मंदसौर। विधायकजी के रिपोर्ट कार्ड में आज बारी है मध्यप्रदेश के मंदसौर विधानसभा सीट की। मंदसौर विधानसभा क्षेत्र में सियासत का पारा कुछ ज्यादा ही ऊपर पहुंच गया है। यहां नेता हर वो जरिया ढूंढ रहे हैं जो उन्हें सत्ता के शीर्ष तक पहुंचा सके और मंदसौर में नेताओ को वो जरिया नजर आ रहा है किसान और उनसे से जुड़े मुद्दों में। टिकट के हर दावेदार का दावा है कि वो क्षेत्र के किसानों के सबसे बड़े हितैषी हैं। वैसे किसान से लेकर अवैध अतिक्रमण सहित कई बुनियादी मुद्दों को लेकर यहां चुनाव लड़ा जाना तय है।
मध्यप्रदेश में बीते साल जून महीने में हुए किसान आंदोलन और गोलीकांड को आज डेढ़ साल से ज्यादा वक्त हो गया लेकिन उस घटना को लेकर आज भी मंदसौर मे सियासत जारी है। जाहिर है आने वाले चुनाव में भी खासकर मंदसौर विधानसभा क्षेत्र में किसान सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा होगा। चुनाव होने में अब कुछ महीने बचे हैं..ऐसे में कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही यहां अपने को किसानों की हितैषी बताने की पुरजोर कोशिश कर रही है। बीजेपी कहती है कि कांग्रेस किसानों को भड़का रही है तो कांग्रेस का आरोप है कि राज्य सरकार की किसान विरोधी नीतियों के चलते किसान आंदोलन करने को मजबूर हैं।
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आने वाले चुनाव में मंदसौर में एट्रोसिटी एक्ट में हो रहे विरोध का असर भी देखने को मिल सकता है। खासतौर पर आरक्षण और एट्रोसिटी एक्ट के बड़े मुद्दे पर सामान्य वर्ग सरकार की चुप्पी से नाराज है। वहीं किसान आंदोलन के बाद से ग्रामीण इलाकों में अभी भी किसानों एमएसपी मूल्य पर फसलों के दाम को लेकर किसान अड़े हुए हैं।
किसानों की नाराजगी के अलावा यहां बुनियादी सुविधाओं की कमी को लेकर भी नेताओ को जनता के सवालों का जवाब देना होगा। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चे पर फेल नजर आता है मंदसौर विधानसभा क्षेत्र। उद्योग-धंधों की कमी के कारण स्थानीय युवा पलायन को मजबूर है। वहीं मेडिकल कॉलेज की मांग अब तक पूरी नहीं हुई है। इकलौता जिला अस्पताल रेफर सेंटर बनकर रह गया है। क्षेत्र के लोगों को उपचार के लिए राजस्थान और गुजरात का रूख करना पड़ता है।
इसके अलावा पिछले दो सालो से किसानों के घरों में डोडाचूरा पड़ा है, जिसे सरकार ने खरीदने का वादा किया। लेकिन मामला ठंडे बस्ते में है। वहीं आगामी चुनाव में मादक पदार्थो की तस्करी और अवैध अतिक्रमण जैसे मुद्दे भी हावी रहेंगे। वहीं सरकारी नालों और तेलिया तालाब जैसे बड़े मुद्दे पर जनता जवाब मांग रही है। मंदसौर विधानसभा क्षेत्र की पहचान बीजेपी के गढ़ के रूप में है। कांग्रेस ने यहां आखिरी बार 1998 में जीत दर्ज की थी। उसके बाद से यहां बीजेपी के प्रत्याशी विधानसभा पहुंच रहे हैं। हालांकि पिछले तीन चुनावों में कांग्रेस की असफलता की बड़ी वजह यहां उसकी अंदरूनी गुटबाजी भी है। इसके बावजूद बीजेपी को हर बार कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिलती रही है।
मंदसौर विधानसभा क्षेत्र के सियासी मूड को भांपना आसान नहीं है। मंदसौर जिले की बाकी तीन विधानसभा सीटों की तरह इस चुनाव क्षेत्र के सियासी समीकरण भी बदलते रहे हैं। इतिहास की धरोहरों और भविष्य के सपनों को अपने में समेटे इस इलाके के अपने कुछ दर्द भी हैं। वैसे तो मंदसौर बीजेपी का गढ़ माना जाता है। लेकिन बीच-बीच में कांग्रेस भी यहां अपनी मौजूदगी दर्ज कराती रही है। हालांकि सियासी जानकारों की माने तो कांग्रेस यहां अपनी गुटबाजी की वजह से बीजेपी से पीछे रह जाती है।
