बतंगड़ः भतीजे ने चाचा की ‘चाणक्यीय’ छवि को किया चूर
बतंगड़ः भतीजे ने चाचा की 'चाणक्यीय' छवि को किया चूर | Ajit Pawar shatters Sharad Pawar's political expertise
Ajit and Sharad Pawar

सौरभ तिवारी, डिप्टी एडिटर,
IBC24
एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने 27 अप्रैल को मुंबई में आयोजित युवा मंथन कार्यक्रम में नसीहत देते हुए कहा था कि रोटी सही समय पर पलट देनी चाहिए नहीं तो वो जल जाती है। शरद पवार के इस बयान को उनके भतीजे अजित पवार के खिलाफ उनके रुख का संकेत माना गया था। डेढ महीने बाद उन्होंने रोटी पलट भी दी थी। 10 जून को एनसीपी के 25वें स्थापना दिवस के मौके पर शरद पवार ने अपनी बेटी सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर भतीजे अजित पवार को तगड़ा झटका दिया था। लेकिन चाचा को रोटी पलटे अभी माह भर भी नहीं बीता था कि अब भतीजे ने रोटी पलट कर सारी बाजी ही पलट दी है।
महाराष्ट्र में घटे नाटकीय घटनाक्रम ने जहां कई प्रचलित सियासी मिथकों और धारणाओं को ध्वस्त कर दिया है तो वहीं कई नई मान्यताओं को स्थापित भी किया है। चाणक्य माने जाने वाले शरद पवार को मिली मात ने साबित कर दिया कि सियासत में शह- मात और मौकापरस्ती के खेल में कभी चेला गुरू पर भारी पड़ जाता है तो कभी भतीजा चाचा पर। जिस शरद पवार को मोदी विरोधी गठबंधन की विपक्षी पार्टियों के बीच एकजुटता बनाने की जिम्मेदारी मिली थी, खुद अपनी ही पार्टी की एकजुटता कायम नहीं रख सके। शरद पवार को लगा ये झटका उनकी ‘चाणक्यीय’ छवि को तार-तार कर देने वाला साबित हुआ है। याद करिए इन्हीं शरद पवार ने अपनी आत्मकथा ‘लोक मझे संगति’ में शिवसेना की टूट के लिए उद्धव ठाकरे को दोषी ठहराते हुए उन्हें सियासत का कच्चा खिलाड़ी करार दिया था। पवार के मुताबिक सरकार के प्रमुख को राजनीतिक गतिविधियों के बारे में चौकन्ना रहना चाहिए, जिसकी ठाकरे में कमी दिखी। लेकिन एनसीपी में हुई बगावत ने तो शरद पवार को उद्धव ठाकरे से भी कच्चा खिलाड़ी साबित कर दिया। उद्धव अपने खिलाफ चल रही बगावत की भनक लगा पाने में नासमझ निकले लेकिन पवार तो अपने भतीजे के बागी रुख को भांपने के बाद भी हाथ मलते रह गए। भतीजे को ठिकाने लगाने के लिए इस्तीफे के कथित मास्टर स्ट्रोक से लेकर भतीजे को साइड लाइन करने के लिए चाचा की चली गई तमाम पैंतरेबाजी नाकाम साबित हुई। भतीजे ने चाचा और बेटी की एनसीपी को वहीं पहुंचा दिया है जहां आज पिता और बेटे की शिवसेना खड़ी है।
अजित पवार ने साफ कर दिया है कि उन्होंने एनसीपी को तोड़ा नहीं है बल्कि भाजपा-शिवसेना सरकार में एनसीपी को शामिल किया है। यानी साफ है कि अब एनसीपी भी अपने वजूद को बचाने की कवायद वहीं से शुरू करेगी जहां से शिवसेना ने की थी। एकनाथ शिंदे ने तो उद्धव से ‘तीर कमान’ छीन लिया है, अब देखना है कि शरद पवार अपनी ‘घड़ी’ बचा पाते हैं या नहीं? शरद पवार को अब अपनी एनसीपी को बचाने के लिए कानूनी और सियासी मोर्चे पर दोहरे लड़ाई लड़नी होगी। हालांकि शरद पवार ने दावा किया है कि इससे पहले भी वो इस तरह की बगावती चुनौतियों का सामना कर चुके हैं और हर बगावत के बाद उन्होंने एनसीपी को ज्यादा मजबूती के साथ खड़ा करके दिखाया है। शरद पवार भले एनसीपी को फिर से खड़ा कर लेने का दम भर रहे हों लेकिन उनको भी पता है कि इस दफा परिस्थितियां उतनी अनुकूल नहीं है। एक तो 84 साल की उम्र में उनका कई स्वास्थ्य समस्याओं से जूझना और दूसरा प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे उनके निकट सहयोगियों का ही भतीजे के बागी खेमे में शामिल हो जाना।
