#Batangad
इतिहास साक्षी है कि कई घटनाएं देश और समाज के लिए टर्निंग पाइंट साबित होती है। कोई घटना चाहे कितनी भी नुकसानदायक हो, हमेशा उसमें कुछ ना कुछ सकारात्मक परिणामों की संभावना छिपी होती है। पहलगाम हमले ने भी जम्मू-कश्मीर के बाशिदों को अपना भविष्य तय करने का मौका दिया है। आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर के बाशिंदों को आज उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से उनके सामने दो रास्ते गुजरते हैं। इन रास्तों पर बढ़ने के लिए उनके पास दो विकल्प हैं। पहला विकल्प आतंकियों के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुए तरक्की और अमन के रास्ते पर बढ़ने का है। दूसरा विकल्प ये है कि वे इस कायराना हमले के खिलाफ हमेशा की तरह मौन साधकर अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवादियों का समर्थन करते हुए उसी बर्बादी को फिर से चुनें जिसके लिए वो ही अबतक जिम्मेदार हैं। अब ये उन पर निर्भर करता है कि वे इन दो विकल्पों में से किसे चुनकर आगे का सफर तय करते हैं।
पहलगाम हमले के बाद जम्मू-कश्मीर के बाशिंदों और वहां के राजनीतिक दलों की ओर से मिली शुरुआती प्रतिक्रिया ये विश्वास जगाती हैं कि यहां के लोगों ने अब आतंकवाद के खिलाफ आवाज उठाने की मानसिकता बना ली है। पहलगाम जहां हमला हुआ वहां के लोगों ने हमले की शाम ही केंडल मार्च निकालकर आतंकवाद और पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाकर अपना विरोध जताया। हमले के अगले दिन जम्मू कश्मीर के सामाजिक और व्यापारिक संगठनों ने प्रदेशव्यापी बंद रखा जिसे नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी समेत मुख्यधारा की बाकी पार्टियों ने भी अपना समर्थन दिया। अब देखना ये है कि ये वाकई आतंकवाद के खिलाफ अभिव्यक्त की गई स्वस्फूर्त भावना है या फिर महज रस्म अदायगी? क्योंकि इसी सवाल के इमानदार जवाब पर ही जम्मू-कश्मीर का भविष्य छिपा है।
धारा 370 के खात्मे और निर्वाचित सरकार के कामकाज संभालने के बाद जम्मू-कश्मीर में हालात काफी बदले हैं। आतंकवाद की कालिमा में लिपटे जम्मू-कश्मीर में शांति और विकास की नई रोशनी नजर आई है। भारत का स्विटजरलैंड माने जाने वाले कश्मीर में पर्यटकों की आवाजाही बढ़ने से पर्यटन पर आधारित इस राज्य के लोगों की कमाई में काफी इजाफा हुआ है। वर्ष 2023 में जम्मू और कश्मीर में 2 करोड़ 11 लाख पर्यटक पहुंचे थे। यह संख्या वर्ष 2024 में बढ़कर 2 करोड़ 36 लाख पहुंच गई, जो एक रिकॉर्ड है। कश्मीर का सालाना पर्यटन उद्योग 12,000 करोड़ रुपये का है जिसके साल 2030 तक बढ़कर 30,000 करोड़ रुपये तक हो जाने का अनुमान था।
वहीं भारत सरकार की ओर से जम्मू-कश्मीर के विकास के लिए चलाई जा रही तमाम कल्याणकारी योजनाओं और आधारभूत विकास के लिए पानी की तरह बहाए गए पैसों की वजह से जम्मू-कश्मीर में बुनियादी बदलाव आया है। पिछले दस सालों में केंद्र सरकार 6 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा रकम कश्मीरियों की जिंदगी सुधारने पर खर्च कर चुकी है। अकेले पर्यटन की बात करें तो केंद्र ने कश्मीर में पर्यटन को बढ़ावा देने के मकसद से बेहतर इंफ्रा के लिए 1000 करोड़ रुपये का बजट रखा है।