मंदसौर के सियासी इतिहास की बात की जाए तो 1998 में आखिरी बार यहां कांग्रेस को जीत मिली थी। जब कांग्रेस के टिकट पर नव कृष्ण पाटिल यहां से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। लेकिन 2003 में बीजेपी के टिकट पर ओम प्रकाश पुरोहित ने ये सीट कांग्रेस से छिन ली। 2008 में बीजेपी ने यशपाल सिंह सिसोदिया को मैदान में उतारा, जिन्होंने कांग्रेस के महेंद्र सिंह गुर्जर को हराया। 2013 में भी यशपाल सिंह सिसोदिया पर बीजेपी ने भरोसा जताते हुए टिकट दिया। इस बार भी उन्होंने महेंद्र सिंह गुर्जर को शिकस्त देकर विधानसभा पुहंचे। इस चुनाव में बीजेपी को जहां 84975 वोट मिले। वहीं कांग्रेस को 60680 वोट मिले इस तरह जीत का अंतर 24195 वोटों का रहा। मिशन 2018 को लेकर एक बार फिर मंदसौर में सियासी माहौल गरमाने लगा है। कांग्रेस यहां पुरजोर कोशिश कर रही है कि वो सीट पर बीजेपी के विजय रथ को रोके। वहीं बीजेपी यहां लगातार चौथी बार जीत दर्ज करने के मकसद से उतरेगी।
मंदसौर के बीजेपी विधायक यशपाल सिंह सिसोदिया यहां से हैट्रिक लगाने का सपना देख रहे हैं। लेकिन पार्टी के अंदर दावेदारों की पूरी फौज ही खड़ी हो गई है। उधर कांग्रेस में भी एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति है। यही वजह है कि इस बार राजनीतिक दल किसी भी तरह की जल्दबाजी से बचना चाहते हैं। लिहाजा प्रत्याशियों के नामों का ऐलान करने में सब वेट एंड वॉच की स्थिति में हैं।
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किसान आंदोलन को लेकर पिछले कुछ समय से पूरे देश में सुर्खियों में रहने वाले मंदसौर में इन दिनों सियासत पूरे जोर पर है। खासतौर पर आने वाले चुनाव को लेकर टिकट दावेदार अपने दावों के साथ सक्रिय नजर आ रहे हैं। टिकट दावेदारी को लेकर कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ही दलों में काफी खींचतान है। सत्तारूढ़ बीजेपी की बात की जाए तो मंदसौर में वर्तमान विधायक यशपाल सिंह सिसोदिया टिकट के प्रबल दावेदार हैं। पार्टी में कद्दावर नेताओँ में शामिल बीजेपी विधायक कार्यकर्ताओं के बीच सीधी पैठ रखते हैं। वहीं शहर सहित ग्रामीण अंचलों में भी उनकी पकड़ अच्छी है। हालांकि किसान आंदोलन के दौरान क्षेत्र में उनकी गैरमौजूदगी को लेकर भी काफी सवाल उठे। इसके सबके बावजूद बीजेपी विधायक अपने टिकट को लेकर आश्वस्त हैं।
मंदसौर में बीजेपी आलाकमान के लिए इस बार टिकट फाइनल करना इतना आसान नहीं होगा। वर्तमान विधायक के अलावा कई नेता हैं जो टिकट के लिए अपना दावा ठोंक रहे हैं। इस लिस्ट में सबसे प्रह्लाद बंधवार का नाम सबसे आगे है। वर्तमान में मंदसौर नगर पालिका अध्यक्ष प्रह्लाद की ईमानदारी छवि उनके टिकट दावेदारी को मजबूत बनाती है। हालांकि तेलिया तालाब और शासकीय भूमि पर अवैध अतिक्रमण करने का आरोप भी उनपर लगे हैं। ऐसे में पार्टी उनपर कितना भरोसा जताएगी। ये तो वक्त बताएगा। इनके अलावा नरेंद्र पाटीदार का नाम तीसरे दावेदार के रूप में सामने आ रहा है। मंदसौर ग्रामीण मंडल के अध्यक्ष और वर्तमान विधायक के खास माने जाते हैं।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, कई नेता सीट को जीतने का दावा कर अपनी टिकट की दावेदारी कर रहे हैं। कांग्रेस से संभावित दावेदारों में विपिन जैन का नाम सबसे आगे है। विपिन मंदसौर की सबसे बड़ी ग्राम पंचायत दलौदा के सरपंच हैं। ग्रामीण इलाके के अलावा युवा वर्ग में भी उनकी अच्छी पकड़ है। जैन होने के चलते वो सामाजिक वोट बैंक को भी स्विंग करने में सक्षम हैं। विपिन जैन का भी मानना है कि पार्टी अगर उनपर भरोसा करती है तो वो जीतकर आएंगे। कांग्रेस में दूसरे बड़े दावेदार सोमिल नाहटा हैं। पूर्व मंत्री नरेंद्र नाहटा के भतीजे सोमिल को राजनीति विरासत में मिली है। युवाओं में लोकप्रिय होने के साथ शहरी और ग्रामीण इलाको में मजबूत पकड़ है। इसके अलावा सिंधिया गुट से आने वाले मुकेश काला भी मंदसौर से टिकट के लिए ताल ठोंक रहे हैं। हालांकि मतदाताओं के बीच ज्यादा संपर्क नहीं होना उनके टिकट मिलने की वजह बन सकता है।
कुल मिलाकर मंदसौर में दोनों ही दलों में दावेदारों की भीड़ है और इस भीड़ में से ही वो बागी पैदा हो सकते हैं जो पार्टियों के चुनाव गणित को बिगाड़ सकते हैं। ऐसे में 2018 के सियासी संग्राम से पहले दोनों राजनीतिक पार्टियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वो सही कैंडिडेट का चुनाव करें।
वेब डेस्क, IBC24