कोलंबो, आठ अक्टूबर (भाषा) संयुक्त राष्ट्र के एक पैनल ने जबरन गायब किए गए लोगों के मामलों से निपटने में श्रीलंका की प्रगति की कमी पर गंभीर चिंता व्यक्त की है।
समिति ने विशेष रूप से ‘ऑफिस ऑन मिसिंग पर्सन्स’ (ओएमपी) के कामकाज पर सवाल उठाए हैं, जिसे अब तक प्राप्त लगभग 17,000 मामलों में से केवल कुछ ही मामलों में सुराग मिला है।
मंगलवार को जारी एक रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र ज़बरन गुमशुदगी समिति (यूएनसीईडी) ने कहा कि “कथित ज़बरन गुमशुदगियों की जांच और अभियोजन में प्रगति की कमी उच्च स्तर की छूट को दर्शाती है।”
यह रिपोर्ट ऐसे समय में आई है जब संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचसीआर) ने सोमवार को श्रीलंका पर मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय (ओएचसीएचआर) के कार्यकाल को दो वर्षों के लिए और बढ़ाने का प्रस्ताव पारित किया।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ओएमपी को प्राप्त कुल 16,966 मामलों में से केवल 23 मामलों का ही अब तक पता चल पाया है, जिससे संस्था की प्रभावशीलता पर सवाल खड़े होते हैं। यह संस्था उन परिवारों की वर्षों पुरानी मांगों को पूरा करने के लिए स्थापित की गई थी जो अपने लापता प्रियजनों के बारे में सच जानने और न्याय की मांग कर रहे हैं।
समिति ने ओएमपी से आग्रह किया कि वह सभी गुमशुदगी मामलों का समेकित और अद्यतन रजिस्टर तैयार करे, लापता व्यक्तियों की सक्रिय रूप से तलाश करे और दोषियों की जांच व अभियोजन सुनिश्चित करे।
रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि देशभर में अब तक कम से कम 17 सामूहिक कब्रों की आकस्मिक खोज हो चुकी है, जो चिंता का विषय है।
समिति ने श्रीलंकाई अधिकारियों की सीमित फोरेंसिक क्षमताओं और केन्द्रीयकृत एंटी-मॉर्टेम व पोस्ट-मॉर्टेम डेटा बेस, साथ ही एक राष्ट्रीय जेनेटिक डाटा बेस की अनुपस्थिति पर भी चिंता जताई।
समिति ने श्रीलंकाई सरकार से आग्रह किया कि वह संबंधित राष्ट्रीय संस्थानों की क्षमताएं बढ़ाए ताकि वे सामूहिक कब्रों की पहचान, खुदाई और जांच कर सकें, और इस संबंध में एक समग्र रणनीति तैयार करें।
श्रीलंका में करीब तीन दशक तक चले गृहयुद्ध के दौरान और उसके बाद हज़ारों लोग, विशेष रूप से तमिल समुदाय के लोग, लापता हो गए थे।
विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों और पीड़ित परिवारों ने लगातार यह मांग की है कि सरकार सच्चाई, न्याय और मुआवजे की दिशा में ठोस कदम उठाए। ओएमपी की स्थापना 2017 में इन्हीं मांगों के संदर्भ में की गई थी, लेकिन मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि संस्था को पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति और संसाधन नहीं मिले, जिससे इसके कार्यों में देरी और ठोस परिणामों की कमी रही।
भाषा मनीषा वैभव
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