पदोन्नति में एससी और एसटी को आरक्षण देने के फैसले पर दोबारा सुनवाई नहीं: न्यायालय |

पदोन्नति में एससी और एसटी को आरक्षण देने के फैसले पर दोबारा सुनवाई नहीं: न्यायालय

पदोन्नति में एससी और एसटी को आरक्षण देने के फैसले पर दोबारा सुनवाई नहीं: न्यायालय

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 08:41 PM IST, Published Date : September 14, 2021/5:41 pm IST

नयी दिल्ली, 14 सितंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि वह पदोन्नति में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) को आरक्षण की अनुमति देने वाले अपने फैसले पर दोबारा सुनवाई नहीं करेगा क्योंकि राज्यों को यह निर्णय करना है कि वे कैसे इसे लागू करेंगे।

विभिन्न राज्यों में पदोन्नति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण देने में कथित तौर पर आ रही दिक्कतों से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बीआर गवई की तीन सदस्यीय पीठ ने राज्य सरकारों के एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को निर्देश दिया कि वे उन मुद्दे की पहचान करें जो उनके लिए अनूठे हैं और दो सप्ताह के भीतर उन्हें दाखिल करें।

पीठ ने कहा, ‘‘हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम नागराज या जरनैल सिंह (मामले) दोबारा खोलने नहीं जा रहे हैं क्योंकि इन मामलों पर न्यायालय द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था के अनुसार ही निर्णय करने का विचार था।

शीर्ष अदालत ने अपने पूर्व के आदेश को रेखांकित किया जिसमें राज्य सरकारों को निर्देश दिया गया था कि वे उन मामलों को तय करे जो उनके लिए अनूठे हैं ताकि न्यायालय इनमें आगे बढ़ सके।

न्यायालय ने कहा कि अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल द्वारा तैयार किये गए मुद्दे और दूसरों द्वारा उपलब्ध कराये गए मुद्दे मामले का दायरा बढ़ा रहे हैं।

शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘हम ऐसा करने के इच्छुक नहीं है। ऐसे कई मुद्दे हैं जिनका फैसला नागराज प्रकरण में हो चुका है और उन्हें भी हम लेने नहीं जा रहे हैं। हम बुहत स्पष्ट हैं कि हम मामले को दोबारा खोलने के किसी तर्क या इस तर्क को मंजूरी नहीं देंगे कि इंदिरा साहनी मामले में प्रतिपादित व्यवस्था गलत हैं क्योंकि इन मामलों का दायरा इस अदालत द्वारा तय कानून को लागू करना है।’’

वेणुगोपाल ने शीर्ष अदालत के समक्ष कहा कि इनमें से लगभग सभी मुद्दों पर शीर्ष अदालत के फैसले में व्यवस्था दी जा चुकी है और वह आरक्षण के मामले पर इंदिरा साहनी मामले से लेकर अबतक के मामलों की पृष्ठभूमि देंगे।

वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने तर्क दिया कि राज्य कैसे फैसला करें कि कौन सा समूह पिछड़ा हैं और इसमे पैमाने की उपयुक्तता का मुद्दा खुला है।

उन्होंने कहा, ‘‘अब यह विवादित तथ्यों का सवाल नहीं रहा। कुछ मामलों में उच्च न्यायालयों ने इस आधार पर इन्हें खारिज कर दिया कि इसमें पिछड़ेपन का आधार नहीं दिखाया गया है। कैसे कोई राज्य यह कैसे स्थापित करेगा कि प्रतिनिधित्व पर्याप्त है और इस संदर्भ में पर्याप्तता का पैमाना होना चाहिए जिसके लिए विस्तृत विमर्श की जरूरत है।’’

उनके तर्क पर पीठ ने कहा, ‘‘ हम यहां पर सरकार को यह सलाह देने के लिए नहीं है कि उन्हें क्या करना चाहिए। यह हमारा काम नहीं है कि सरकार को बताएं कि वह नीति कैसे लागू करे। यह स्पष्ट व्यवस्था दी गयी है कि राज्यों को इसे किस तरह लागू करना है और कैसे पिछड़ेपन तथा प्रतिनिधित्व पर विचार करना है। न्यायिक समीक्षा के अधीन राज्यों को तय करना है कि उन्हें क्या करना है।’’

वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा कि वह प्रतिनिधित्व के सवाल पर नहीं जाना चाहते क्योंकि इंदिरा साहनी फैसले में स्पष्ट कहा गया है कि यह आनुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं है।

उन्होंने कहा, ‘‘ मध्य प्रदेश के मामले में बहुत स्पष्ट है कि आप जनगणना पर भरोसा नहीं कर सकते। यह पहली बार नहीं है जब बड़ी संख्या में मामले आए हैं। प्रत्येक मामले में न्यायालय के समक्ष लिखित दलीलें पेश करने दी जाएं। महाराष्ट्र ने कहा है कि उसने ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ पर फैसला करने के लिए समिति गठित की है। यह पहले क्यों नहीं किया गया? जहां तक सिद्धांत की बात है तो नागराज फैसले में इस बताया गया था। ’’

