Paramhans_Shrirambabajee: आध्यात्मिक बीज की फिर बीज तक की यात्रा पत्थर पर नहीं मृदु मृदा में ही संभव है
बरुण सखाजी श्रीवास्तव
बीज पत्थर पर पड़ा रहे तो उसे कितना ही खाद-पानी मिले, वह बिना मिट्टी के विकसित नहीं होगा। फूल सकता है, फूलकर फट सकता है। उसमें संसारी भ्रम के लिए अंकुरण हो सकता है, संपूर्ण यात्रा के लिए उसे मिट्टी में आना होगा। मिट्टी में मिलना होगा। मिट्टी में समाना होगा। मिट्टी का होना होगा। पत्थरों से फिसलकर मिट्टी में गिरना होगा। सबका सम्मान करना होगा। जल का, प्रकाश का, मिट्टी के कीड़ों, पतंगों, कीटों, केंचुओं का भी। तब वह संपूर्ण यात्रा की ओर बढ़ सकेगा। यह बीज परमहंस श्रीराम बाबाजी देखते थे। इस बीज को मिट्टी में लाने का प्रयास करते थे। जो आ गया सो आ गया नहीं आया तो नहीं आया।
धर्म, कर्म, सामूहिक कार्यक्रमों में आनंद, मंदिर, घंटियां, आरती, पूजा, विधान, विधियां, श्रवण, दर्शन, तीर्थाटन, पुस्तक अध्ययन, शास्त्र श्रवण, कर्म शोधन इत्यादि बीज हैं। हम संसारियों को लगता है बीज में क्रिया होगी, परंतु इन सब सत्कर्मों से मिली ख्याति, सम्मान ने हमारे मन में अहंकार का पत्थर पैदा कर दिया। यह बीज अहंकार के इसी पत्थर पर गिरा रहता है। हमारा संसारी अहंकार, अपने होने का अहंकार और इससे बड़ा अपने अलावा किसी और के न होने का अहंकार। निरंतर लोगों की भीड़। वाह-वाह आप बड़े भगत हैं। आप जैसा कोई नहीं कर सकता है। आपसे बड़ा कोई नहीं। आप तो महाराजजी के सबसे प्रिय हैं।
यह सब ही पत्थर पर पड़े बीज के फूलने जैसा है। कुछ और तारीफें, कुछ और हमारी क्रियाएं निरंतर अहंकार के पत्थर को और बड़ा-कड़ा करती जाती हैं और एक दिन इस बीज में एक दो पत्ते निकल आते हैं, क्योंकि पानी, खाद तारीफों के रूप में खूब मिला, लेकिन गुरुकृपा की मिट्टी न मिली। तब, पानी, प्रकाश की ताकत से फूल तो गए, दो पत्ते भी आ गए, परंतु बीज की बीज बनने की यात्रा बाधित हो गई। फूले हुए बीज के सूखने का क्रम शुरू होगा। इससे बचना संभव है, लेकिन तब जब हम गुरु के तत्व को पकड़ें, कोरी अपनी ही व्याख्याओं में न उलझे रह जाएं।
अर्थ के भीतर के अर्थ। मर्म के भीतर के मर्म। अपने भीतर काई की तरह फिसलन पैदा करते अहंकार को पकड़ना कठिन है। इसका एक ही शोधन है गुरु की शरणागति।
संसारी भीड़, आदर, सत्कार, मैं कर रहा हूं, गुरु ने जैसा कहा वैसा कर रहा हूं, कोई और वैसा नहीं कर रहा, कोई और नहीं कर सकता, मैं ही कर सकता हूं, मैं ही सिर्फ हूं बाकी सब भटक गए। यह भाव और इससे उत्पन्न ताव ही असल में आध्यात्मिक यात्रा के घाव हैं। परमहंस श्रीराम बाबाजी इसे लौ कहते थे। लौ लगी रहे। अगर लौ लगी रहेगी तो जरूर कुछ हो ही जाएगा।
हम 100 किलोमीटर की यात्रा पर निकलें और सिर्फ 500 मीटर पहले ही थम जाएं तो यात्रा पूर्ण नहीं कहलाती। अध्यात्म बहुत सूक्ष्म है। यह कार्टून सीरीज टॉम एंड जेरी जैसा है। अध्यात्म बिल्ली की तरह चूहे पर झपटता है और चूहा बिल्ली से बचकर इस बिल से उस बिल तक छिपता, कूदता, उछलता रहता है। बिल्ली एकाध चूहे को खत्म करके राहत की सांस लेती है, लेकिन अगले ही पल किसी दूसरे बिल से दूसरा चूहा निकल पड़ता है। चूहों की संख्या पता नहीं, बिल्लियों की सीमा है। इस टॉम एंड जेरी के खेल में राहत कहीं नहीं, जरा सी चूक अहंकार का पहाड़ खड़ा कर सकती है।
अहंकार का एक छोटा सा पत्थर जीवन को निर्रथक बना देता है, तब तो एक पहाड़ खड़ा हो जाता है और हमे कानों-कान खबर तक नहीं होती। दरअसल यही तो सूक्ष्मता है। आध्यात्मिक छन्ने बहुत बार लगाने पड़ते हैं। इनमें निरंतर फिल्ट्रेशन चलता रहना चाहिए। यह जहां थमा वहीं पर हम भटके। परमहंस श्रीराम बाबाजी अक्सर इन छन्नों की बात करते थे। छन्ने किसी भक्त को परखने के नहीं उसके आध्यात्मिक धैर्य को समझने के तरीके थे।
अगली बार का विमर्शः लक्ष्य तक पहुंचना यात्रा है या यात्रा सिर्फ यात्रा है…

Facebook



