क्या निर्वाचन आयोग नागरिकता के संबंध में शुरुआती चरण पर फैसला नहीं कर सकता: उच्चतम न्यायालय
क्या निर्वाचन आयोग नागरिकता के संबंध में शुरुआती चरण पर फैसला नहीं कर सकता: उच्चतम न्यायालय
नयी दिल्ली, नौ दिसंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को पूछा कि क्या निर्वाचन आयोग को किसी संदिग्ध नागरिक के मामले में जांच करने से रोका गया है और क्या ये जांच प्रक्रिया उसके संवैधानिक अधिकार से बाहर है।
प्रधान न्यायाधीश सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने बिहार सहित कई राज्यों में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के निर्वाचन आयोग के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अंतिम सुनवाई के दौरान ये टिप्पणियां कीं।
सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति बागची ने संबंधित कानून और इस दलील का संज्ञान लिया कि आयोग नागरिकता के मुद्दे पर निर्णय नहीं ले सकता, क्योंकि उसका काम सिर्फ यह विचार करना होता है कि व्यक्ति भारतीय नागरिक है, उसकी आयु 18 वर्ष या उससे अधिक है तथा वह उसी निर्वाचन क्षेत्र में रहता है।
यह भी दलील दी गई थी कि नागरिकता के मुद्दे पर निर्वाचन आयोग निर्णय नहीं कर सकता, क्योंकि केवल केंद्र सरकार की ओर से गठित विदेशी न्यायाधिकरण ही इस संबंध में फैसला ले सकता है।
न्यायाधीश ने पूछा, ‘‘आप कहते हैं कि निर्वाचन आयोग के पास किसी व्यक्ति को विदेशी या गैर-नागरिक घोषित करने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन, वह मौजूदा दर्जे पर संदेह कर सकता है और मामले को उपयुक्त प्राधिकारियों के पास भेज सकता है। यह तथ्य कि वह (नागरिकता पर) संदेह कर सकता है, एक तरह से यह सुनिश्चित करता है कि उसके पास इस संबंध में निर्णय लेने की शक्ति है… क्या निर्वाचन आयोग नागरिकता के शुरुआती चरण पर निर्णय नहीं ले सकता?’’
याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि एसआईआर प्रक्रिया क्षेत्राधिकार के अतिक्रमण और प्रक्रियागत अनियमितताओं से ग्रसित है तथा इसमें नागरिकता साबित करने का भार असंवैधानिक रूप से आम मतदाताओं पर डाला गया है।
पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता शादान फरासत, पीसी सेन और एसआईआर का विरोध करने वाले कई याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों की विस्तृत दलीलें सुनीं।
फरासत ने मतदाता सूचियों को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक और वैधानिक ढांचे का जिक्र करते हुए कहा कि अनुच्छेद 324 से 329, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के साथ मिलकर एक ‘‘एकल संवैधानिक संहिता’’ बनाते हैं, जिसे अस्थायी संसद के रूप में कार्य करने वाली संविधान सभा की ओर से अधिनियमित किया गया था।
उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 326 के तहत वयस्क मताधिकार के लिए केवल तीन शर्तों की पूर्ति आवश्यक है और वे हैं – भारतीय नागरिकता, 18 वर्ष की आयु तथा विशिष्ट अयोग्यताओं का अभाव।
फरासत ने कहा कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (आरओपीए) इन आधारों को प्रतिबिंबित करता है, लेकिन मतदाता सूची से बाहर करने के लिए नये आधार नहीं दे सकता।
वरिष्ठ वकील ने कहा, ‘‘निर्वाचन आयोग को मुझे मतदाता सूची में शामिल होने से रोकने या सूची से बाहर करने का कोई अधिकार नहीं है। अगर आयोग को मेरी नागरिकता पर संदेह है, तो इसकी जांच केवल जिला मजिस्ट्रेट को भेजी जानी चाहिए। नागरिकता पर निर्णय केवल केंद्र सरकार या विदेशी न्यायाधिकरण ही ले सकता है।’’
उन्होंने कहा कि वैधानिक प्रावधान के तहत, मतदाता सूची में पहली बार शामिल किए जाने के लिए नागरिकता कोई पूर्व शर्त नहीं है, और गैर-नागरिक साबित करने का भार हमेशा राज्य पर होता है।
पीठ ने पूछा, ‘‘निर्धारण और जांच में अंतर है। क्या निर्वाचन आयोग संदिग्ध नागरिकों के मामले में जांच कर सकता है? आयोग यह नहीं कह रहा है कि उसे किसी को गैर-नागरिक घोषित करने का अधिकार है… लेकिन क्या यह आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर होगा, उसकी इस संवैधानिक शक्ति को ध्यान में रखते हुए कि वह ऐसी प्रक्रिया कर सकता है, जो जांच संबंधी प्रकृति की हो, मसलन जहां (मतदाता सूची में) समावेशन अत्यधिक संदिग्ध लगता हो। इस तरह यह प्रक्रिया को सुव्यवस्थित बनाता है।’’
पीठ ने कहा, ‘‘नागरिकता एक संवैधानिक अनिवार्यता है। आरओपीए की धारा 19 अनुच्छेद 325 के आधार पर अधिनियमित की गई है। एक अवैध प्रवासी लंबे समय से यहां रह रहा है… मान लीजिए 10 साल से अधिक समय से… तो क्या उसे सूची में बने रहना चाहिए? यह कहना कि निवास और आयु से संतुष्ट होने पर नागरिकता मान ली जाती है, गलत होगा। यह निवास या आयु पर निर्भर नहीं है, क्योंकि नागरिकता एक संवैधानिक आवश्यकता है।’’
पीठ मामले की सुनवाई 11 दिसंबर को जारी रखेगी।
भाषा
शफीक पारुल
पारुल

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