Paramhans_Shrirambabajee: भयकंपित भक्ति पंथ बनाए, निर्मल भक्ति हनुमंत बनाए

Paramhans_Shrirambabajee: भयकंपित भक्ति पंथ बनाए, निर्मल भक्ति हनुमंत बनाए
Modified Date: November 6, 2025 / 11:03 pm IST
Published Date: November 6, 2025 11:03 pm IST

व्याख्या- बरुण सखाजी श्रीवास्तव
हम जितना समझ पाते हैं हमे लगता है सत्य उतना ही है, लेकिन सत्य इसके बाद आरंभ होता है। परमात्म तत्व तक पहुंचने के अनेक मार्ग हैं, किंतु हमे जो पता होता है हम उसे ही इकलौता मान बैठते हैं। हम उसमें इतने कट्टर होते जाते हैं कि दूसरे मार्ग ईश्वरीय स्वरूप की ओर जाते हुए दिखते ही नहीं। यह कट्टरता हमे अपनी मान्यताओं से जोड़कर भले न रख पाए लेकिन दूसरों की मान्यताओं को खारिज करने में पूरी शक्ति लगाकर रखती है। इससे हमारा अंतस ईश्वरीय तत्व से विमुख होता जाता है।
परमहंस चैतन्य हनुमानजी श्रीराम बाबाजी हर विचार को मान्यता देते थे, क्योंकि वे इसके मूल तत्व को मानते थे। अनेक बार ऐसे प्रसंग हुए जिसमें सहमति-असहमति की गुंजाइश रही, किंतु गुरुवर हनुमानजी श्रीराम बाबाजी ने इस पर अनाभिव्यक्त रहते हुए अपने कार्य और क्रिया से प्रतिउत्तर दिया। एक साधु बड़ा भंडारा करवाते, आहुतियां दिलवाते, बड़े हवन करवाते। किंतु हमारी दोषयुक्त संसारी आंखें इसमें प्रदर्शन, ऐश्वर्य का डिस्प्ले, करने का अहंकार देखती, लेकिन चैतन्य हनुमानजी श्रीराम बाबाजी इसमें कुछ होने का भाव देखते। किसी एक ही परमात्म मार्ग को पकड़ना अच्छा है, लेकिन कट्टर भाव से नहीं। कट्टरता हमे अंधा बना देती है। भक्ति की ओर बढ़ रहे मनुष्य में कट्टरता घुन की तरह काम करती है। अपने इष्ट पर अडिग, अटल, अविचल रहना अलग बात है अपने के अलावा किसी और के भाव, स्वभाव, समर्पण को न देख पाना अलग बात। कट्टरता और अडिगता दोनों के बीच जमीन-आसमान का फर्क होता है। अडिगता आपको भीतर की ओर लेकर जाती है कट्टरता बाहर की ओर खींचती है।
परमहंस श्रीराम बाबाजी हनुमानजी कहते थे बाहर की बंद करो भीतर की खोलो। यह इसी अर्थ में देखा जाना चाहिए। बाहर की बंद करो कहने का अर्थ यूं ही बाहरी मान्यताओं के कैटगराजेशन में ऊर्जा को लगाना नहीं है, बल्कि भीतर से अनुभूत करना है, परमतत्व आपके भीतर बैठा है। इसी विचारक्रम में परमहंस हनुमानजी श्रीराम बाबाजी कोई सीधे सूत्र नहीं देते थे। न कोई सीधी अभिव्यक्ति। वे अप्रकट को पकड़ते थे, हम प्रकट को देखने, समझने में सारा वक्त लगाते रहे। हमारी कट्टर सोचें एक अच्छे पंथ का निर्माण तो कर सकती हैं, लेकिन परमतत्व तक ले जाने की गारंटी नहीं दे सकती। परमहंस हनुमानजी श्रीराम बाबाजी परमतत्व की गारंटी वाले मार्ग के प्रदर्शक हैं।
ईश्वर की यही सबसे बड़ी पहचान है कि उस अव्यक्त को व्यक्त करने के सबके अपने सैंकड़ों मौलिक तरीके हो सकते हैं। सारे तरीके सही हो सकते हैं। इनमें से एक हमारा तरीका हो सकता है। जो हमारा तरीका हो, वही सही हो ऐसा नहीं है, लेकिन जो अन्य के तरीके हैं वही सही हों हमारा नहीं, ऐसा भी नहीं है। भक्ति में डूबकर मनुष्य इस बारीक से फर्क को समझ सकता है, ज्ञान से तो कतई नहीं। ईश्वर को समझने, जानने, उसकी खोज करने वालों ने तमाम तरीकों से उसे व्यक्त करने का प्रयास किया है। इन्हीं अभिव्यक्तों ने मिलकर अलग-अलग पथों का निर्माण किया है। यही पथ एक समय कट्टरता के शिकार हुए और अंत में वे दूसरे पंथों के सामने लड़ने पर उतारू हो गए। परमहंस श्रीराम बाबाजी हनुमानजी अनाव्यक्त हैं। उनकी कही गई बात, की गई क्रिया, बताए गए रास्ते, सुझाए गए तरीकों में व्याख्या का अंतर हो सकता है। क्योंकि हमारी संसारी बुद्धि, भाव, हृदय भय से कंपित भक्ति की ओर बढ़ाती है, न कि आत्मप्रेरित भक्ति की ओर। भयकंपित भक्ति की ओर बढ़े कदम आवश्यक नहीं उसी मंजिल पर पहुंचें जिस पर निर्मल भक्ति लेकर जाती है। ये उस भयमुक्ति तक भी पहुंचा सकते हैं जिस भय से कंपित होकर ये कदम आगे बढे थे। अर्थ यह हुआ कि आप वहां पहुंच जाएंगे जहां से आपको डर नहीं लगेगा, लेकिन यह निडरता निर्मल भक्ति वाली नहीं होती बल्कि संसारी दुखों का एक सेफ्टीवॉल भर होती है।
