सीएए-एनपीआर-एनआरसी : देश को दास युग में धकेलने की साजिश | CAA NRC NRC is a law to push India backwards in medieval age : Sanjay Parate

सीएए-एनपीआर-एनआरसी : देश को दास युग में धकेलने की साजिश

सीएए-एनपीआर-एनआरसी : देश को दास युग में धकेलने की साजिश

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 02:38 PM IST, Published Date : January 23, 2020/12:11 pm IST

◆ पहले सीबीए आएगा। सभी शरणार्थियों को नागरिकता मिल जाएगी। उसके बाद एनआरसी आएगी। इसलिए शरणार्थियों को चिंता करने की जरूरत नहीं है, पर घुसपैठियों को जरूर डरना चाहिए। इनके क्रम को जरूर समझ लीजिए — सीबीए पहले आएगा, तब एनआरसी आएगी। एनआरसी सिर्फ बंगाल के लिए नहीं है, यह पूरे देश के लिए है। (भाजपा की आधिकारिक वेबसाइट पर अप्रैल 2019 को दिया गया अमित शाह का भाषण).

◆ सरकार ने अब तय किया है कि एनपीआर योजना के अंतर्गत तय की गई जानकारियों के आधार पर देश के सभी व्यक्तियों के नागरिकता के दर्जे के सत्यापन के जरिए, भारतीय नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर बनाया जाएगा। (23 जुलाई 2014 को गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू का संसद में वक्तव्य).

◆ “हम देश भर में एनआरसी लाएंगे। एक भी घुसपैठिए को छोड़ा नहीं जाएगा।” (संसद ने 9 दिसंबर 2019 को अमित शाह का वक्तव्य)

◆ इन तीनों वक्तव्यों से स्पष्ट है कि नागरिकता कानून, जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) का आपस में अविच्छिन्न संबंध है। लेकिन अब इसमें समस्या क्या है? समस्या है, शरणार्थियों और घुसपैठियों को चिन्हित करने की प्रक्रिया पर।

◆ पहले नागरिकता कानून से ही शुरुआत करें। 1955 के मूल नागरिकता कानून में यह प्रावधान था कि भारत भूमि में जन्मा हर बच्चा भारतीय नागरिक है। इसमें अटल राज में वर्ष 2003 में संशोधन कर दिया गया है। अब भारत में जन्म लेने वाला वही बच्चा भारतीय नागरिक है, जिसके माता या पिता में से कोई एक भारतीय नागरिक हो और दूसरा अवैध आप्रवासी नहीं हो। अब वर्तमान में जीवित किसी भी व्यक्ति के लिए यह सिद्ध करना जरूरी है कि यह “दूसरा” अवैध अप्रवासी नहीं था, अन्यथा उसे भारतीय नागरिक नहीं माना जाएगा। संघ-संचालित मोदी सरकार ने अब इसमें धर्म को भी जोड़ दिया है। अब अफगानिस्तान बांग्लादेश व पाकिस्तान से आए गैर-मुस्लिम अवैध प्रवासियों को तो शरणार्थी माना जाएगा और मुस्लिम प्रवासियों को स्पष्ट रूप से अवैध आप्रवासी और घुसपैठिया! और इस प्रकार स्पष्ट रूप से चिन्हित घुसपैठियों को चुन-चुन कर बाहर निकाला जाएगा। संसद में 20 जून 2019 को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति ने कहा था — “अवैध घुसपैठिए हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा है। इससे सामाजिक असंतुलन पैदा हो रहा है और आजीविका के सीमित संसाधनों पर भारी दबाव पड़ रहा है। मेरी सरकार ने तय किया है कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की प्रक्रिया को लागू किया जाए। सरकार घुसपैठियों की पहचान करने करने के लिए काम कर रही है।”

