नयी दिल्ली, 10 जून (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को एक वकील की वह याचिका खारिज कर दी जो 30 अक्टूबर, 2015 को राष्ट्रीय राजधानी की एक अदालत में एक महिला न्यायाधीश पर मौखिक हमला करने के लिए सुनाई गई 18 महीने की जेल की सजा के खिलाफ दायर की गई थी।
न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 26 मई के फैसले के खिलाफ वकील संजय राठौर की अपील खारिज कर दी।
उच्च न्यायालय ने महिला न्यायिक अधिकारी की गरिमा को ठेस पहुंचाने के लिए वकील को सुनाई गई सजा को कम करने से इनकार कर दिया।
पीठ ने अदालती कार्यवाही के दौरान वकील की ‘अपमानजनक टिप्पणियों’ का हवाला देते हुए पूछा, ‘‘एक महिला न्यायिक अधिकारी न्यायिक कार्यों का निर्वहन कैसे कर सकती है?’’
वकील कथित तौर पर यातायात चालान से संबंधित अपने मामले की सुनवाई स्थगित होने से नाराज थे और उन्होंने मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के खिलाफ अपमानजनक और अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने के साथ ही अदालत कक्ष में हंगामा भी किया।
शीर्ष अदालत नरमी बरतने और ‘अपने कृत्यों के कारण बहुत कुछ सहने’ की वकील की दलीलों से प्रभावित नहीं हुई।
पीठ ने कहा, ‘‘नहीं। कुछ नहीं किया जा सकता। हमें मामले की प्रकृति देखनी होगी। यहां एक महिला न्यायिक अधिकारी के साथ न्यायालय में दुर्व्यवहार किया गया।’’
उच्च न्यायालय ने वकील की याचिका खारिज करते हुए कहा था कि लैंगिकता के आधार पर दुर्व्यवहार के माध्यम से न्यायाधीश को धमकाने या डराने वाला कोई भी कार्य न्याय पर ही हमला है।
उच्च न्यायालय ने 26 मई को कहा, ‘‘जब किसी न्यायिक अधिकारी की गरिमा को अभद्र शब्दों के इस्तेमाल से ठेस पहुंची जो संदेह से परे साबित हो चुके हैं, तो कानून को उस धागे की तरह काम करना चाहिए जो उसे रफू करे और दुरुस्त करे।’’
वकील की सजा को बरकरार रखते हुए उच्च न्यायालय ने आदेश की तारीख से 15 दिन के भीतर उन्हें आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया और कहा कि यह केवल व्यक्तिगत दुर्व्यवहार नहीं था, बल्कि ऐसा मामला था जिसमें ‘खुद न्याय के साथ अन्याय हुआ’।
इसमें कहा गया कि एक न्यायाधीश जो कानून की निष्पक्ष आवाज का प्रतीक हैं, अपने आधिकारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते समय व्यक्तिगत हमले का निशाना बन गईं।
उच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘जब एक महिला न्यायाधीश न्यायालय के किसी अधिकारी, जो इस मामले में एक अधिवक्ता हैं, द्वारा व्यक्तिगत अपमान और अनादर का निशाना बनती हैं, तो यह न केवल एक व्यक्तिगत गलती को दर्शाता है, बल्कि उस प्रणालीगत स्थिति को दर्शाता है जिसका महिलाओं को कानूनी प्राधिकार के उच्चतम स्तरों पर भी सामना करना पड़ता है।’’
भाषा वैभव नरेश
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