(प्रमोद कुमार)
पटना, नौ अप्रैल (भाषा) बिहार में लीची के उत्पादन में सुधार के लिए राज्य सरकार और राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र (एनआरसीएल)बगानी करने वाले किसानों को फल की नयी विकसित किस्मों का उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।
राज्य के कृषि मंत्री कुमार सर्वजीत ने कहा कि भारत में कुल लीची उत्पादन का 43 फीसदी बिहार में होता है और देश में लीची की बागानी का रकबा देश के कुल रकबे का 35 प्रतिशत है।
उन्होंने कहा, “फिलहाल बिहार सरकार और एनआरसीएल (मुजफ्फरपुर) लीची उत्पादन, इसकी गुणवत्ता और भंडारण में सुधार के लिए संयुक्त रूप से पहल कर रहे हैं। जीआई-टैग वाली शाही लीची का उत्पादन बढ़ाने के अलावा, किसानों को फल की नव विकसित किस्मों के उत्पादन के लिए भी प्रोत्साहित किया जा रहा है।’’
बिहार में लीची कि नयी किस्मों – गंडकी योगिता, गंडकी लालिमा और गंडकी संपदा के उत्पादन के प्रयास जारी हैं।
शाही लीची उत्तर बिहार के मुजफ्फरपुर जिले की एक विशेषता है, जिसे कुछ साल पहले ज्योग्राफिकल टैग (जीआई) मिला था। शाही लीची अपनी अनूठी सुगंध, अतिरिक्त रस और सामान्य से छोटी गुठली के कारण एक अलग पहचान रखती है।
आईसीएआर-एनआरसीएल (मुजफ्फरपुर) के निदेशक विकास दास ने ‘पीटीआई-भाषा’ से बातचीत में कहा, ‘‘लीची उत्पादन में मुजफ्फरपुर जिले का योगदान प्रभावशाली है, लेकिन लीची का उत्पादन बढ़ाने की जरूरत है।”
उन्होंने कहा, ‘आईसीएआर-एनआरसीएल के पास फसल सुधार और अनुवांशिक वृद्धि, टिकाऊ उत्पादन प्रौद्योगिकियों के विकास, एकीकृत कीट प्रबंधन प्रणाली, और फसल तैयार होने के बाद प्रबंधन तथा मूल्य संवर्धन के क्षेत्रों में बुनियादी तथा सामरिक अनुसंधान के माध्यम से उत्पादन अंतर (उत्पदन और मांग का अंतर) से निपटने की जिम्मेदारी है।”
अधिकारी ने कहा कि चूंकि लीची ‘नॉन-क्लिमैक्ट्रिक’ फल है, इसलिए इसे लंबे समय तक नहीं रखा जा सकता, लिहाजा कटाई के बाद इसमें 18 से 23 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है।
‘नॉन-क्लिमैक्ट्रिक’ फलों की ऐसी प्रजातियां हैं जो पेड़ में लगे रहने के दौरान ही पकती हैं और पेड़ के तोड़े जाने के बाद उनका पकना बंद हो जाता है। ऐसे में पेड़ों से पके हुए फलों (तैयार) को ही तोड़ा जाता है और इनके जल्दी खराब होने की भी आशंका रहती है।
अधिकारी ने कहा, ‘कटाई के बाद इनका अच्छी तरह प्रबंध करके नुकसान को कम करना अपने आप में एक चुनौती है।”
दास ने कहा कि शाही लीची के उत्पादन में सुधार के लिए किसानों को नयी पद्धति अपनाने में मदद करने के अलावा, एनआरसीएल उन्हें ‘गंडकी योगिता’, ‘गंडकी संपदा’ और ‘गंडकी लालिमा’ सहित लीची की नयी किस्मों का उत्पादन करने के लिए भी प्रोत्साहित कर रहा है।
अधिकारी ने कहा कि आईसीएआर-एनआरसीएल द्वारा विकसित ‘गंडकी संपदा’ लीची देर से पकती है, जो जून के मध्य में तैयार होती है।
निदेशक ने कहा, ‘गंडकी सम्पदा लीची बड़ी (35-42 ग्राम), और शंक्वाकार होती है। गूदा मलाईदार-सफेद, मुलायम, रसदार होता है और खुशबू बेहतरीन होती है। किस्म की उपज क्षमता अच्छी होती है। (लगभग 120-140 किग्रा प्रति पेड़)।’
इसी तरह ‘गंडकी योगिता’, धीमी गति से उगती है, जो गर्मी की लहरों को सहन कर लेती है।
उन्होंने कहा, “इसकी उपज क्षमता (70-80 किग्रा/पेड़) अच्छी है और यह 5 जून से 15 जून तक पक जाती है।’’
निदेशक ने कहा, “जहां तक गंडकी लालिमा किस्म का संबंध है, यह शंक्वाकार होती है। इसका रंग चमकीला गेंदा-नारंगी लाल होता है।”
दास ने कहा, इस किस्म की औसत उपज 130-140 किग्रा/वृक्ष है।
बिहार आर्थिक सर्वेक्षण (2022-23) के अनुसार, 2021-22 में राज्य में लीची का उत्पादन 308.1 मीट्रिक टन रहा, जबकि 2020-21 में यह 308 मीट्रिक टन था।
शाही लीची को 2018 में जीआई टैग मिलने से यह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में ‘विशेष ब्रांड’ बन गई।
मुजफ्फरपुर, वैशाली, समस्तीपुर, चंपारण, बेगूसराय जिले और बिहार के आसपास के क्षेत्रों में इस किस्म के लिए जलवायु अनुकूल है। डाक विभाग ने हाल ही में मुजफ्फरपुर की शाही लीची पर डाक टिकट जारी किया है।
भाषा जोहेब अर्पणा
अर्पणा
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