◆ इस प्रकार देश में पहली बार नागरिकता की शर्त को धर्म के साथ जोड़ दिया गया है और मुस्लिम समुदाय को घुसपैठियों के रूप में चिन्हित किया जा रहा है। वास्तव में पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश होगा, जहां नागरिकता देने की शर्त को धर्म के साथ जोड़ा गया हो, जैसा कि भाजपा सरकार ने इस कानून के जरिए किया है। भारतीय संविधान को हम भारत के लोगों ने बनाया है और धर्मनिरपेक्षता इसकी आत्मा है। संसद में बहुमत के बल पर कोई भी ऐसा कानून नहीं बनाया जा सकता, जो संविधान में निहित बुनियादी मूल्यों के खिलाफ हो। यदि पाश्विक बहुमत के आधार पर ऐसा कानून बनाया भी जाता है, तो इसे मानने के लिए देश की जनता बाध्य नहीं है; क्योंकि संविधान सर्वोपरि है, कानून नहीं।

◆ अमित शाह के वक्तव्य को ध्यान में रखें। यह धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर तीन देशों से आने वाले लोगों को शरणार्थी मानकर नागरिकता दे देता है और हम भारत के 130 करोड़ लोगों की नागरिकता को संदिग्ध व घुसपैठियों की सूची में डाल कर उनसे अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए कहता है। यदि इस देश को चलाने वाली सरकार को चुनने वाले नागरिक अवैध, संदिग्ध या घुसपैठिये हैं, तो हम भारत के लोगों की नजरों में यह सरकार भी पूरी तरह से अवैध है और सत्ता में बने रहने का उसका कोई हक नहीं है।

◆ आप्रवासियों की समस्या दुनिया में नई नहीं है और प्रायः सभी देश इस समस्या से जूझ रहे हैं। अधिकांश आप्रवासी गरीब लोग होते हैं, जो अपने मूल देश में किसी न किसी वजह से उत्पीड़ित होते हैं और अपने जीवन की सुरक्षा के लिए, और केवल अपने जिंदा रहने के लिए ही, उन्हें पड़ोसी देशों की सीमाओं में घुसना पड़ता है। यह उत्पीड़न धार्मिक, भाषाई, नस्ली, राजनैतिक किसी भी श्रेणी के हो सकते हैं। लेकिन यह नागरिकता कानून उत्पीड़न के केवल धार्मिक स्वरूप की ही पहचान करता है और श्रीलंका में बौद्धों के द्वारा तमिलों के उत्पीड़न को, म्यांमार में रोहिंग्या समुदाय और पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय के उत्पीड़न को नजरअंदाज करता है। उत्पीड़ितों को धार्मिक आधार पर देखने की दृष्टि अमानवीय ही हो सकती है, जिसके लिए हमारा संविधान इजाजत नहीं देता। अतीत में हमारे देश में लाखों ऐसे लोगों को नागरिकता दी गई है, लेकिन इसके लिए उनके धर्म को कभी देखा नहीं गया है। हमने शुद्ध मानवीय दृष्टिकोण अपनाया है, जो हमारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा है और जिसे विवेकानंद ने भी रेखांकित किया था — “मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने सभी धर्मों के और दुनिया के सभी देशों के पीड़ितों को और शरणार्थियों को अपने यहां शरण दी।” दिन-रात विवेकानंद का जाप करने वाला संघी गिरोह आज विवेकानंद के गर्वोन्मत्त माथे को ही कुचल रहा है।

◆ अब आइए घुसपैठियों की पहचान की प्रक्रिया पर। जनगणना और एनपीआर अलग-अलग चीजें हैं। देश में जनगणना हो, इससे किसी का विरोध नहीं है, क्योंकि जनगणना के आंकड़े हमारी विकास योजनाओं के स्वरूप को निर्धारित करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा करते हैं। लेकिन पहली बार जनगणना के काम को एनपीआर से जोड़ दिया गया है और जनसंख्या रजिस्टर बनाने का जिम्मा जनगणना अधिकारियों को ही सौंप दिया गया है, जिससे ऐसा लगे कि दोनों में कोई अंतर नहीं है। वास्तव में जनगणना के काम में प्रत्येक व्यक्ति से केवल 15 सवाल पूछे जाते हैं, जिनका संबंध जनसांख्यिकीय जानकारियों के लिए होता है। अब एनपीआर के लिए इसके साथ ही 6 नए सवाल और पूछे जाएंगे — इसमें माता पिता का नाम, उनका जन्म स्थान व जन्म तिथियां तथा उनके आधारों के विवरण शामिल हैं। यह जानकारियां एनआरसी के लिए आधार का काम करेगी और एनआरसी की प्रक्रिया शुरू होने पर प्रत्येक नागरिक को इसका सत्यापन करने को कहा जाएगा, क्योंकि नागरिकता सिद्ध करने के लिए परिवार ईकाई नहीं है।

