‘फील बैड’ का खतरा

'फील बैड' का खतरा

‘फील बैड’ का खतरा
Modified Date: November 28, 2022 / 09:08 pm IST
Published Date: September 5, 2018 7:58 am IST

 

 

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सौरभ तिवारी, असिस्टेंट एडिटर,IBC24

सुप्रीम कोर्ट की ओर से एससी-एसटी एक्ट में किए गए संशोधन के खिलाफ लाए गए अध्यादेश के बाद सोशल मीडिया पर छेड़ी गई मुहिम अब सड़क पर उतर कर असली रंग दिखा रही है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की जन आशीर्वाद यात्रा पर पथराव के अलावा उन पर जूता तक फेंका जा चुका है। कहीं मंत्रियों को काले झंडे दिखाए जा रहे हैं तो कहीं घेराव हो रहा है। उग्र प्रदर्शनों का खौफ इतना कि कई मंत्रियों को अपने दौरे तक रद्द करने पड़ गए हैं। इधर 6 सितंबर को भारत बंद की तैयारी है। कुल मिलाकर प्रायोजित विरोध अब हकीकत में तब्दील हो चुका है। दाद देनी होगी मोदी विरोधियों की, जिन्होंने सोशल मीडिया पर इतनी चतुराई से पूरी मुहिम को आगे बढ़ाया कि भाजपा समर्थकों को भनक तक नहीं लगी और वे इस प्रायोजित विरोध के भागीदार बनकर नोटा-नोटा जपने लगे। 

दरअसल किसी मुहिम के जोर पकड़ने के लिए जो भी बुनियादी तत्व चाहिए वो इस नोटा समर्थित मुहिम में मौजूद हैं। नाराजगी आरक्षण से कहीं ज्यादा एससी-एसटी एक्ट पर मोदी सरकार के रवैये को लेकर है। गौर करने वाली बात ये है कि एससी-एसटी एक्ट के दुष्प्रभावों से प्रभावित होने वालों में केवल सवर्ण ही नहीं बल्कि पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक भी शामिल हैं। अल्पसंख्यक तो खैर भाजपा के वोट बैंक को तहस-नहस होता देखकर किनारे खड़े होकर मजा लूट रहे हैं। पिछड़ा वर्ग चूंकि खुद आरक्षण का लाभार्थी है, लिहाजा वो फिलहाल तटस्थता के भाव के साथ घटनाक्रम का साक्षी बना हुआ है। अब रह गया भाजपा के परंपरागत मतदाता के ठप्पे वाला सवर्ण वर्ग, जो फिलहाल नोटा के जरिए भाजपा का लोटा डुबोने को आमादा है। 

वाकई भाजपा फंस चुकी है। ये मकड़जाल खुद उसने बुना है। सवर्ण वर्ग तो आरक्षण को लोकतंत्र की अनिवार्य बुराई मानकर अपनी नियती से समझौता कर चुका था। लेकिन एससी-एसटी एक्ट पर मोदी सरकार के रुख ने सवर्ण बिरादरी में जो बेचैनी की चिंगारी सुलगाई थी वो अब नाराजगी की फूंक पाकर शोला बन चुकी है। 

ये सही है कि सवर्णों के आक्रोश को इस मुकाम तक पहुंचाने में मोदी विरोधियों का प्रायोजित विरोध काफी हद तक जिम्मेदार है। लेकिन सवाल उठता है कि ये मौका आखिर दिया किसने? एससी-एसटी एक्ट को लेकर दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आखिर उड़ता तीर लेने की जरूरत क्या थी? कोढ़ के ऊपर खाज ये कि एक्ट में शामिल अपराधों की सूची को 22 से बढ़ाकर 47 कर दिया गया। अपनी इस आत्मघाती करतूत को दलितों के सबसे बड़े हितैषी होने का ढिंढोरा पीट कर करेला के ऊपर नीम और चढ़ा दिया गया। दलितों को साधते-साधते भाजपा कब सवर्ण विरोधी के तौर पर स्थापित हो गई खुद भाजपा को ही पता नहीं चला। मंथराएं तो खैर मौके की ताक में बैठी ही थीं, और उन्होंने नोटा की मुहिम को परवान चढ़ाते देर नहीं लगाई। सोशल मीडिया में ढूंढ-ढूंढ कर वो वीडियो पोस्ट किए जा रहे हैं जिसमें अमित शाह और नरेंद्र मोदी भुजाएं फड़काते हुए आरक्षण और एससी-एसटी एक्ट की वकालत करते नजर आ रहे हैं। मामा शिवराज तो खैर माई के लालों को चुनौती देकर काफी पहले से मुसीबत मोल लिए बैठे हैं। 

भाजपा को शायद ये भान नहीं था कि वो अपने किस समर्थक वर्ग की नाराजगी मोल लेने जा रही है। ये वो समर्थक वर्ग था जो ‘भक्त’ की तोहमत सह कर भी मोदी सरकार के हर फैसले के साथ खड़ा रहता था। ये वो समर्थक वर्ग था जिसने नोटबंदी और जीएसटी के कथित दुष्प्रभावों को देशहित में जरूरी मानते हुए परेशानी उठाने के बावजूद सरकार का गुणगान किया था। ये वो समर्थक वर्ग था जो सोशल मीडिया में मोदी विरोधियों की मुहिम का जवाब देने के लिए अपने निजी संबंधों तक को दांव पर लगाने से गुरेज नहीं करता था। भाजपा इसी मुगालते में रही कि एससी-एसटी एक्ट पर भी उसका ये समर्थक वर्ग उसके पाले में बना रहेगा। लेकिन उसकी यही गलतफहमी उस पर भारी पड़ गई। 

ऐसा नहीं है कि भाजपा को बाजी हाथ से निकलने का एहसास नहीं है। पार्टी स्तर पर डैमेज कंट्रोल की कवायद शुरू हो गई है। मुंह फुलाए फूफाओं के मान-मनौव्वल की कोशिश भी जारी है। नोटा की निरर्थकता को सामने रखकर इसके दुष्प्रभाव गिनाए जा रहे हैं। लेकिन मुश्किल ये है कि हर दलील पर उलटा खुद भाजपा ही कटघरे में खड़ी हो जाती है। भाजपाई नोटा की मुहिम से हिंदुत्व के कमजोर होने का डर दिखाते हैं तो उल्टा उन्हीं से हिंदुत्व की मजबूती को लेकर उठाए गए कदमों का हिसाब पूछ लिया जाता है। एससी-एसटी एक्ट पर दिए गए कोर्ट के आदेश को संसद में कानून बनाकर पलटने के बाद तो अब भाजपा राम मंदिर के नहीं बन पाने के पीछे कोर्ट की दुहाई देने लायक भी नहीं बची है। 

कुल मिलाकर भाजपा के लिए नोटा की मुहिम से निबटना एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। मध्यप्रदेश,राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तीन महीने बाद होने जा रहे विधानसभा चुनाव के मद्देनजर ये चुनौती किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। और हो भी क्यों नहीं, आखिर इन प्रदेशों के नतीजों से ही तो लोकसभा का राजपथ प्रशस्त होना है। भाजपा ये याद रखे कि अटल जी ने ‘फील गुड’ की गलतफहमी में सरकार गंवाई थी, मोदी कहीं सवर्णों के ‘फील बैड’ का शिकार ना हो जाएं।


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