दरअसल शरद पवार ने अपनी सियासी ताजिंदगी में जो बोया है, उम्र के इस पड़ाव में वो उसी की फसल को काट रहे हैं। महज 27 साल की उम्र में विधायक चुने जाने से लेकर अब तक के अपनी 56 वर्षीय राजनीतिक यात्रा के दौरान अनेकानेक मौकों पर उन्होंने अपनी तात्कालीन पार्टी से बगावत करके अपनी अलग राह चुनी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ अपने पॉलिटिकल करियर की शुरुआत करने वाले पवार हवा का रुख भांपकर पार्टी की अदला-बदला करते रहे। जब कांग्रेस पार्टी कांग्रेस (आई) और कांग्रेस (यू) में विभाजित हुई तो पवार ने कांग्रेस (यू) का साथ दिया। 1978 में पवार ने जनता पार्टी के साथ सरकार बनाने के लिए कांग्रेस (यू) छोड़ दी और महाराष्ट्र के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने। साल 1980 में इंदिरा सरकार की वापसी हुई और उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गई तो 1983 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी सोशलिस्ट का गठन किया। साल 1987 में वो अपनी पुरानी पार्टी कांग्रेस में वापस आ गए और अगले साल फिर से सीएम बन गए। अगले दस सालों यानी 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाने पर निष्कासित होने तक वे कांग्रेस पार्टी में रहकर राज्य और केंद्र की सियासत में कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे। 1999 में उन्होंने अपनी अलग पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन तो कर लिया लेकिन सियासी उसूलों से समझौता करके उसी के साथ यूपीए के सहयोगी के रूप में केंद्रीय और महाअघाड़ी के रूप में प्रादेशिक सत्ता सुख भोगने का सिलसिला जारी रखा। ये सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक कि शिवसेना की टूट के बाद महाअघाड़ी गठबंधन सत्ता से बेदखल नहीं हो गया। और अब भतीजे की बगावत के बाद खतरा पार्टी से भी बेदखली का पैदा हो गया है।
महाराष्ट्र में घटित बगावत के इस ताजे संस्करण के गहरे सियासी मायने हैं। भाजपा की स्पॉन्सरशिप में हुई बगावत की ये डील महाराष्ट्र की प्रादेशिक राजनीति के साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में भी भाजपा के फेवर वाली साबित हो सकती है। प्रादेशिक सियासत के लिहाज से भाजपा को सबसे बड़ा फायदा तो ये हुआ है कि उसने अजित पवार के रूप में बहुमत की गारंटी पक्की करने के बाद एकनाथ शिंद पर निर्भरता कम करके ब्लेकमेलिंग के संभावित खतरे को खत्म कर दिया है। दूसरा फायदा उसे राष्ट्रीय राजनीति में विपक्षी एकता में सेंध लगा कर हुआ है। महाराष्ट्र का घटनाक्रम ये संदेश देने में सफल रहा है कि जो पार्टियां अपने ही नेताओं को एकजुट नहीं रख सकती हैं वो भला कैसे एकजुट हो पाएंगी? महाराष्ट्र के बाद अब बिहार में भी ‘खेला’ होने की कयासबाजी विपक्षी दलों के बीच अविश्वास की खाई को चौड़ा करने का काम करेगी। अजीत पवार ने ये कहकर कि उनके कदम को शरद पवार का आशीर्वाद प्राप्त है, पवार की विश्वसनीयता को संदिग्ध बना दिया है। कुछ सियासी पंडित तो इस अटकलबाजी को हवा भी दे रहे हैं कि सबकुछ शरद पवार की सहमति से हुआ है। पिछली दफा भी जब अजित पवार ने अलसुबह राजभवन में उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के 72 घंटे बाद घर वापसी कर ली थी तो इसे शरद पवार की सर्जिकल स्ट्राइक बताया गया था। तब ये कहा गया था कि शरद पवार ने एक ट्रैप बिछाया था जिसमें देवेंद्र फड़नवीस फंस गए थे। दो दिन पहले शरद पवार ने ये माना भी था कि उन्होंने ये साबित करने के लिए कि बीजेपी किसी से भी गठबंधन कर सकती है, उन्होंने वो सारा जाल बिछाया था। जाहिर तौर पर अगर भतीजे अजित पवार के बगावत पार्ट 2 के पीछे भी चाचा की चाल का शिगूफा छोड़ा जा रहा है तो इससे विपक्षी गठबंधन में संदेह की दरार पड़ना स्वाभाविक है।
हालांकि इस पूरे घटनाक्रम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के विरोधाभास को एक बार फिर उजागर कर दिया है। एक तरफ भ्रष्टाचारियों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने का वादा किया जाता है और दूसरी तरफ दागी नेताओं का भाजपा के पाले में पहुंचने का भी सिलसिला जारी रहता है। अजित पवार के साथ मंत्री पद की शपथ लेने वाले कुछ मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के दाग लगे हैं लेकिन उन्हें अब चिंता करने की जरूरत नहीं क्योंकि भाजपा की वाशिंग मशीन में उनके धुलने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। दाग से अगर कुछ अच्छा होता है तो ये दाग अच्छे हैं।

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