◆ देश के 30 करोड़ लोगों के पास केवाईसी नहीं है, जिनके जनधन खाते खोले गए हैं। करोड़ों लोगों के पास अपनी जन्मतिथि व जन्म स्थान साबित करने के लिए खुद के प्रमाण पत्र नहीं है, तो माता-पिता का प्रमाणपत्र होना तो दूर की बात है। करोड़ों लोगों के पास रहने का ठिकाना नहीं है, वे भूमिहीन और आवासहीन हैं, लैंड रिकार्ड की बात तो दूर की है।नागरिकता साबित करने के लिए आधार, वोटर कार्ड, बैंक पासबुक, राशन कार्ड कुछ भी काम नहीं आने वाला है। इसके लिए एकमात्र दस्तावेज, जो होना चाहिए, वह है — जन्म प्रमाण पत्र और माता-पिता की नागरिकता का सबूत। देश में 80 करोड़ जनता के पास यह दस्तावेज नहीं है। यही डरने-डराने के लिए काफी है कि इसके अभाव में इस देश का नागरिक होते हुए भी यदि मैं हिंदू और गैर मुस्लिम हूं, तो शरणार्थी मान लिया जाऊंगा और यदि मुस्लिम हूं, तो घुसपैठिया। यह स्थिति किसी को मंजूर नहीं हो सकती। इसलिए संघी गिरोह का यह कहना बेतुका है कि एनआरसी से देश के नागरिकों को डरने की जरूरत नहीं है।

◆ किसी भी व्यक्ति के अपनी नागरिकता के खोने के स्पष्ट निहितार्थ हैं। उसे इस देश के संसाधनों पर अपने अधिकार से वंचित होना पड़ेगा। उन सब बुनियादी मानवीय अधिकारों — रोजगार, आवास, भूमि, संपत्ति से वंचित होना पड़ेगा, जो संविधान इस देश के नागरिक को देता है। तब घुसपैठियों के रूप में चिन्हित लोगों के लिए एक ही जगह होगी — डिटेंशन कैंप। पीढ़ी-दर-पीढ़ी जेलों से बदतर कैंपों में रहो और गुलाम मजदूर बनकर कारपोरेट पूंजी की सेवा में लगे रहो। इसलिए यह नागरिकता कानून, नहीं दास प्रथा युग की वापसी की साजिश है, जब इंसान बाजारों में खरीदे-बेचे जाते थे।

◆ अब असम के अनुभव पर गौर करें, जहां एनआरसी की जटिल प्रक्रिया लगभग 11 सालों तक सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में चली है। यहां करोड़ों बंगलादेशी मुस्लिम घुसपैठियों के होने का दुष्प्रचार किया जाता रहा है, लेकिन खोदा पहाड़, निकली चुहिया। 19 लाख लोग, जो एनआरसी से बाहर हुए हैं, उनमें 13 लाख हिन्दू हैं। आज हम जानते हैं कि इनमें लाखों ऐसे लोग हैं, जो वास्तव में भारतीय नागरिक हैं, लेकिन जिनके पास अपनी नागरिकता सिद्ध करने का कोई प्रमाण नहीं है और इन लोगों की दर्दनाक कहानियां हमारे सामने आ चुकी है। यह स्थिति तब है, जब सरकार ने 1600 करोड़ रुपये और असमी नागरिकों ने अपनी नागरिकता के कागजात जुटाने के लिए 8000 करोड़ रुपये खर्च किये हैं। नागरिकताविहीन ऐसे लोगों को डिटेंशन कैम्पों में भेजने की प्रक्रिया जारी है, क्योंकि भारत सरकार यह सिद्ध करने में असमर्थ है कि ये वास्तव में बंगलादेशी या पाकिस्तानी घुसपैठिये है! 3000 लोगों को रखने के लिए जेल से बदतर एक डिटेंशन कैम्प को बनाने की लागत 50 करोड़ रुपये आ रही है।

