#NindakNiyre: छत्तीसगढ़ में अजब योग, अब तक कोई भी नेता प्रतिपक्ष नहीं बना पाया मुख्यमंत्री, देखिए पूरा विश्लेषण |

#NindakNiyre: छत्तीसगढ़ में अजब योग, अब तक कोई भी नेता प्रतिपक्ष नहीं बना पाया मुख्यमंत्री, देखिए पूरा विश्लेषण

Edited By :   Modified Date:  May 4, 2023 / 04:34 PM IST, Published Date : May 4, 2023/4:31 pm IST

Barun Sakhajee

Barun Sakhajee, Associate Executive Editor

बरुण सखाजी. सह-कार्यकारी संपादक (IBC-24)

23 साल के हो चुके छत्तीसगढ़ में अब तक 6 नेताप्रतिपक्ष, 3 मुख्यमंत्री हो चुके हैं। छत्तीसगढ़ में इस साल छठवीं विधानसभा के लिए चुनाव होंगे। दो बड़ी पार्टियों के इर्द-गिर्द घूमती प्रदेश की सियासत में दोनों ही पार्टियों के बराबर 3-3 नेताप्रतिपक्ष बन चुके हैं। लेकिन ट्विस्ट ये है कि इनमें से कोई भी अभी तक मुख्यमंत्री नहीं बना है। जब पार्टियां चुनाव जीतती हैं तो मुख्यमंत्री कोई और ही बन जाता है। इसका ऐसा कोई राजनीतिक कारण तो नहीं है, लेकिन यह फैक्ट बड़ा रोचक है। इसका नतीजा ये होता है कि छत्तीसगढ़ में नेता प्रतिपक्ष हो जाना अपनी पार्टी का सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री होने की गारंटी नहीं हो जाता। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि अविभाजित मध्यप्रदेश में शुरुआती दौर में यह परंपरा बरकरार रही थी, लेकिन वहां भी 2004 में आखिरी बार दिग्विजय सरकार के समय नेताप्रतिपक्ष रहे बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री बने थे, इसके बाद कोई नेता प्रतिपक्ष सीएम नहीं बना। इस वक्त कमलनाथ जरूर नेता प्रतिपक्ष हैं, लेकिन वे मुख्यमंत्री बनने के बाद नेता प्रतिपक्ष बने हैं।

नंदकुमार साय बने नेता प्रतिपक्ष, लेकिन सीएम नहीं बन सके

राज्य निर्माण के समय 1998 की अविभाजित मध्यप्रदेश की विधानसभा विरासत में मिली थी। उस समय कांग्रेस की दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली सरकार थी और नेता प्रतिपक्ष का दायित्व विक्रम वर्मा से छीनकर भाजपा के ही गौरशंकर शेजवार को दिया गया था। जब साल 2000 में राज्य बना तो छत्तीसगढ़ में भी 62 से अधिक सीटों के साथ सत्ता कांग्रेस के हाथ आई। पहले मुख्यमंत्री बने अजीत जोगी। भाजपा ने अपनी ओर से नेता प्रतिपक्ष का जिम्मा सौंपा आदिवासी नेता नंदकुमार साय को सौंपा। नेता प्रतिपक्ष की दौड़ में पटवा सरकार में मंत्री रह चुके बृजमोहन अग्रवाल भी थे। बाकी किस्सा आपको पता ही होगा, फिर भी दोहरा देता हूं। नेता प्रतिपक्ष चुनने की जिम्मेदारी थी नरेंद्र मोदी के पास। अग्रवाल ने बगावत कर दी। मोदी को टेबल के नीचे घुसकर बचना पड़ा। फैसला हुआ अग्रवाल को तो भाजपा कतई नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाएगी। नंदकुमार साय ही यहां का नेतृत्व करेंगे। अब नंदकुमार साय मजबूत विपक्ष के रूप में उभर रहे थे, लेकिन तभी हिंदूवादी भाजपा का ध्यान जशपुर के महाराजा दिलीप सिंह जूदेव पर गया। जूदेव जशपुर में बड़े पैमाने पर घर वापसी आंदोलन चला रहे थे। झारखंड-जशपुर क्षेत्र में बड़ी संख्या में धर्मांतरण हो रहा था। जूदेव जनजातिय समाज के चरण धुलाकर हिंदू धर्म में वापसी करवाते थे। भाजपा उस वक्त 2004 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भी ऐसे किसी फैक्टर की तलाश में थी। चूंकि दो साल पहले ही अयोध्या में रामजन्म भूमि आंदोलन से जुड़े परमहंस जी ने शिलादान कार्यक्रम करके राममंदिर मुद्दे को ताजा कर दिया था। भाजपा ने आदिवासी नेता नंदकुमार साय से फोकस हटाकर जूदेव पर रख दिया। जूदेव उभरने लगे। 2003 के चुनाव में मुख्यमंत्री के चेहरा भी बन गए। तभी एक ऑडियो वायरल हो गया, जिसमें जूदेव रिश्वत लेने की बात कह रहे हैं। यह राजनीतिक मुद्दा बन निकला। राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं, जूदेव मुख्यमंत्री पद से चूक गए। नंदकुमार साय भी चूके और भाग्य की सुई तबके प्रदेश अध्यक्ष डॉ. रमन सिंह पर आ टिकी। फिर क्या था, रमन सिंह ने 2003 से 2018 तक निष्कंटक राज किया। साय फिर केंद्र की राजनीति में शिफ्ट हो गए। अनेक बार सांसद रह चुके साय का कद इतना बड़ा था कि राज्य के नेता उनकी प्रदेश में मौजूदगी से भी भय खाते थे।

