केजरीवाल के घाघपन की जीत

केजरीवाल के घाघपन की जीत

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  • Publish Date - February 12, 2020 / 06:24 AM IST,
    Updated On - November 29, 2022 / 02:29 AM IST

तड़का स्वाद बढ़ाने के लिए लगाया जाता है, लेकिन जरूरत से ज्यादा लग जाए तो जायका बिगाड़ देता है। ठीक ऐसा ही दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ हुआ है। हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के तड़के से चुनावी जीत का स्वाद चखने की लालसा रखने वाली भाजपा जायका बिगाड़ बैठी। ध्रुवीकरण की दाल तो गली नहीं, छौंक भी बेकार गया।

तो क्या ये शाहीन बाग के आगे राष्ट्रवाद की हार है? क्या ये फोकटत्व के सामने हिंदुत्व की मात है? शायद नहीं। क्योंकि ऐसा होता तो भाजपा का वोटबैंक 32.07 फीसदी से बढ़कर करीब 39 फीसदी नहीं हो पाता। यानी राष्ट्रवाद और हिंदुत्व तो चला लेकिन ये ध्रुवीकरण की उस अवस्था तक नहीं पहुंच सका, जिसके आगे वो सीटों में कन्वर्ट हो पाता।

दरअसल ध्रुवीकरण का सारा दरोमदार क्रिया की प्रतिक्रिया पर टिका होता है। क्रिया की जितनी ज्यादा प्रतिक्रिया, उतना ज्यादा ध्रुवीकरण। जितना ज्यादा ध्रुवीकरण, उतना ज्यादा वोटों का एकत्रीकरण। तारीफ करनी होगी अरविंद केजरीवाल के घाघपन की, उन्होंने क्रिया की कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। ये कोई ‘संयोग’ नहीं बल्कि केजरीवाल की चतुराई थी कि उन्होंने भाजपा के ‘प्रयोग ‘ को नाकाम कर दिया। भाजपाइयों ने अपने बयानों से ‘करंट’ लगाने के काफी जतन किए लेकिन केजरीवाल न्युट्रल बने रहे। गद्दारों को गोली मार देने के लिए भी उकसाया गया लेकिन केजरीवाल प्रतिक्रियाविहीन रहे। भाजपा ने आतंकी बताया तो खुद को बुजुर्गों को तीर्थयात्रा कराने वाला बेटा बता दिया। मुस्लिमपरस्ती के संकट से बचने के लिए हनुमानभक्त बनकर हनुमान चालीसा का पाठ करने लगे। शाहीन बाग को पाकिस्तान बताया गया तो केजरीवाल ने उस तरफ ना झांकने में ही भलाई समझी। मनीष सिसोदिया जरूर थोड़ा बहके और उन्होंने शाहीन बाग के साथ खड़े होने की हिमाकत दिखाई। अंजाम ये हुआ कि जिस सिसोदिया के काम का ढिंढोरा पीटकर आप ने पूरा अभियान चलाया खुद उन्हें ही जीत के लाले पड़ गए। सिसोदिया 10 राउंड तक पिछड़ते रहने के बाद आखिर में कहीं जाकर अपनी इज्जत बचा पाए।

भाजपा पूरे प्रचार अभियान में केजरीवाल की बस एक गलती का मौका तलाशती रही लेकिन केजरीवाल ने क्रिया पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देकर भाजपा के पिच पर खेलने से खुद को बचाए रखा। वरना केजरीवाल के एक बार ध्रुवीकरण के पाले में जाने की देरी थी, आप को वोट देने वाले जिन मतदाताओं को मुफ्तखोर बताकर कोसा जा रहा है, वही आप की उम्मीदों पर झाड़ू फेरते देर नहीं लगाते। केजरीवाल के संयम के इसी कमाल ने कमल को खिलने का मौका नहीं दिया। कीचड़ तो खूब मचा, लेकिन कमल नहीं खिल सका।

भाजपा की ओर से की गई ध्रुवीकरण की तमाम कोशिश के परवान नहीं चढ़ने की दूसरी बड़ी वजह वोटों के विभाजन के लिए किसी तीसरे पक्ष का नदारद रहना भी रहा। ध्रुवीकरण के कारगर होने की एक शर्त ये भी थी कि कांग्रेस भी अपने वोटबैंक को बढ़ाती। अब इसे कांग्रेस का आत्मघाती कूटनीतिक बलिदान माने या भाजपा का दुर्भाग्य कि वो अपना बचा खुचा वोट बैंक भी संभालने में नाकाम रही। कांग्रेस तो इतनी कंगाल निकली कि वो दिल्ली में वोटकटवा पार्टी तक की हैसियत खो बैठी।

तो क्या दिल्ली चुनाव के नतीजे भाजपा को अब ध्रुवीकरण की सियासत से तौबा कर लेने का आगाह कर रहे हैं। सैद्धांतिक रूप से ये निष्कर्ष भले उचित जान पड़े लेकिन व्यवहारिक रूप से ऐसा मानना थोड़ा जल्दबाजी होगी। क्योंकि ना हर राज्य दिल्ली जैसा तीसरा पक्ष विहीन होता है और ना ही हर विरोधी केजरीवाल जैसा संयमी।

दिल्ली के नतीजों में भाजपा के ध्रुवीकरण की हार से ज्यादा केजरीवाल के अप्रतिक्रियावाद की जीत छिपी है।

 

सौरभ तिवारी

डिप्टी एडिटर, IBC24