Olympic Ka Itihaas : ओलंपिक मशाल जलाने के पीछे का साइंस हिला देगा आपका दिमाग, जानें सदियों पहले क्यों शुरू हुई थी ये परंपरा
Olympic Ka Itihaas : ओलंपिक खेलों के आयोजन के उदघाटन समारोह के समय एक मशाल के माध्यम से खेलों का आरंभ होता है।
Olympic Ka Itihaas
नई दिल्ली : Olympic Ka Itihaas : हर चार साल में एक बार ओलंपिक खेलों का आयोजन होता है। ओलंपिक खेलों के आयोजन के उदघाटन समारोह के समय एक मशाल के माध्यम से खेलों का आरंभ होता है। इस मशाल के जरिए एक आग की लौह जलाई जाती है, जो तब तक जलती रहती है जब तक ओलंपिक्स समाप्त नहीं हो जाते।
यह मशाल एक ओलंपिक खेल समाप्त होने के बाद उस देश में पहुंचाई जाती है जहां अगले ओलंपिक्स होने वाले होते हैं. पेरिस ओलंपिक्स में यह मशाल 26 जुलाई को ओपनिंग सेरेमनी के दौरान मैदान में लाई जाएगी। मगर यहां हम ओलंपिक मशाल, उसके इतिहास और इसके पीछे छुपे साइंस के बारे में आपको बताने वाले हैं।
लंबा रहा है ओलंपिक मशाल का इतिहास
Olympic Ka Itihaas : ओलंपिक मशाल का इतिहास बहुत लंबा रहा है। माना जाता है कि इसकी शुरुआत बरसों पहले ग्रीस में होने वाले प्राचीन ओलंपिक खेलों के समय हुई थी। ग्रीक पौराणिक कथाओं के अनुसार इस मशाल के पीछे लोगों की सांस्कृतिक भावनाएं जुड़ी हुई हैं। वहां आग का महत्व बहुत अधिक होता था कि मंदिरों में मशाल जलाने की परंपरा रही है।
वहीं मॉडर्न ओलंपिक्स की बात करें तो ओलंपिक मशाल को पहली बार 1936 में अमल में लाया गया था। पुराने समय में एक मशाल के अंदर आग लगाई जाती थी और कोई फेमस एथलीट उसे लेकर दौड़ता है। 1956 में जब रॉन क्लार्क मशाल लेकर दौड़ रहे थे तब उनकी टी-शर्ट जल गई थी, फिर भी उन्होंने भागना जारी रखा था।
वैज्ञानिकों ने साल 2000 में ढूंढी नई तकनीक
Olympic Ka Itihaas : चूंकि लपटों के कारण कोई बड़ी घटना होने का खतरा बना रहता था। इसलिए साल 2000 में वैज्ञानिकों ने एक नई मशाल तैयार की, जो पहले से कहीं अधिक सुरक्षित थी। इस बार वैज्ञानिकों ने एक नई तकनीक इजात कर ली थी, जिसकी मदद से पहली बार मशाल को पानी के अंदर भी ले जाया गया था। इस नई मशाल की खोज यूनिवर्सिटी ऑफ एडीलेड ने टर्ब्यूलेंस एनर्जी कंबशन ग्रुप और एक छोटी कंपनी के साथ मिलकर की थी।
यह नई चाहे मौसम तूफानी हो या बारिश का, यह नई मशाल किसी भी भयंकर मौसम की परिस्थिति में बंद नहीं होगी। हालांकि साल 2000 के बाद मशाल का साइज छोटा-बड़ा होता रहा है, लेकिन उसके बाद इसी तकनीक के आधार पर मशाल का इस्तेमाल होता रहा है।

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