अटॉर्नी जनरल ने कहा कि भारत के संघ की समस्या है कि उच्च न्यायालयों द्वारा तीन अंतरिम आदेश पारित किए गए हैं जिनमें से दो में कहा गया है कि पदोन्न्ति की जा सकती है जबकि एक उच्च न्यायालय के फैसले में पदोन्नति पर यथास्थिति कायम रखने को कहा गया है।

उन्होंने कहा, ‘‘ भारत सरकार में 1400 पद (सचिवालय स्तर पर) रुके हुए हैं क्योंकि इनपर नियमित तौर पर पदोन्नति नहीं की जा सकती। ये तीनों आदेश नियमित पदोन्नति से जुड़े हुए हैं। सवाल यह है कि क्या नियमिति नियुक्तियों पर पदोन्नति जारी रह सकती है और क्या यह आरक्षित सीटों को प्रभावित करेंगी।’’

वेणुगोपाल ने सरकारी अधिकारियों के खिलाफ अवमानना की याचिका पर रोक लगाने का अनुरोध करते हुए कहा, ‘‘2500 अन्य पद है जों सालों से नियमित पदोन्नति पर यथास्थिति आदेश की वजह से रुके हुए हैं। सरकार इन पदों पर पदोन्नति बिना किसी अधिकार के तदर्थ आधार पर करना चाहती है।’’

महाराष्ट्र और बिहार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता पीएस पटवालिया ने कहा कि शीर्ष अदालत को इसका परीक्षण करना चाहिए कि कैसे मात्रात्मक डाटा तक पहुंचा जा सकता है। उन्होंने बताया कि बिहार में 60 प्रतिशत पद खाली है।

इस पर पीठ ने कहा कि वह पहले ही पिछडे़पन पर विचार करने के लिए फैसला दे चुकी है और वह आगे नीति नहीं बता सकती।

शीर्ष अदालत ने इसके बाद आदेश दिया, ‘‘इस अदालत द्वारा पूर्व में पारित आदेश के संदर्भ, अटॉर्नी जनरल की ओर से इस मामले में विचार के लिए उठे मुद्दों पर नोट परिचालित किया गया। महाराष्ट्र और त्रिपुरा राज्यों द्वारा पहचान किए गए मुद्दे भी इस अदालत के समक्ष रखे गए। वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह और राजीव धवन ने अटॉर्नी जनरल को अलग से दिए गए मुद्दे भी रखे गए। अटॉर्नी ने कहा कि अदालत द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था को दोबारा खोलने की कोई जरूरत नहीं है।’’

अदालत ने कहा, ‘‘संविधान के अनुच्छेद 16 और 16(4)(ए) की व्याख्या के बारे में कहा गया कि इस अदालत द्वारा दिए गए फैसले से सभी मुद्दे स्पष्ट हो गए हैं जो विचार के लिए उठे। हमारे संज्ञान में लाया गया कि राज्यों के लिए अनूठे मुद्दों को 11 श्रेणियों में समूहबद्ध किया जा सकता है।यह आदेश पहले ही इस अदालत द्वारा पारित किया जा चुका है कि राज्यों को सामने आ रहे मुद्दों की पहचान करनी है और प्रत्येक राज्य उसकी अद्यतन प्रति अटॉर्नी जनरल को दे।’’

पीठ ने राज्य सरकारों के एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को निर्देश दिया कि वे राज्यों के लिए अजीब महसूस हो रहे मुद्दों की पहचान करें और उन्हें इस अदालत के समक्ष आज से दो सप्ताह के भीतर जमा करें।

न्यायालय ने अधिवक्ताओं को फैसले के हवाले से अधिकतम पांच पन्नों में दो सप्ताह के भीतर लिखित नोट जमा करने को कहा और मामले की सुनवाई पांच अक्टूबर तक स्थगित कर दी।

इससे पहले महाराष्ट्र और अन्य राज्यों ने कहा कि अनारक्षित श्रेणी में पदोन्नति की गई है लेकिन एससी और एसटी कर्मचारियों की आरक्षित श्रेणी में पदोन्नति की मंजूदी नहीं दी गई है।

गौरतलब है कि वर्ष 2018 में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सरकारी नौकरियों में एससी और एसटी की पदोन्नति में आरक्षण देने का रास्ता साफ कर दिया था। न्यायालय ने कहा था कि राज्यों को इन समुदायों के पिछड़ा होने वाले ‘‘मात्रात्मक आंकड़े एकत्र’ करने की जरूरत नहीं है। अदालत ने कहा था कि वर्ष 2006 में एम नागराज मामले में दिए फैसले पर पुनर्विचार की भी जरूरत नहीं है।

भाषा धीरज अनूप

अनूप

 

(इस खबर को IBC24 टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

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