महाराष्ट्र के पूरे घटनाक्रम में एक बात बहुत साफ है कि उद्धव इस बार शिवसेना पर अपने कब्जे को बरकरार रख भी लें तो यह ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाएगा। वजह साफ है। वे राजनीति के बहुत अपरिपक्व खिलाड़ी हैं। अपने वाचाल संजय राउत को आगे करके जो उन्होंने थोड़ी बहुत अपने प्रति सहानुभूति की उम्मीद थी वह भी खो दी। शिवसेना का टैंजेंट थोड़ा दबंगई वाला है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि इसमें मराठी मानुस और हिंदुत्व का सीमेंट काम करता है। जबकि उद्धव पर सबसे बड़ा इल्जाम ही यह है।
इतने दिनों तक आंख तरेरी, बागियों को उल्टा-पुल्टा कहकर निकाल दिए। अब सेफ एग्जिट प्लान के रूप में औरंगाबाद, उस्मानाबाद और ठाणे के नाम बदलकर हिंदुत्व का कार्ड खेलनी की कोशिश की जा रही है। यह कोशिश बड़ी मासूमयित से की गई है। लेकिन इसका असर तो उल्टा होने वाला है। क्योंकि हिंदुत्व की उपेक्षा का जो आरोप बागियों ने लगाया है, इससे वह सिद्ध होता है। औरंगाबाद का नाम संभाजी नगर करके आपने यह सिद्ध किया कि यह बीते ढाई साल में नहीं हो पाया। हुआ कब, जब बागियों ने इस पर रार ठानी।
इसके अलावा अपने पुत्र आदित्य ठाकरे के माध्यम से ऐसे डायलॉग करवाना जिनसे वैमनस्य और बढ़े, असल में उद्धव की अदूरदर्शिता है। सियासत के आदर्श सिद्धांत कहते हैं कि दुश्मन को भी गाली तभी दो जब वह हमारी राह का बड़ा रोड़ा बन जाए। सिर्फ सलाहों से चल रहे उद्धव को अपनी सूझबूझ पर भरोसा ही नहीं है। करना क्या चाहिए था और कर क्या रहे हैं, यह महाराष्ट्र देख रहा है।
किसी तरह से अगर इस बार शिवसेना उनके हाथ से फिसलने से बच भी गई तो यह ज्यादा दिन टिकेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं। क्योंकि उद्धव बहुत अपरिपक्वता से इसे डील कर रहे हैं। आदित्य अभी इन मामलों में बहुत छोटे हैं और संजय सिर्फ बयानवीर हैं। फिलहाल उद्धव के मार्गदर्शक शरद पवार शिवसेना को धीरे-धीरे घोंटकर खत्म कर ही रहे हैं। इसकी वजह भी साफ है, क्योंकि राकांपा हिंदुत्व पर मैदान में जा नहीं सकती, मराठी मानुस का कॉपीराइट शिवसेना के पास है। ऐसे में बदलते राजनीतिक पटल की नई सियासी तस्वीर में उसे मराठी मानुस का ब्रांड टैग लेने की जरूरत पड़ सकती है। यह तभी संभव है जब पार्टी शिवसेना को खत्म करे।
इतना सीधा और सरल सा गणित अगर उद्धव नहीं समझते तो फिर महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य की राजनीति और शिवसेना जैसी खांटी वैचारिक पार्टी की कमान उनके हाथ से निकल जाना ही बेहतर है।
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