बस्तर टाइगर, जिन पर आरोप लगे 13वें मंत्री के

दंतेवाड़ा से ताल्लुक रखने वाले महेंद्र कर्मा तेजतर्रार आदिवासी नेता थे। अपनी बेबाकी और बेधड़कपन के लिए मशहूर कर्मा डॉ. रमन की पहली पारी में नेता प्रतिपक्ष बनाए गए। जोर-शोर से सरकार की खिलाफत। तबकी दरकी कांग्रेस के दो-दो कार्यकारी अध्यक्षों के बीच वे पिसते हुए भी करते रहे। 2006 में जब सलवा जुडूम ने जोर पकड़ा तो कर्मा ने इसका समर्थन कर दिया। यह सरकार का प्रश्रय प्राप्त आंदोलन था। इसमें आदिवासी युवकों को आत्मरक्षा के लिए बंदूके दी गई थी। नक्सलियों के विरुद्ध लड़ने के लिए उन्हों स्पेशल कैडेट का दर्जा दिया गया था। कांग्रेस सलवा जुडूम से असहमत थी। लेकिन कर्मा ने पार्टी की राय से इतर अपनी राय रखी। सरकार को इस मसले पर पूरा समर्थन दिया। इससे उनकी छवि सरकार के 13वें मंत्री की बन गई। 13वां मंत्री यानि छत्तीसगढ़ में कुल विधानसभा के 15 फीसदी विधायक ही मंत्री बनाए जा सकते हैं। यानि 12 मंत्री और एक मुख्यमंत्री। कर्मा के समर्थन का आशय निकाला गया कि वे 13वें मंत्री हैं। इसी बीच नंदकुमार साय ने सलवा जुडूम की खिलाफत कर दी। यानि पूर्व नेता प्रतिपक्ष साय सरकार के खिलाफ थे तो वर्तमान नेता प्रतिपक्ष कर्मा सरकार के समर्थन में। नतीजा ये हुआ कि 2008 में कर्मा दंतेवाड़ा से हार गए। सिर्फ हारे ही नहीं बल्कि अपनी सीट से तीसरे नंबर पर पहुंच गए। कर्मा तब चूके तो फिर कभी नहीं मिल पाया दायित्व।

