अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) के तालिबान (Taliban) के सामने सरेंडर करते ही पूरे भारत में इस बात को ले कर वाद-विवाद होने लगा कि इस पूरे मुद्दे पर भारत का रुख क्या होगा और क्या भारत तालिबान से अपनी सारी गतिविधियां ख़त्म कर सकता है?
बता दें कि तालिबान के कई नेताओं की तरफ से समय-समय पर भारत और कश्मीर को ले कर अलग-अलग बयान दिए गए हैं।
तालिबान कोई देश नहीं बल्कि एक संगठन है। Taliban शब्द पुश्ता भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है “प्रतिभाशाली छात्र”। तालिबान के लड़ाके असल में छात्र हैं जिन्हें पूरी ट्रेनिंग देने के बाद तालिबानी संगठन में शामिल किया जाता है। इन लड़ाकों को पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के मदरसों में स्पेशल ट्रेनिंग दी जाती है।
तालिबान की शुरुआत मुल्लाह उमर ने की थी। तालिबान ने सोवियत अफगानिस्तान को आज़ाद कराने में अहम भूमिका निभाई थी। इसके बाद से अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की गतिविधियां बढ़ गई। इस संगठन को पाकिस्तान और सऊदी अरब से भी मान्यता प्राप्त हो गई थी। तालिबान का लक्ष्य पूरे अफ़ग़ानिस्तान पर अपना शासन स्थापित करना था।
हालांकि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की एंट्री होते ही तालिबान की इस मंशा पर पानी फिर गया। मगर जैसे ही 2020 में अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना हटाने का फैसला लिया, तालिबान एक बार फिर हरकत में आ गया। इस संगठन ने एक-एक कर अफ़ग़ानिस्तान के सारे प्रांतों को अपने कब्ज़े में ले कर समूचे देश में अपनी सरकार स्थापित कर दी। इस दौरान अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी (Ashraf Ghani) और अफ़ग़ानिस्तान की सेना ने लड़े बिना ही हथियार डाल दिए जिसने पूरी दुनिया को अचंभे में डाल दिया।
जहां एक तरफ तालिबान के नेता शेर मोहम्मद अब्बास स्टेनकजई ने अपने एक बयान में कहा कि तालिबान भारत के साथ अपनी राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों को जारी रखना चाहता है, तो वहीं दूसरी तरफ तालिबान के ही प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने अपने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में यह साफ़ ज़ाहिर कर दिया कि “मुसलमानों के रूप में, हमें कश्मीर, भारत या किसी अन्य देश में मुसलमानों के लिए अपनी आवाज उठाने का पूरा अधिकार है।”
शाहीन की यह टिप्पणी तालिबान के वरिष्ठ प्रवक्ता अनस हक्कानी, जो कि आतंकवादी समूह हक्कानी नेटवर्क के एक वरिष्ठ नेता है, के इस हफ्ते की शुरुआत में किए दावे के विपरीत थी। उसने कहा था कि तालिबान की कश्मीर जैसे अन्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने की कोई नीति है, और तालिबान भारत के साथ “सकारात्मक” संबंधों के लिए तत्पर हैं।
स्टेनकजई ने दोहा में भारतीय दूतावास में भारत के राजदूत दीपक मित्तल से भी मुलाकात की थी, जो दोनों पक्षों के बीच यह पहली आधिकारिक रूप से स्वीकृत मुलाकात थी। हालांकि भारत के विदेश मंत्रालय ने यह साफ कर दिया था कि इस मूलकात की पेशकश तालिबान की तरफ से की गई थी।
स्टेनकजई ने मित्तल को यह आश्वासन दिया था कि भारतीय पक्ष द्वारा उठाए गए मुद्दे जिसमें अफगानिस्तान में फंसे भारतीयों की सुरक्षित वापसी शामिल का मुद्दा भी शामिल है, पर सकारात्मकता से विचार किया जाएगा।
भारत ने पिछले साल से कुछ तालिबानी नेताओं के साथ संचार बनाए रखा है। भारत की तालिबान को ले कर मुख्य चिंता अब भी आतंकवाद या भारत विरोधी गतिविधियों के लिए अफगान धरती का उपयोग है। भारत ने अबतक तालिबान पर कोई बैन नहीं लगाया है। भारत नहीं चाहता है कि भू-रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण अफगानिस्तान अपने प्रमुख विरोधियों – चीन और पाकिस्तान का साथ दे।
भारत एक स्थिर और समावेशी अफगानिस्तान चाहता है जो मानवाधिकारों, विशेषकर महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान करता हो। भारत ने चाबहार बंदरगाह में निवेश के अलावा विकास परियोजनाओं में 3 अरब डॉलर से अधिक का निवेश किया है। ऐसे में इस जटिल मुद्दे पर भारत फूँक-फूँक कर कदम रख रहा है।
आने वाले समय में तालिबान के आतंक का गढ़ बनने की पूरी संभावना है। पाकिस्तान और चीन ने इस संगठन को अपना खुला समर्थन दे दिया है। ऐसे में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान का उपयोग आतंक की फैक्ट्री डालने में करेगा जो भारत के लिए नई समस्याएं पैदा कर सकता है। ज़ाहिर तौर पर, भारत ने भी अपना रवैया साफ कर दिया है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन के बीच हुई मुलाकात में दोनों राष्ट्रों ने यह साफ कर दिया कि अफ़गान की मिट्टी का इस्तेमाल आतंकवाद को बढ़ावा देने में नहीं किया जाना चाहिए।
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