पचास साल बाद भी ‘शोले’ का जादू बरकरार, ‘अनकट वर्जन’ ने पीढ़ियों को फिर बांधा

पचास साल बाद भी ‘शोले’ का जादू बरकरार, ‘अनकट वर्जन’ ने पीढ़ियों को फिर बांधा

पचास साल बाद भी ‘शोले’ का जादू बरकरार, ‘अनकट वर्जन’ ने पीढ़ियों को फिर बांधा
Modified Date: December 21, 2025 / 04:51 pm IST
Published Date: December 21, 2025 4:51 pm IST

नयी दिल्ली, 21 दिसंबर (भाषा) बड़े पर्दे पर गब्बर की गूंजती दहाड़-“कितने आदमी थे!”, चलती ट्रेन की छत पर जय-वीरू द्वारा दुश्मनों की धुनाई का दृश्य और ठाकुर साहब की आंखों में धधकती बदले की ज्वाला दर्शकों को सीट से चिपका देती है, ऐेसे में फिल्म ‘शोले’ देखना महज एक फिल्म देखना नहीं रह जाता। यह सिनेमा के उस जादू में लौटने जैसा है, जिसने पीढ़ियों को एक साथ बांधे रखा है।

रमेश सिप्पी की यह कालजयी फिल्म एक बार फिर लौट आई है-इस बार टीवी स्क्रीन पर नहीं, बल्कि सिनेमा हॉल की अंधेरी दुनिया में, जहां ध्यान भटकाने को कुछ नहीं और हर दृश्य पूरी शिद्दत से असर करता है।

इस बार दर्शकों को ‘शोले’ का ‘अनकट वर्जन’ देखने को मिल रहा है, जिसमें पहले कभी न दिखाए गए दृश्य शामिल हैं और फिल्म का अंत भी अलग है। इस संस्करण में संजीव कुमार के संयमित अभिनय से सजे ठाकुर बलदेव सिंह, गब्बर सिंह को नहीं बख्शते, बल्कि अमजद खान के यादगार किरदार का अंत खुद कर देते हैं।

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रिलीज के पचास साल बाद भी ‘शोले’ हर उम्र के दर्शकों के लिए उतनी ही खास बनी हुई है। यही वजह है कि इस हफ्ते की शुरुआत में 70 से सात साल की उम्र के 15 लोगों का एक बड़ा पारिवारिक समूह 70 एमएम में फिल्म देखने पहुंचा और हर किसी ने अपने-अपने अंदाज में इसका आनंद लिया।

दादा ने एक बार फिर थिएटर का पुराना जादू महसूस किया, पिता ने पहली बार इसे बड़े पर्दे पर देखा और घर का सबसे छोटा सदस्य उस फिल्म से रूबरू हुआ, जिसके किस्से वह अब तक बड़ों से ही सुनता आया था।

हर भारतीय परिवार का ‘शोले’ से जुड़ा अपना एक किस्सा होता है और यह परिवार भी इससे अलग नहीं था।

अभिषेक बच्चन ने हाल ही में सभी ‘मिलेनियल्स’ की भावना को शब्द देते हुए कहा था कि उनके लिए ‘शोले’ को बड़े पर्दे पर देखना जीवनभर का सपना रहा है-वह भी उस फिल्म को, जिसमें उनके पिता अमिताभ बच्चन के साथ धर्मेंद्र, संजीव कुमार और अमजद खान जैसे दिग्गज कलाकार नजर आते हैं।

‘मिलेनियल्स’ उस पीढ़ी को कहा जाता है, जो लगभग 1981 से 1996 के बीच पैदा हुई।

जहां साइलेंट जेनरेशन (1928-45), बेबी बूमर्स (1946-64) और जेनरेशन एक्स (1965-1980) को सिनेमाघरों में ‘शोले’ देखने और उसकी दीवानगी को अपनी आंखों से देखने का मौका मिला, वहीं मिलेनियल्स की पूरी पीढ़ी इसके किस्से सुनते हुए बड़ी हुई। उन्होंने इस फिल्म को बार-बार टीवी, वीएचएस और डीवीडी पर ही देखा।

‘शोले’ को दोबारा देखना सिर्फ फिल्म देखना नहीं, बल्कि यादों की दुनिया में लौटना भी है-पृष्ठभूमि में यूं ही रोजमर्रा की तरह गूंजती अजान की आवाज, सबके साथ मिलकर मनाई जाती होली और एक साझा संस्कृति वाले गांव का सहज जीवन, जहां रोजमर्रा की जद्दोजहद के बावजूद सामाजिक ताना-बाना पूरी मजबूती के साथ कायम दिखता है।

फिल्म का मूल ‘क्लाइमेक्स’ सेंसर बोर्ड के कहने पर बदला गया था। दरअसल, 15 अगस्त 1975 को आपातकाल के दौर में जब फिल्म पहली बार रिलीज हुई, तब सेंसर बोर्ड ने इसके अंतिम दृश्य पर आपत्ति जताई थी।

उस समय जारी संस्करण में ठाकुर गब्बर को मारने के बजाय उसे पुलिस के हवाले कर देता है। तत्कालीन अधिकारियों का मानना था कि एक पूर्व पुलिस अधिकारी को कानून अपने हाथ में लेते हुए नहीं दिखाया जा सकता-भले ही उसके हाथ गब्बर ने ही क्यों न काट दिए हों।

इसी वजह से दशकों तक दर्शकों ने वही बदला हुआ ‘क्लाइमेक्स’ देखा, जबकि असली अंत पर्दे से गायब रहा।

‘अनकट वर्जन’ की एक और खास बात यह है कि थिएटर में कई पीढ़ियों के दर्शक एक साथ नजर आते हैं। कोई संवादों को साथ-साथ दोहराता है, कोई फिल्म के दृश्यों पर तालियां बजाता है और जैसे ही पसंदीदा किरदार पर्दे पर आता है, पूरे हॉल में सीटियों की गूंज सुनाई देने लगती है।

भाषा खारी नेत्रपाल

नेत्रपाल


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