Paramhans Shriram Babajee Spiritual Talk: इच्छाओं का क्या करें, इनसे जूझें, डरें, दबाएं या सही होगा इन्हें जीत लें
Shriram babajee
विवेचनाकार- बरुण सखाजी
इच्छाओं का त्याग करना चाहिए या कि शमन या कि दमन या फिर इन्हें जीत लेना चाहिए। इच्छाओं से जुड़ी इन चार चीजों में से आसान क्या है? परमहंस श्रीराम बाबाजी के जीवनवृत्त में जब हम गहराई से देखते हैं, तो उन्होंने बाह्य रूप से तो ऐसा कोई ऐलान नहीं किया, किंतु आंतरिक रूप से वे इस मार्ग पर सदा रहे। हम सब अधम चेलों को भी रखने की कोशिश करते रहे। अब बात आती है हमारे अपने आंतरिक सामर्थ और क्षमता की। क्या हम इच्छाओं के दमन, शमन, त्याग या जीत लेने में से किसी भी एक स्थिति तक पहुंच सकते हैं? यह बहुत कठिन और जटिल सवाल है, लेकिन भीतर से अगर परमहंस गुरुवर श्रीराम बाबाजी के जीवन दर्शन से प्रेरणा लें तो यह उतना ही आसान भी है। एक बार महाराजजी ने कहा, चाह, चाह, चाह और बस चाह। जई तो समस्या है। जो होए, वो होए और सब होए फिर का होए… ऐसा कहकर महाराज जी ठहाका लगाकर हंसने लगे। यह उनकी अपनी शैली थी। वे हंसते हुए लघु काव्य में या तुकबंदियों में अपनी बात को कहकर दूसरी बात पर शिफ्ट हो जाते थे। वे न व्याख्याओं में उलझे, न टीकाओं में, न तर्कों में, न फर्कों में। उन्होंने निर्भेद ब्रह्म को माना। वे कहा करते थे जो तुम्ह जानई तुम्हही हो जाई। तभी हम सब उनके अनुयायी उन्हें हनुमानजी कहा करते थे। परमहंस श्रीराम बाबाजी का स्वरूप मंगलवार को जब देखते तो वे साक्षात चैतन्य हनुमानजी के समान दिव्य, भव्य और महारूप में दृष्टव्य होते। उनकी सदास्मृति मन में बनी रहती है। जो चाह को लेकर उन्होंने वाक्य बोले उनसे जो आशय मंदबुद्धि बरुण सखाजी निकाल पाया वह आपके साथ साझा कर रहा हूं।
स्थिति-1- क्या इच्छा का त्याग कर देना चाहिए?
इच्छा का त्याग आसान नहीं है। यह सबसे कठिन प्रक्रिया है। दरअसल त्याग करने का संकल्प ही अपने आपमें दोषपूर्ण है। त्याग करने के लिए मन को संदिग्ध, भाव को सतर्क, व्यवहार को बोझिल बनाना होता है। इससे भी कठिन काम, इच्छा का चिंतन निरंतर करते रहना होता है। जब हम चिंतन करेंगे तभी तो त्याग हो पाएगा। जब हम सोचेंगे यह इच्छा है इससे हमे बचना है, बस यहीं से इच्छा अपने बहुरूपों में प्रकट होने लगती है। विवेक की बजाए बुद्धि फिर मेनुप्लेटेशन में जुट जाती है। इसलिए इच्छा का त्याग बहुत कठिन काम है। क्योंकि त्याग में कर्ता भाव प्रबल है, समर्पण भाव निर्बल। कर्ता भाव प्रबल होने से दोष बहुत अधिक होते हैं। अब सवाल है कि क्या इच्छाओं का त्याग करने की कोशिश भी बेकार है। तो जवाब यही है हां, बेकार है। क्योंकि इसकी जरूरत नहीं।
स्थिति-2- क्या इच्छाओं का शमन किया जा सकता है?
शमन का तात्पर्य इच्छाओं से मुकाबिल होना है। इनसे लड़ना है। यह भी त्याग का ही एक रूप है। जब हम इन्हें शमित करने की कोशिश करते हैं तो इच्छा प्रकटन के क्षेत्र, मन इंद्रियां और जोर मारकर हमलावर होते हैं। हमारा शमन करना और भी जटिल और कठिन होता जाता है। इसलिए शमन भी त्याग की तुलना में कम कठिन होकर भी कठिन है।
स्थिति-3- क्या इच्छाओं का दमन किया जाना चाहिए?
इच्छाओं का दमन इन्हें समूल नष्ट कर देना नहीं है। दमन सिर्फ इच्छाओं के बीज को मिट्टी के संपर्क से दूर कर देना भर है। बीज का नष्टीकरण नहीं है। जैसे ही यह मिट्टी पाएगा, अंकुरित हो जाएगा। इसलिए दमन न हल है न बल। यह हमे एक मूलभूत ट्रैक पर लाने में अनुशासनात्मक एफर्ट के रूप में काम आ सकता है। किंतु सच में यह उतने वेग से मन की सफाई नहीं कर सकता।
स्थिति-4- क्या इच्छाओं को जीत लेना चाहिए?
चार स्थितियों में इच्छाओं को जीतना सर्वोत्तम है। परमहंस श्रीराम बाबाजी के व्यवहार में देखते थे, वे कभी किसी इच्छा के दमन, शमन, त्याग से ज्यादा जीतने पर बल देते थे। अपने दर्शन और व्यवहार में एकरूपता के साथ नजर आना अपने आपमें इच्छाओं को जीत लेना है। अगर हमे भूख लगती है और मूंग की दाल खाने का मन करता है तो यह इच्छा नहीं बल्कि शरीर की आवश्यकता है। इच्छा और आवश्यकता को भली तरह से समझ लेना अपने आपमें इच्छा को जीत लेना है। कई बार यह घालमेल हमे भ्रमित कर देता है। हम जिसे सोचते हैं वह इच्छा है वह जरूरत होती है और जिसे हम जरूरत समझते हैं वह इच्छा होती है। यह भेद तब खत्म होगा जब हम इच्छाओं को न तो नियंत्रित यानि दमन करेंगे, न इनका सामना या शमन करेंगे, न ही इनका त्याग करेंगे। इन्हें जीतेंगे। जीतने से तात्पर्य इच्छाओं को जानना, समझना, इनमें भेद कर लेना, इनकी पूर्ति और ना पूर्ति के सभी आयामो को ठीक से घोल लेना दरअसल इच्छाओं पर विजयी हासिल करना हुआ।
परमहंस गुरुवर श्रीराम बाबाजी कहते थे, चाह है तो चिंता है, चिंता है तो चतुराई है और चतुराई है तो फिर चाह है। इस चक्र के बीच में विजय छिपी है। सब समर्पण करो। सब उस पर छोड़ो। सब वही है। मन, वचन, कर्म से उसके आश्रित हो जाओ। उसकी बात को भी समझो। उसके भाव को भी। जो है उसी का है और वही कर रहा है। हम सब कुछ नहीं हैं। बस यही है इच्छा का विजयमार्ग। समर्पण और समर्पण। निर्भरता परमात्मा पर पूर्ण निर्भरता। फिर न भय हो, न अपेक्षा, न स्मृतियों का बंडल जो हर कदम पर हमे पुरानी, नई फाइलें बना-बनाकर व्यवहार में समर्पण को कम करता है। इसलिए संपूर्णता के लिए जरूरी है समर्पण रखें। यहीं से इच्छाओं पर पूर्ण विजय का रास्ता खुलता है।

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