Barun Sakhajee New Column for insights, analysis and political commentary
Barun Sakhajee,
Asso. Executive Editor
बरुण सखाजी, सह-कार्यकारी संपादक
चुनावी लोकतंत्र में राजनीति का हिसाब-किताब परसेप्शन और माहौल पर ज्यादा निर्भर करता है। पहले जब माध्यम इतने तेज नहीं थे तो यह काम समर्थक करते थे। अब टूल्स पर्याप्त हैं तो यह जिम्मेदारी तकनीक ने ले ली। सोशल मीडिया इमेज ही लगभग पब्लिक इमेज जैसी लगती है। इतनी बार नेता, उनके काम को बताया, जताया जाता है कि लोगों को वह काम न होते हुए भी सही लगने लगता है। इसमें सबसे अहम है सर्वे का खेल। देशभर में यह खेल चल रहा है। राजनीतिक दलों को किसी विधायक का टिकट काटना हो तो सर्वे आधार बन जाता है। किसी को टिकट देना हो तो सर्वे आधार बन जाता है। किसी की लोकप्रियता बतानी हो तो सर्वे निकल आता है। लेकिन मजे की बात ये है कि सर्वे करने वाले कहीं नजर नहीं आते। सर्वे गैंग ड्रॉइंग रूम में बैठकर जनता की नब्ज टटोल रहा है। यह गैंग पत्रकारों, पुराने राजनेताओं और नए वक्त के युवा नेताओं से लैस है। नतीजा ये हो रहा है कि सर्वे में छिपा न्यास, विश्वास खत्म हो रहा है।
अभी हाल ही में मोदी की लोकप्रियता बताने वाला सर्वे बाजार में चर्चा में आया है। इस सर्वे में बताया जा रहा है कि मोदी बहुत लोकप्रिय हैं। यह तो ठीक है कि वे लोगों के चहेते हैं, मगर वे अभी ही क्यों चहेते दिखाए जा रहे हैं, समझना मुश्किल है। गुजरात के चुनाव जब आएंगे तब आएंगे, फिलहाल हिमाचल के चुनाव हैं। चुनावों के मद्देनजर ही ऐसे सर्वे आते हैं।
सर्वे अच्छी बात है, लेकिन यह उतने मैदानी होने भी चाहिए। सर्वे हों तो पता भी चलना चाहिए। कोई किसी से पूछता, जानता, समझता भी दिखना चाहिए। जनता की राय के नाम पर यूं कॉर्पोरेट कंपनियों की जगलरी ठीक नहीं। इस पर भी कोई साफ-साफ सी गाइडलाइन होना चाहिए। इसीलिए निंदक नीयरे कह रहा है, सर्वे वाले को खोजते हैं।