Paramhans Shriram Babajee Spiritual Talk_ मैं, मेरा, मैं ही अहंकार है फिर यह भक्ति का हो या वस्तु का फर्क नहीं पड़ता

Paramhans Shriram Babajee Spiritual Talk_ मैं, मेरा, मैं ही अहंकार है फिर यह भक्ति का हो या वस्तु का फर्क नहीं पड़ता
Modified Date: October 18, 2025 / 08:27 pm IST
Published Date: October 18, 2025 8:27 pm IST

विवेचना- बरुण सखाजी श्रीवास्तव

बहुत ध्यान से देखिए। यह तस्वीर सैकड़ों वर्ष पुरानी बाबा जगन्नाथ की है। मुद्रा, भाव, भंगिमा, तौर, तरीका जो कुछ भी इस तस्वीर में ध्यानपूर्वक समझा, देखा, जाना जा सकता है, वह सब परमहंस गुरुवर हनुमानजी श्रीराम बाबाजी से मिलता-जुलता है। हम संसारी नहीं समझ पा रहे, न समझने का सामर्थ्य है। परमतत्व विद्यमान है। परमात्मा निर्विकार है। दिव्यतत्व अनुभूतियों में है। निरंतर निश्छल करुणभाव में विराजमान तत्व है। वे आदि हैं, मध्य हैं, अंत हैं, सर्व हैं। न शेष हैं न अवशेष हैं। वे चैतन्य हैं। चेतना हैं। विमर्श हैं। विहंगम हैं।

हमे लगता है हम ही बड़े भगत हैं, लेकिन उनके हमसे बड़े और बड़े से बड़े भगत हैं। संसार में हैं। हम जो हैं वह कुछ भी नहीं। हमे लगता है हम ही कर रहे हैं बाकी कोई नहीं। लेकिन सच ये है कि हम से बड़े भी कर रहे हैं और बड़ा भी कर रहे हैं और हजारों वर्षों से करते आए हैं और लाखों वर्षों तक करते रहेंगे और अब भी कर रहे हैं।

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हम तुच्छ, निम्न, निमेष बराबर भी नहीं कर रहे। हमे लगता है ही यह हमारा अहंकार है। हमे नहीं लगता यह भी अहंकार है। फिर ऐसा क्या है जो अहंकार न हो। ऐसा सिर्फ वही है जो अब भौतिक रूप में नहीं है। इसके अलावा शेष सब अहंकार के पुतले हैं। मैं, आप, हम सब। हम जिसे पूजते हैं, वह पूजनीय होता है, जिसे हम मानते हैं वह माना हुआ होता है, लेकिन जिसकी हम मानते हैं असल में वही विधाता है। हम सब गुरु भाई पूरी तत्परता से परमहंस हनुमानजी श्रीराम बाबाजी की मानते थे, ऐसा हमारा अंहकार कहता है। सब गुरु भक्त अर्थात सब। कोई एक नहीं। कोई संख्या नहीं। कोई सीमा नहीं। जिसकी जितनी समझ वह उतना समझ पाया, जो नहीं समझ पाया उसने ज्यादा समर्पण दिया। जो समझने का क्रम और दावा करता रहा उसने अंहकार को जन्म दिया, इसे पाला-पोसा। जैसे कि मैं स्वयं हूं। लिखने का अहंकार। अभिव्यक्ति का अहंकार। बोलने का अहंकार। मानने का अहंकार। समझने का अहंकार। गुरुभक्ति का अहंकार। मेरा है, मैंने किया है, मैं ही कर रहा हूं, मैं ही कर सकता हूं, मैं व्यवस्था हूं, मैं ही व्यवस्थित हूं, मैं ही उदार हूं, मैं ही हूं सिर्फ मैं। शेष नहीं हैं, शेष का कोई योगदान नहीं है। सब बिगाड़ रहे हैं मैं ही बना रहा हूं। मैं विधाता बन रहा हूं। मैं विधान बन रहा हूं। मैं हूं, क्योंकि मुझे समेत स्थान परमात्मा ने चुना है। किसी अन्य को नहीं, इसका अर्थ है अन्य का समर्पण मुझ से कमतर है। उपेक्षा योग्य है। भ्रामक है। भ्रम है। असल में यही भ्रम है। मैं का। मेरे का। मैं ही का। मैं हूं का।

