कोरोना काल: उदासीनता से उत्कर्ष की ओर ले जाने वाला रास्ता |

कोरोना काल: उदासीनता से उत्कर्ष की ओर ले जाने वाला रास्ता

कोरोना काल: उदासीनता से उत्कर्ष की ओर ले जाने वाला रास्ता

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 09:01 PM IST, Published Date : September 28, 2021/1:39 pm IST

(डगल सुदरलैंड, वेलिंगटन यूनिवर्सिटी)

वेलिंगटन, 28 सितंबर (द कन्वरसेशन) अगर आप खुद को बुझे-बुझे, सुस्त और उदास महसूस कर रहे हैं तो यकीन मानिए आप अकेले नहीं हैं। 2021 में यह प्रमुख भावनाओं में से एक है क्योंकि हमारा जीवन वैश्विक महामारी के साये में गुजर रहा है और दुनियाभर में कई भयावह घटनाक्रम हो रहे हैं।

बहुत से लोग संघर्ष कर रहे हैं और इन संघर्षों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, लेकिन चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बावजूद महामारी ने फलने-फूलने का मौका भी दिया है – अच्छी तरह से काम करने और अच्छा महसूस करने का, इस भावना के साथ कि जीवन सार्थक है।

हाल में हुए एक अध्ययन में सामने आया कि 2020 में कोविड-19 लॉकडाउन के जितने दुष्प्रभाव हुए हैं, उतने ही सकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं।

कुछ रणनीति हैं जिनका इस्तेमाल हम सुस्ती और उदासीनता को पहचानने लेकिन इसके साथ ही उत्कर्ष की ओर बढ़ने के लिए कर सकते हैं। इनमें से एक है ‘और’ की धारणा जो एक मनोवैज्ञानिक अभ्यास है जिसका उपयोग आमतौर पर कई उपचारों में किया जाता है, जिसमें डायलेक्टिकल बिहेवियर थेरेपी (डीबीटी) शामिल है। डीबीटी में विरोधाभास के बीच संतुलन बनाना होता है।

जब भी हम कठिन परिस्थितियों से गुजरते हैं तो एक आदत की तरह ‘सबकुछ या कुछ भी नहीं’ या ‘श्वेत-श्याम’ की तरह सोचने लगते हैं और इस बीच हम यह भूल जाते हैं कि सफेद और स्याह के बीच ‘ग्रे’ भी आता है। लॉकडाउन और डेल्टा स्वरूप उन चुनौतियों का अच्छा उदाहरण है जहां हमें दोनों चरम स्थितियों के बीच संतुलन को पहचानना कठिन हो जाता है। हम ‘चीजें कभी सामान्य नहीं होंगी’ से ‘सबकुछ ठीक है’ के बीच ही झूलते रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में ‘और’ का इस्तेमाल करने से यह समझना आसान हो जाएगा कि सामान्य जीवन अभी गड़बड़ है ‘और’ इसे सुधारने के तरीके भी हमारे पास हैं। इस तरह हमारे लिए परेशानी और कृतज्ञता, क्रोध और शांति तथा डर के साथ ही सतर्कतापूर्वक सकारात्मक बने रहना आसान हो जाएगा।

अध्ययन बताता है कि परिस्थितियों का सामना करने से निराशा कम होती है। लेकिन यह समझना जरूरी है कि परिस्थितियों को स्वीकार करने का मतलब उनसे हार मान लेना नहीं होता है बल्कि स्वयं को यह याद दिलाना होता है ‘फिलहाल हालात ऐसे हैं’। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक यह सोच मददगार होती है।

इसके मुताबिक लोगों के संपर्क में रहना उत्कर्ष का अवसर देता है। किसी के साथ जुड़ने से अच्छी भावनाएं उत्पन्न होती हैं जो निराशा और अवसाद के खिलाफ काम करती हैं।

संतुलन बनाना, स्वीकार करना और संपर्क में रहना तीन रणनीति हैं जो निराशा से उत्कर्ष की ओर ले जाती हैं और महामारी के इस दौरे में मनोवैज्ञानिक औषधि का काम करती हैं।

(द कन्वरसेशन) मानसी शाहिद

शाहिद

 

(इस खबर को IBC24 टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)