परमहंस श्रीराम बाबाजीः जो हम चाहते हैं वैसा ही हो जाए, बिलकुल होगा, किंतु ऐसे…

परमहंस श्रीराम बाबाजीः जो  हम चाहते हैं वैसा ही हो जाए, बिलकुल होगा, किंतु ऐसे…

Paramhans Shriram babajee

Modified Date: August 4, 2025 / 04:56 pm IST
Published Date: August 4, 2025 4:56 pm IST

परमहंस श्रीराम बाबाजी

(विवेचना- बरुण सखाजी श्रीवास्तव)

जो हम चाहते हैं वैसा ही हो जाए तो हमे लगता है हमारा चाहा पूरा हुआ, लेकिन जो ऊपर वाले ने चाहा था वह क्या था? किसने सोचा था वह सही था, हमने या उसने? दरअसल हम अपनी सहूलियत, जरूरत से इतना ज्यादा बंधे होते हैं कि हमे भगवान पर विश्वास का एक ही जरिया जान पड़ता है, वह है जो हम चाहें वही हो जाए। यहीं से भगवान को लेकर हमारी समझ और सोच पूरी तरह से प्रदूषित होती जाती है। यह जरूरी नहीं कि हम जो चाहें वही हो, क्योंकि यह जरूरी नहीं है कि हम जो चाहते हैं वही सही है। और यह भी जरूरी नही है कि जो सही हमने मान रखा है वही सही है। सही वह भी हो सकता है जो हम नहीं मानते या जानते। सही वह भी हो सकता है जो होता है। इसलिए ज्यादा चाहने और चाहने के जरिए ही ईश्वर के निर्धारण में हमसे गलतियां होती हैं।

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इत्मिनान से सोचिए, परमात्मा ने जिस शिद्दत से आपको बनाया है उतनी ही शिद्दत से उसने एक चींटी को बनाया है। चींटी का शरीर आपकी तुलना में छोटा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवान की नजर में हम बड़े और श्रेष्ठ हुए, चींटी छोटी और निकृष्ट। ईश्वरीय दृष्टि में चींटी और इंसान एक बराबर हैं। इस मान्यता को सिद्ध करने की जरूरत नहीं, क्योंकि आप इसे खाद्य श्रृंखला (फूड चैन) को अच्छी तरह से समझकर जान सकते हैं। अगर ईश्वर ने इंसान को किसी खास ढंग से बनाया होता तो चींटी के लिए भोजन की व्यवस्था, उसके लिए काम निर्धारित, उसके जीवनचक्र का समुचित निर्धारण क्यों करता?

ठीक से समझिए, परमात्मा वही करता है जो सबके लिए सही होता है। हमे अपने सही में ईश्वर के सही नहीं बल्कि ईश्वर के सही में अपने सही को खोजना चाहिए। जैसे कि कहते हैं, जो होता है अच्छे के लिए होता है।

यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि परमहंस श्रीराम बाबाजी अक्सर यही बात कहा करते थे। वे कहते थे यही होना था तो यही हुआ। मतलब इसका यह नहीं कि जो हुआ वह आपके अनुकूल और प्रतिकूल हुआ, बल्कि जो हुआ है वही आपके अनुकूल है। आपके अनुकूल इसलिए, क्योंकि आप एक शरीर में जो इस भौतिक संसार से बंधे और कसे रह सकते हो, लेकिन पारभौतिक सत्ता में आप एक आत्मा हो। वह आत्मा जो इस वक्त इंसान का शरीर धारण किए हुए है, किंतु मूलतः ईश्वरी आदेश के अनुरूप तत्क्षण अन्य किसी शरीर में जा सकती है। कर्मानुकूल, व्यवहारानाकूल आत्मा का देहांतरण चलता रहता है। इसलिए जो हुआ वह उस आत्मा के लिए सही हुआ है भले ही वह जान पड़ता है सही नहीं हुआ। इसी तत्व को समझने की जरूरत है।

परमहंस श्रीराम बाबाजी इस तत्वबोध की बात करते थे, जिसे बड़े-बड़े ज्ञानी भी नहीं समझ सकते। वे उस तत्व को जीते थे और हम सबको जिलाते थे। परमहंस श्रीराम बाबाजी अक्सर कहा करते थे, समझबे की है बा तो.. यानि समझने की है… जो समझ जाए वह तर जाए।