महाराजजी अक्सर कहा करते थे, “हवा है जा निकल गई तो का बचो, तुम पूज हो जा हे, अरे जा सरीर हे जले हो कै फिर समाधि बने हो और का कर हो। बा हे पैचानो जो जा के भीतरे है। जा में बैठो है। बोई तो बोल रौ, का श्रीराम बाबा बोल रौ। बोल ले है श्रीराम बाबा। मनो बोई तो श्रीराम बाबा है। समंजबे की है बा तो। हां तो भाई क्या हो रहा है अब। (आंखें बंद) हां तो चलो अब देखो किते जात हैं। धरो सामान धरो। चलो तो फिर का कर रै, करो जल्दी।”

हवा कहकर गए हैं, मतलब साफ है हवा अर्थ वह कहीं नहीं जाएगी। एक शरीर से निकलेगी दूसरे शरीर में समा जाएगी। भौतिक संसार में हम शरीरों को पूजते हैं। शरीर से हमारा मोह प्रमाणिक है। क्योंकि हम अपने शरीर को भी पूजते, पोसते हैं। यही मोह हमे ऐसी भक्ति की ओर लेकर चला जाता है, जो हमे लगती है हम ही सब कुछ हैं। हम ही श्रेष्ठ हैं। हम ही अनुशासित हैं। शेष लोग इसमें बाधा हैं। यह श्रेष्ठता और समझ का भाव ही अहं की पराकाष्ठा है। स्वमेव भाव की पुष्टि है। ईश्वरत्व की अनुभूति की कोहरेभरी चादर है, जिसके बाहर ब्रम्हांड के अपार वलय नहीं दिखाई देते। भौतिक वस्तुओं को पूजने, मानने का भाव हमे हमारे अंहकार को प्रबल करने में मदद करता है। मेरा मंदिर, मेरी अगरबत्ती, मेरी साधना, मेरी मूर्ति, मेरा श्रंगार सामान, मेरा हवन, मेरा तप, मेरी गुरु भक्ति, मेरा योगदान, मेरा स्थान, मेरा सब। मैं ही सब तक ले जाता है। जब मैं ही सब तक पहुंच जाते हैं तो हम खत्म हो जाते हैं। हम टूट जाते हैं। हम उस तत्व से चटक जाते हैं।

शरीर की स्मृतियां शरीर तक रहेंगी। विहंगम आध्यात्मिक दर्शन तक नहीं जा पाएंगी। विधियां, संविधियां हमे मूलभूत अच्छा इंसान बना सकती हैं, किंतु इंसानी जामे से बाहर नहीं निकाल पाएंगी। अच्छा आदमी फिर-फिर जन्म लेता है, मुक्ति नहीं पाता। गुरु का अर्थ है मुक्ति का महामार्ग। परमात्मा में विलीन हो जाने का राजमार्ग। प्रशस्त रास्ता। उज्जवल मार्ग। किंतु हमारा मैं इस रास्ते में ऐसा अंधियारा देखता है कि चलने से पूर्व ही भक्ति का महादर्प दे देता है।

आज फेसबुक से गुजरते हुए यह चित्र दिखाई दिया। यूं लगा जैसे साक्षात हनुमानजी श्रीराम बाबाजी विराजमान हैं। उनकी ही मुद्रा, उनका स्वरूप, उनकी तरह ही सब कुछ नजर आने लगा। मैं नहीं जानता बाबा जगन्नाथ कौन थे, कहां थे, कैसे थे, क्या महिमा है। किंतु चित्र बता रहा है परमतत्व हनुमानजी श्रीराम बाबाजी नित-नूतन रूप, स्वरूप, भाव, भंगिमा में आ रहे हैं। सर्वत्र हैं। बस अंहकार का पर्दा हटाना होगा, मेरे, मेरा, मैं ही को नष्ट करना होगा।

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Associate Executive Editor, IBC24 Digital