आतंकवाद के साये से निकलने के बाद जम्मू-कश्मीर में आए बदलाव ने यहां के लोगों को भी आभास कराया कि पाक परस्त इस्लामिक आतंकवाद की बजाए भारत सरकार की मंशा के मुताबिक चलने में ही भलाई है। इन सकारात्मक बदलावों को अपनी उपलब्धि बताते हुए भारत सरकार ना केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी अपने पक्ष में वाहवाही जुटाई। जाहिर तौर पर जम्मू-कश्मीर में आया ये सकारात्मक बदलाव पाकिस्तान को रास नहीं आना था। जम्मू-कश्मीर में बही बदलाव की इस बयार ने पाकिस्तान की उस थ्योरी को ही ध्वस्त कर दिया जिसकी बदौलत वो अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जम्मू-कश्मीर का मुद्दा उठाता रहता है। जम्मू-कश्मीर में नजर आई इस नई खुशहाली ने पाकिस्तान के उस प्रोपोगेंडा को नेस्तनाबूद कर दिया जिसके जरिए वो भारत सरकार पर जम्मू-कश्मीर के बाशिंदों के ऊपर ज्यादती करने की तोहमत लगाकर दुनिया को बरगलाता था।
पाकिस्तान जानता है कि फिर से आतंकवाद के दौर में झोके बिना वो जम्मू-कश्मीर को अशांत नहीं कर सकता। इसीलिए उसने इस बार जम्मू-कश्मीर की लाइफ लाइन यानी पर्यटकों पर ही हमला करने की साजिश रच डाली। ये पहली बार हुआ जब पर्यटकों को मौत के घाट उतारा गया, और वो भी उनका धर्म पूछकर। चुन-चुन कर हिंदुओं को गोलियों से भून दिया गया। इस शातिराना करतूत के पीछे पाकिस्तान की दोहरी मंशा बिल्कुल साफ है-पहला जम्मू-कश्मीर की प्राणवायु यानी पर्यटकों को यहां आने से रोकना और दूसरा हत्या को धार्मिक रंग देकर देशभर में दंगा-फसाद की पृष्ठभूमि तैयार करना।
फिलहाल पाकिस्तान तो अपनी पहली मंशा में सफल होता दिख भी रहा है। पर्यटकों पर हुए इस आतंकी हमले के बाद अब शायद ही कोई समझदार आदमी तफरीह के लिए जम्मू-कश्मीर जाने की सोचे। ऐसा इसके पहले भी हो चुका है। 13 फरवरी 2019 को पुलवामा में सुरक्षा बल के 40 जवानों की शहादत के बाद पहली छमाही में कश्मीर में केवल 3 लाख 54 हजार पर्यटक आए थे, जबकि 2016 में यह संख्या 13 लाख थी। इस गिरावट का मुख्य कारण सुरक्षा को लेकर चिंता और ट्रैवल एडवाइजरी थी। और पहलगाम में तो पर्यटक ही टारगेट पर रहे हैं तो फिलहाल पर्यटन उद्योग का मटियामेट हो जाना तय है।
लेकिन पाकिस्तान की दूसरी कुमंशा को नाकामयाब बनाने की जिम्मेदारी अब देश से ज्यादा जम्मू-कश्मीर के मुस्लिम बाशिंदों पर आ गई है। अब ये उन पर है कि वे अपनी आवाज बुलंद करते हुए पाकिस्तान के खिलाफ सड़कों पर उतरने की हिम्मत और समझदारी दिखाते हैं या फिर अपने उसी रवैये का मुजाहिरा करते हैं जिसके लिए वे बदनाम हैं। इस बार मामला कश्मीरियों के आर्थिक स्वार्थ से भी जुड़ा है। ये बात कश्मीरियों को भी पता है कि उनकी रोजी-रोटी पर्यटन के भरोसे है। तो स्वार्थ और मजबूरी के चलते ही सही, देश के साथ खड़ा होने में ही उनकी समझदारी है। कश्मीरी अगर ऐसा कर सके तो ये पहल ना केवल वैश्विक मंच में भारत का पक्ष मजबूत करेगी बल्कि पाकिस्तान के प्रोपेगेंडा की भी पोल खोलने में मददगार साबित होगी।
लेकिन एक उल्टा सवाल ये उठता है कि अगर कश्मीरियों ने इस बार भी वतन से पहले कौम को तरजीह दी तो फिर सरकार को क्या रुख अख्तियार करना चाहिए? इस सवाल का जवाब सोशल मीडिया के जरिए सामने आ रही लोगों की प्रतिक्रिया में साफ पढ़ा जा सकता है। एक बड़ा वर्ग इस बात को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोस रहा है कि जिनका विश्वास जीतने के लिए वे देशवासियों की टैक्स की रकम को अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं के नाम पर फूंक रहे हैं, बदले में उनसे सिवाए बेवफाई के क्या मिला है? हम को उनसे वफ़ा की है उम्मीद, जो नहीं जानते वफ़ा क्या है। इसी वादाखिलाफी से खिन्न होकर सोशल मीडिया में हिंदुओं से जम्मू-कश्मीर का बहिष्कार करने की अपील की जाने लगी है। कोई पीठ पर वार करे तो उसके पेट पर लात मारने की नीति पर चलने की समझाइश दी जा रही है।
कुल मिलाकर कश्मीर के लिए आने वाले दिन सरकार के ‘मिजाज’ के लिहाज से काफी अहम साबित होने वाले हैं।