भयकंपित भक्ति आडंबर, पाखंड, अपनी सहूलियत की व्याख्याओं की ओर लेकर जाती है। उपेक्षा, अहंकार, मान, प्रदर्शित दान, भोग, भंडार, वैभव, अहम में उलझाती है। जब भक्ति का यही स्वरूप बड़ा होता जाता है तो भक्त निर्मल नहीं रह पाता। निर्मल नहीं रहने पर भक्ति भक्ति न रहकर लक्ष्य साधन बन जाती है। परमहंस श्रीराम बाबाजी कहते भी थे, कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होए, भक्ति करे कोई सूरमा, जात, बरन सब खोय।
भयकंपित भक्तियां पंथों के निर्माण में बड़ी अग्रणी रहती हैं। एक मार्ग, एक रास्ता, एक तरीका, एक तरह की सोच, एक तरह के लोग, अपनी करनी सिर्फ करनी, दूसरों के भाव पर भी शंका, प्रश्न, उपेक्षा, मैं ही मैं, शेष खत्म यह सब अंततः एक सॉफ्ट हार्डकोर समूह की ओर लेकर जाता है। संसार में ऐसे समूहों की कोई कमी नहीं है। कोई किसी पंथ को मानता है कोई किसी ईश को पंथ का प्रदर्शक बनाकर पूजता है कोई कुछ करता है। यहां तक कोई गलत भी नहीं, लेकिन इसके बाद शुरू होता है असली इम्तिहान। यानि दूसरों के पथ, रास्तों, पंथों को कमतर आंकना। उन्हें पीछे समझना और स्वयं के भाव को असली भाव सिद्ध करना ही खामी है।
परमहंस हनुमानजी श्रीराम बाबाजी ने इन्हीं दोषों से मुक्त रहने के लिए निर्मल भक्ति की धारा का प्रवाह किया। न ठांव, न ठिकाना, न ठेकेदार यह उनका मूल तत्व था। ठांव बनाए और ठिकाने लगाए, यानि आश्रमों का निर्माण तो हुआ, वे रहे भी कुछ दिन लेकिन जैसे ही वर्चस्व का विस्तार शुरू हुआ वे वहां से निकल जाते थे। एक बार शुभ-योग से मैं भी उनके साथ मंडला की यात्रा पर था। करीब 50 किलोमीटर तक महाराजजी मौन रहे। राजमार्ग पार करते ही उनका मौन टूटा और बोले, जई से हम जे तारे कुची में नई पड़ें, अब बई चल रई है बारबार मन, रेता पौंची का नई, लोहो आओ का नई, हमने नै कभऊं तारे डारे नै कुची संवारी। मैं इन वाक्यों को समझने का प्रयास करने लगा। तब ख्याल आया, उस समय पंचमुखी हनुमान मंदिर, उदयपुरा में एक कालनेमि भक्त कुछ निर्माण करवा रहा था। सब कुछ यूं जैसे यहां परिक्रमावासी रुकेंगे, भंडारा होगा, गौपालन होगा और महाराजजी विराजेंगे। महाराजजी के मन में क्या चल रहा था मेरे तो पल्ले नहीं पड़ा, लेकिन जब बाद में कालनेमि बनकर भक्ति करने जुटे व्यक्तियों का पर्दाफाश हुआ तो सारी कड़ियों को जोड़कर देखा। जहां, जब भी वर्चस्व भक्ति पर भारी पड़ता है महाराज जी वहां से निकलकर चल देते थे। वे कहते भी थे, साधू, सड़क, सन्यासी को कौन रोक सकता है। सड़क कहीं से भी कहीं तक जा सकती है। साधू अविरल भाव, साधना में तल्लीन यात्रा में रहता ही है, सन्यासी जब सब कुछ से परे हो चुका है तो उसे क्यों कोई परवाह सताएगी। संक्षिप्त में कहिए भयकंपित भक्ति पंथ बनाए और निर्मल भक्ति हनुमंत बनाए है।
परमहंस हनुमानजी श्रीराम बाबाजी का दिव्य, आलौकिक ईश्वरीय दर्शन भौतिकी में नहीं अटकता था। न भौतिकी पर निर्भर रहता था। वे सपंचभूत इस संसार में अपंचभूत बनकर रहे हैं। वे दिव्य नर्मदा के गहरे जल में समाहित होकर अमरकंटक से भरुच तक की पुण्यसलिला में व्याप्त हैं। वे मूर्ति से अमूर्ति तक सिद्ध हैं। वे समग्र नर्मदांचल की दिव्य सुंगध में सुगंधित हैं। वे अनंत ब्रह्मांड में ऊर्जित हैं। वे सब हृदयों में अप्रकट-प्रकट विराजमान हैं। वे वार, दिनांक, तिथियों, तात्पर्यों से परे अखिल ब्रह्मांड के ब्रह्म स्वरूप सर्वोच्च ऊर्जा हैं। नर्मदा की अथाह गहराइयों में समाई उनकी देह, दिव्य भाव को महसूस करना है तो नर्मदा के किसी भी तट पर बैठकर महसूस किया जा सकता है।


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Associate Executive Editor, IBC24 Digital