त कर दिया गया था। मैंने तथ्यों के साथ सूचना दी, लेकिन कुछ नहीं हुआ। ढाका में नौ दिनों के प्रवास के दौरान मैंने दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया। नारायणगंज और चटगांव के बीच रेल पटरियों पर निर्दोष हिंदुओं की हत्याओं ने मुझे अंदर से झकझोर दिया। मैंने पूर्वी बंगाल के मुख्यमंत्री से मुलाक़ात कर दंगा रोकने का आग्रह किया। 20 फरवरी 1950 को मैं बारिसाल पहुंचा। यहां बड़ी संख्या में हिंदुओं को जिंदा जला दिया गया। मैंने जिले के सभी दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया, मधापाशा के जमींदार के घर में 200 लोगों की मौत हुई। मैंने खुद वहां नरकंकाल देखे, जिन्हें गिद्ध और कुत्ते खा रहे थे। वहां पुरुषों की हत्याओं के बाद महिलाओं को आपस में बांट लिया गया। पूर्वी बंगाल के दंगे में 10,000 से अधिक हिंदुओं की हत्याएं हुईं। महिलाओं और बच्चों का विलाप देख मेरा दिल पिघल गया और मैंने स्वयं से पूछा, क्या मैं इसी इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान आया था ?”
आज जो लोग भी तुष्टिकरण, मोटे-मोटे फंड, स्वार्थ के चक्कर में हिंदुओं को बांट रहे हैं। ‘दलित मुस्लिम’ एकता के ‘भीम-मीम’ वाले नारे लगाते हैं। वो भी जोगेंद्र नाथ मंडल जैसे ही घातक रास्ते पर जा रहे हैं। जबकि बाबा साहेब अंबेडकर इस समस्या को अच्छी तरह से जानते थे। इसीलिए वो कभी भी इसके बहकावे में नहीं आए। उन्होंने ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ पुस्तक में अल्पसंख्यक समस्या, मुस्लिम भ्रातृत्व, इस्लामिक मान्यताओं को लेकर सविस्तार लिखा था।सबको चेतावनी दी थी। हिंदू-मुस्लिम जनसंख्या की अदला बदली की बात भी कही थी। लेकिन पंडित नेहरू ने उनकी एक बात नहीं मानी। इस बात की कहीं खुलकर चर्चा नहीं होती। क्योंकि इससे एक विशेष एजेंडा सेट नहीं होगा। और तो और ख़ुद को बाबा साहेब अंबेडकर का अनुयायी कहने वाले तथाकथित नेता, दल — इसकी कभी चर्चा नहीं करते हैं।
बाबा साहेब अंबेडकर बता गए थे कि —“इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है। मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है।मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा और शत्रुता ही है। इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती, बल्कि वह उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है, जिसका कि वे एक हिस्सा है।”
( बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खंड 15- संस्करण 2000)
इन बातों पर गंभीर विमर्श होना चाहिए। क्योंकि ये ज़रूरी ही नहीं बल्कि अनिवार्य है। इतिहास को यथावत देखना। उस पर चर्चा करना कभी भी हानिकारक नहीं होता है। इस्लामिक आक्रमण से लेकर भारत विभाजन, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ हो रही मर्मांतक त्रासदी — इन पर चर्चा करने से कोई तनाव नहीं बढ़ता है। कोई क़ौम ख़तरे में नहीं आती है। बल्कि सच जानेंगे। मानसिकता समझेंगे तो इस भयावह समस्या का समाधान मिलेगा। अन्यथा न जाने कितने दीपू चंद्र दास भारत से बाहर और अन्दर मारे जाते रहेंगे। सिर्फ़ इस अपराध के चलते कि वो हिंदू थे। पहलगाम का आतंकी हमला भी वही है। स्थान और तौर-तरीके बदले थे। कॉन्सेप्ट एक ही था।
साथ ही ये तथ्य भी मत भूलियेगा कि बांग्लादेश में जिसके राज में हिंदुओं का अभी नरसंहार हो रहा है। उसे नोबेल शांति पुरस्कार मिला था। यानी शांति की परिभाषा और पश्चिम के जितने भी प्रतिष्ठित पुरस्कार होते हैं। उसके पीछे की मंशा क्या हो सकती है? इसे समझने में आसानी होगी। क्योंकि पश्चिमी देशों के पुरस्कार एक तरह से — उनके वैश्विक एजेंडे का पर्याय बनते जा रहे हैं। उस प्रतिष्ठा के आधार पर पश्चिमी देश – हर जगह अपने उन मोहरों को लॉन्च कर रहे हैं। जो उनके मॉड्यूल को आगे बढ़ा सकें। ऐसे में जो वर्तमान में अवार्ड धारी गैंग है। उसकी कही, लिखी बातों को केवल इस आधार पर सच नहीं मानना चाहिए कि उसे नोबेल पुरस्कार, रैमन मैग्सेसे, बुकर जैसे अवार्ड मिले हैं। क्योंकि अवार्ड केवल एक टूल हो सकता है। उनके एजेंडे की वैलिडिटी का। ठीक वैसे ही जैसे मोहम्मद युनूस बांग्लादेश में हैं।
सत्य तो ये है कि भारत सेक्यूलर इसीलिए है क्योंकि यहां अभी हिंदू समाज है। जहां-जहां हिंदू घटेगा, बंटेगा… वहां वहां कटेगा; ये कोई पॉलिटिकल नारा नहीं है। ये कोई बीजेपी, RSS का नारा नहीं है। बल्कि वो कड़वी सच्चाई है जिससे लोग मुंह मोड़ते हैं। जानते हैं लेकिन तुष्टिकरण के लिए भाईचारा में ‘चारा’ बनने के लिए मुंह नहीं खोलते हैं। लेकिन कब तक? आप ओर संकट में हैं फिर भी नहीं बोलेंगे? भला ऐसी क्या मजबूरी है? अगर वक्त लगे तो चिंतन मंथन कीजिए। क्योंकि ऐसा करने से आप ‘हिन्दू मुस्लिम’ नहीं करते हैं बल्कि सही अर्थों में सेक्युलर होने की अर्हता पूरी करते हैं। सच के क़रीब जाते हैं। अपने अस्तित्व को पहचानते हैं।
~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
(साहित्यकार, स्तंभकार एवं पत्रकार)
Disclaimer- ब्लॉग में व्यक्त विचारों से IBC24 अथवा SBMMPL का कोई संबंध नहीं है। हर तरह के वाद, विवाद के लिए लेखक व्यक्तिगत तौर से जिम्मेदार हैं।
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