◆ असम को ही आधार बनाएं, तो पूरे देश में एनआरसी की सूची से लगभग नौ करोड़ लोग बाहर हो जाएंगे, जिनमें 6 करोड़ तो हिन्दू ही होंगे। इनके लिए आश्वासन सिर्फ यह है कि धर्म के आधार पर इन्हें शरणार्थी मानकर इन्हें दोयम दर्जे की नागरिकता दे दी जाएगी, लेकिन मुस्लिम समुदाय से संबंध रखने वाले लगभग तीन करोड़ लोगों को संघ-नियंत्रित मोदी सरकार से मानवीय सहृदयता की भी कोई आशा नहीं रखनी चाहिए और उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी डिटेंशन कैम्पों में सड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। एनआरसी की इस पूरी प्रक्रिया में भारत सरकार के 70000 करोड़, तो भारतीय नागरिकों के 3.5 लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे। इन चिन्हित विदेशी घुसपैठियों के लिए 10000 डिटेंशन कैम्प बनाने होंगे और इसके लिए 5 लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे। भारत सरकार के कुल वार्षिक बजट का आधा आने वाले दिनों में अपने ही नागरिकों को पहचानने और उन्हें डिटेंशन कैम्पों में भेजने में स्वाहा होने वाला है। और यह केवल एक उदार अनुमान है।

◆ लेकिन जो सरकार यह प्रचारित कर रही है कि ये घुसपैठिये हमारे सीमित आजीविका के संसाधनों पर भारी दबाव बना रहे हैं, उन्हें डिटेंशन कैम्पों में बैठाकर खिलाने के लिए तैयार होगी? इस सरकार का अगला तर्क यही होगा कि इन्हें जिंदा रखने के लिए आम जनता के टैक्स को बर्बाद नहीं करना चाहिए। फिर क्या इन लोगों को अरब सागर में फेंक दिया जाएगा? जी नहीं, कॉर्पोरेट पूंजीवाद इसकी इजाजत नहीं देता। वह अमेरिका-जैसे जेलों का निजीकरण करेगा और इन जेलों को अडानी-अंबानी जैसे कॉर्पोरेट पूंजीपति संचालित करेंगे, जो इन डिटेंशन कैम्पों के बंदियों से खाना खिलाने के एवज में अपने उद्योगों में मुफ्त में काम कराएंगे। लेकिन यह प्रक्रिया उसी समय तीन करोड़ भारतीयों से रोजगार छीनने का भी काम करेगी। परजीवी पूंजीवाद आम जनता के ऐसे ही निर्मम शोषण पर पलता है। नागरिकता कानून और इससे जुड़ी एनपीआर-एनआरसी की प्रक्रिया इस शोषण को तेज करने के लिए समूची मानवीय सभ्यता को दासता के युग मे धकेलने का ताना-बाना तैयार करती है।

◆ लेकिन हजारों साल पहले की दासता और गुलामी की जंजीरों को तोड़ कर मानव सभ्यता बहुत आगे बढ़ चुकी है। अब उसी सभ्यता में धकेले जाने के लिए भारतीय नागरिक तैयार नहीं है। वह लड़ेंगे अपनी आजादी को बचाने के लिए, संघी गिरोह की साजिशों को मात देने के लिए! वह लड़ेंगे हर नागरिक को मानवीय गरिमा देने वाले अंबेडकर के संविधान को बचाने के लिए!! हम सब लड़ेंगे और जीतेंगे — अपनी मानवीय प्रगति को बचाने के लिए!!! 23-30 जनवरी तक वाम पार्टियों और उनके जनसंगठनों के संयुक्त अभियान की यही प्रतिज्ञा है, जिसका नारा है : जनगणना — हां,
राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर — नहीं, हम जवाब नहीं देंगे।
आगामी तीन महीनों तक इसी मुद्दे पर अभियान चलाया जाएगा। यह अभियान हमारी नागरिक आज़ादी पर हो रहे हमलों से रक्षा का अभियान होगा, जिससे देश की कौमी एकता और धर्मनिरपेक्षता की भावना और मजबूत ही होगी।

 

बता दें कि यह पोस्ट संजय पराते द्वारा लिखा गया है। इस पोस्ट में लिखी गई सभी बातें उनके निजी विचार हैं। इस पोस्ट से ibc24.in का कोई भी लेना देना नहीं है।