एक दिन परमहंस श्रीराम बाबाजी ने मुझसे कहा, तुम्हे का मिलो हमसे जुड़ कै (तुम्हे क्या मिला हमसे जुड़कर)। मैं इस वाक्य को सुनकर आनंद से भर गया। मेरे भीतर एक सेकंड के करोड़वें हिस्से में यह समझ नहीं विकसित हो पाई कि यह भगवान क्यों पूछ रहे हैं। गुरुवर परमहंस श्रीराम बाबाजी की शरणागति की ओर मन गया। ऐसा लगा ज्यों यह वाक्य उनका प्रश्न नहीं बल्कि मेरे भीतर विराजित अहंकार को पिघलाने की अग्नि था। जैसा कि होता है मन सोचने लगा, क्या मिला, क्या जवाब दिया जाए। यह सब चिंतन एक सेकंड के करोड़वें हिस्से में चल रहा था। मुझे पहली बार अहसास हुआ कि एक सेकंड के करोड़वें हिस्से में भी मानव का मन उतना सोच सकता है जितना वह पूरे जीवन में सोचता है। यानि इसकी क्षमताएं अनंत हैं। मन ने कई सारे आशीर्वादों के फल गिनाने शुरू किए। यह भी मिला, वह भी मिला। प्रभु के आशीर्वाद से बस अच्छी बात ये निकली कि मन ने यह नहीं गिनाया कि भगवान ये और मिल जाता या ये नहीं मिल पाया, दिला दो। इस बीच महाराज जी परमहंस गुरुवर श्रीराम बाबाजी मुस्कुरा रहे थे। उनकी अटपट परीक्षाओं में यह भी एक परीक्षा थी। मन ने कहा, क्या बताऊं क्या मिला, कितना मिला, मुझे तो प्रभु इतना मिला कि बता ही नहीं सकता। सब कुछ तो मिला, किंतु सब कुछ मिला कहना भी बहुत छोटा शब्द लग रहा था, क्योकि जितना मिला है वह बहुत कुछ से भी ऊपर मिला है। ऐसे में क्या बोलता। तब मन ने अपने उसी हिस्से में बताया, जो साक्षात हनुमानजी परमहंस गुरुवर श्रीराम बाबाजी ने प्रेरित किया। मैंने कहा प्रभु क्या मिला, कितना मिला, कैसे मिला, क्या चाहिए था इस सबका हिसाब नहीं है, किंतु एक बात जरूरत है कि मन को आपने मिला और न मिला की थ्योरी से परे कर दिया है। पाया न पाया की कहानी से ऊपर पहुंचा दिया है। ऐसा लगता है मन में अनुकूल और प्रतिकूल की समझ ही खत्म हो गई है। हर चीज अनुकूल लगती है। ऐसा लगता है सारी प्रकृति मेरे लिए अच्छा करने में जुटी है। हर चीज मेरे लिए अच्छी जान पड़ती है। ऐसा लगता रहता है जैसे कोई प्रतिकूलता है ही नहीं। हर दम हर समय, हर घटना, हर चीज ऐसी लगती है जैसे मेरे लिए यही सबसे अच्छी है। कोई बुरी है ही नहीं। यह कहते हुए मन में अंहकार का प्रवेश हुआ। परमहंस गुरुवर महाराजजी मुस्कुराए। मैं उस वक्त नहीं समझ पाया। इस बात के कुछ ही महीनो बाद गुरुदेव ने देह त्याग दी और मेरे कार्यक्षेत्र में प्रतिकूल सी जान पड़ने वाली घटनाएं होने लगी। अब यह परीक्षा थी, एक विद्वान मन और सरस मन के दो धड़ों की। बातें हैं या भीतर कुछ ऐसा घटा है, इसे समझने की। शास्त्र कहते हैं गुरु की नजर बहुत बारीक होती है। भगवान प्रसन्न हो जाते हैं, गलतियों को माफ कर देते हैं, भुला देते हैं, उपेक्षा कर देते हैं, किंतु गुरु अपनी नजर को चेले पर गड़ाकर रखते हैं। गुरु अपने शिष्य को मुक्त नहीं करते। वह उसे युक्त नहीं होने देता। परमहंस श्रीराम बाबाजी ने अंदर से कहा, उस दिन क्या कहा था कुछ अनुकूल और प्रतिकूल लगता नहीं तुम्हें और आज क्या हो रहा है? यह प्रतिकूल लगने लगा। मैं कुतर्क करता रहा, किंतु यह सत्य है, मन ने अपने करोड़वें हिस्से में मुझ से वह वाक्य स्वयं गुरुवर की प्रेरणा से निकलवा तो दिया था, किंतु अभी वह व्यवहार में पका नहीं था। इसलिए ऐसी लीला हुई कि उस दिन के बाद से इस वाक्य का पकना शुरू हुआ।

अब कई बार लगता है कि अभी परीक्षा बाकी है और बहुत बाकी है। कार्यक्षेत्रों में अनुकूलता, प्रतिकूलता तो सहन कर भी ली जाएगी, जीत भी ली जाएगी, किंतु अभी और भी इम्तहान आने बाकी हैं। इसलिए परमहंस गुरुवर श्रीराम बाबाजी की कसौटी पर खरा उतरने का भ्रम अगर पाल लेंगे तो हमसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं। उनकी कसौटी बहुत ऊंची है, उस पर वे ही खरा उतार सकते हैं, हम कितना ही कुछ करने का दंभ भर लें, किंतु सिवाय भ्रम के कुछ नहीं हो सकता।

उस दिन से लगता रहता है हम जो चाहें वही हो जाए तो ही ईश्वर है या कि जो हो रहा है वही हमारे लिए अच्छा है और वह हमारा ईश्वर कर रहा है और हम सिर्फ अपने कर्म कर रहे हैं, मान लेना ही ईश्वर है। परमहंस गुरुवर श्रीराम बाबाजी सदैव इस बात को लेकर स्पष्ट रहे। वे न दुविधा में थे न दावों में। न कोई अंतिरम राय देते थे, न कोई नतीजा। जो होगा वही होना था। इसलिए बेहतर है सच्चे परमहंस श्रीराम बाबाजी के सच्चे सेवक, भगत होने का मतलब है अर्पण, समर्पण और तात्विव ईश्वरीय समझ। यह समझ के धरातल को बहुत ऊंचा कर लेना है, जहां से स्पष्ट ईश्वरी कंपन महसूस होता है। जय हो परमहंस श्रीराम बाबाजी की।

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Associate Executive Editor, IBC24 Digital