बॉलीवुड फिल्मों की भीड़ और मल्टीप्लेक्स संस्कृति के बीच संघर्ष करता छत्तीसगढ़ी सिनेमा

Chhattisgarhi cinema is getting suppressed amidst the crowd of Bollywood films and multiplex culture

बॉलीवुड फिल्मों की भीड़ और मल्टीप्लेक्स संस्कृति के बीच संघर्ष करता छत्तीसगढ़ी सिनेमा

Chhattisgarhi Cinema

Modified Date: September 10, 2025 / 09:26 pm IST
Published Date: September 10, 2025 9:21 pm IST

  • सुनील साहू, बलौदाबाजार

छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग इन दिनों अपने संघर्ष के दौर से गुजर रहा है। विडंबना यह है कि जिन सिनेमाघरों की धड़कन छत्तीसगढ़ के दर्शक हैं,  वहीं के टाकीज़ों में अब छत्तीसगढ़ी फिल्मों को जगह नहीं मिल रही। बड़े बजट की बॉलीवुड फिल्मों की भीड़ और मल्टीप्लेक्स संस्कृति के बीच स्थानीय सिनेमा धीरे-धीरे दबता जा रहा है। पिछले कुछ सालों में छत्तीसगढ़ी फिल्में  बेहतर कथानक, तकनीक और उम्दा कलाकारों के दम पर नई पहचान बनाने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन हालात यह हैं कि जब कोई छत्तीसगढ़ी फिल्म रिलीज़ होती है तो उसे मुश्किल से कुछ शो मिल पाते हैं। वहीं बॉलीवुड की बड़ी फिल्मों के लिए सिंगल स्क्रीन से लेकर मल्टीप्लेक्स तक हफ्तों पहले से बुकिंग कर दी जाती है।

हाल ही में रिलीज हुई फ़िल्म दंतेला को देखने शुरुआत में दर्शकों का जनसैलाब उमड़ पड़ा। दंतेला को ना केवल ग्रामीण अंचल के लोगों ने खूब प्यार दिया, बल्कि शहरी दर्शक भी बड़े पैमाने पर सिनेमाघरों में दस्तक दी। यही वजह है कि खासतौर पर सिंगल स्क्रीन के अलावा शहरों के मल्टीप्लेक्स, पीवीआर, आइनॉक्स भी लगातार हॉउसफुल रहे। आपको ये भी जानकारी हैरानी होगी कि दंतेला के साथ-साथ कई बालीवुड मूवी भी रिलीज हुई, जिसमें से एक परम सुंदरी फ़िल्म भी शामिल थी। वीकेंड मे दंतेला हॉउसफुल रही ही है, लेकिन नॉर्मल दिनों मे भी हर शो 70 प्रतिशत ऑक्यूपेंसी के साथ बेहतरीन परफॉमेंस दिया। वही परम सुंदरी जैसी फिल्मों की 10 प्रतिशत ऑक्यूपेंसी रही। बावज़ूद इसके दुर्भाग्य है कि ऐसे मूवी को टाकीज मालिकों ने जबरदस्ती परदे से उतारा दिया। जब टाकीज मालिकों से फ़िल्म उतारने की वजह पूछी गई तो उन्होंने बेतुका बयान देना शुरू कर दिया। टाकीज मालिकों का कहना है कि फ़िल्म की लंबाई ज्यादा है। अगर यही तर्क है तो हाल मे रिलीज़ हुई फ़िल्म पुष्पा को लंबे समय तक कैसे लगाया गया। अगर बात इस हफ्ते की करें तो बंगाल फाइल्स रिलीज़ हुई, जिसकी लम्बाई तक़रीबन 3 घंटे 20 मिनट की है। ऐसे मे फिर उस फ़िल्म को प्रदेश भर के थिएटर मे रिलीज ही क्यों किया गया?

कलाकारों और निर्माताओं की पीड़ा

टाकीज मालिकों का कहना है कि हिंदी फिल्मों से उन्हें सीधा मुनाफा मिलता है, जबकि छत्तीसगढ़ी फिल्मों में दर्शक संख्या सीमित होती है। लेकिन सवाल यह है कि अगर क्षेत्रीय फिल्मों को ही मंच नहीं मिलेगा, तो उनका दर्शक वर्ग कैसे बढ़ेगा? टॉकीज मालिकों की मनमानी पर छत्तीसगढ़ के कलाकारों की पीड़ा झलक रही है। छत्तीसगढ़ी कलाकारों और फिल्म निर्माताओं का कहना है कि वे अपनी जमीन से जुड़ी कहानियाँ दर्शकों तक पहुंचाना चाहते हैं, लेकिन जब उनके ही प्रदेश में फिल्में चल नहीं पाती तो मनोबल टूटता है। कई फिल्में रिलीज़ से पहले ही रुक जाती हैं या बेहद कम शो मिलने से घाटे में चली जाती हैं।

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सरकारी पहल की दरकार

विशेषज्ञ मानते हैं कि जैसे मराठी, भोजपुरी और दक्षिण भारतीय फिल्मों को उनकी राज्य सरकारें संरक्षण देती हैं। वैसा ही समर्थन छत्तीसगढ़ी सिनेमा को भी मिलना चाहिए। कर छूट, अनिवार्य स्क्रीन शेयरिंग और प्रचार-प्रसार जैसी योजनाएं अगर लागू हो तो छत्तीसगढ़ी सिनेमा को नई ऊर्जा मिल सकती है। सरकारी पहल नहीं होने और टॉकीज मालिकों की मनमानी के चलते क्या छत्तीसगढ़ी दर्शक अपनी ही बोली-भाषा की फिल्मों को बड़े पर्दे पर देखने का मौका खो देंगे? या फिर नीतिगत बदलाव और जागरूकता से यह सिनेमा फिर से अपने घर में सम्मान पाएगा? यह एक गंभीर सवाल है, जिस पर अब गहन विमर्श की जरूरत है।

Disclaimer- आलेख में व्यक्त विचारों से IBC24 अथवा SBMMPL का कोई संबंध नहीं है। हर तरह के वाद, विवाद के लिए लेखक व्यक्तिगत तौर से जिम्मेदार हैं।


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