कांग्रेस ने जातिय समीकरणों को दरकिनार कर चौबे को दी कमान

2008 में भाजपा की जीत हुई। अब नेता प्रतिपक्ष की दौड़ में तमाम नेताओं को पछाड़ते हुए रविंद्र चौबे को ताज मिला। रविंद्र चौबे साजा विधानसभा से भाजपा के लाभचंद बाफना को हराकर आए थे। छत्तीसगढ़ के राजनीतिक समीकरणों में उस समय अजीत जोगी की एससी केंद्रित राजनीति का जोर था। कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष के रूप में दो ओबीसी नेता चरणदास महंत और धनेंद्र साहू को कमान दी गई थी। इनमें एक ब्राह्मण नेता सत्यनारायण शर्मा भी थे। लेकिन इन सब कैल्कुलेशन को दरकिनार करते हुए चौबे नेता प्रतिपक्ष बने। चौबे 2013 में बाफना के हाथों चुनाव हार गए। अब छवि यह बनने लगी कि जो भी नेता प्रतिपक्ष होता है वह चुनाव हारता है और मुख्यमंत्री भी नहीं बन पाता।

टीएस की खिली बांछें, बने नेता प्रतिपक्ष, उम्मीद थी रिकॉर्ड टूटेगा

2013 चुनाव से 8 महीने पहले झीरम हादसे ने 31 कांग्रेस नेताओं को काल कवलित कर लिया। इसमें दिग्गज नेता नंदकुमार पटेल, वीसी शुक्ला, महेंद्र कर्मा जैसे दिग्गज शामिल थे। कांग्रेस में लीडरशिप का अकाल आ गया। हालांकि पार्टी विधानसभा में जीत से चूक गई। जनता ने दी विपक्ष की जिम्मेदारी। इस वैक्यूम के बाद अजीत जोगी फिर से पार्टी पर अपनी पकड़ चाहते थे। इनके विरोध में खड़े हुए टीएस सिंहदेव, भूपेश बघेल, चरणदास महंत, ताम्रध्वज साहू। विधानसभा में हार और झीरम कांड का फायदा नहीं मिलने का ठीकरा फोड़ा गया अजीत जोगी पर। कांग्रेस आला कमान की नेता प्रतिपक्ष के रूप में पसंद बने टीएस सिंहदेव। उनके समर्थकों ने उनमें भावी मुख्यमंत्री देखना शुरू कर दिया। इसके कुछ ही महीनों बाद लोकसभा में ताम्रध्वज साहू ने प्रदेश से इकलौती सीट उस वक्त कांग्रेस के खाते में डाल दी, जब देशभर में मोदी की लहर थी और केंद्र में 30 साल बाद पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी। इससे साहू का कद बढ़ा। तभी-कभी अंतागढ़ में हुए उपचुनाव में मंतूराम पवार ने कांग्रेस के बीफॉर्म के साथ भाजपा में प्रवेश कर लिया। अंतगढ़ में भारी अंतर्विरोध से जूझ रही कांग्रेस को यह बड़ा झटका था। इसी समय कथित तौर पर जोगी और डॉ. रमन सिंह के दामाद डॉ. पुनीत गुप्ता के बीच बातचीत का ऑडियो वायरल हो गया। इसे लेकर पीसीसी के रूप में बघेल ने जोगी की खुली खिलाफत कर दी। अबकी जोगी को बड़ा झटका लगा। बघेल के सामने जोगी अंततः ढेर हो गए। सिंहदेव नेता प्रतिपक्ष के रूप में आशान्वित थे, लेकिन राजनीति को बेहद पेशवराना ढंग से करने वाले बघेल ने अपनी मेहनत चौगुना बढ़ा दी। सिंहदेव सिमटने लगे। इसी बीच आ गए 2018 के चुनाव। इससे पहे 2016 में जोगी अपनी पार्टी बनाकर कांग्रेस हराऊ पार्टी के रूप में ताल ठोकने को तैयार थे ही। 2018 में बघेल जीत गए। मुख्यमंत्री की दौड़-भाग शुरू हुई। कभी सिंहदेव तो कभी बघेल बढ़त बनाते। इस बीच ताम्रध्वज साहू भी दौड़ रहे थे। चूंकि उन्हें इस बार दुर्ग लोकसभा की बजाए दुर्ग विधानसभा से उतारा गया था। अंततः बघेल मुख्यमंत्री बने और सिंहदेव चूक गए। राजनीति पंडितों ने आशय निकाला कि सिंहदेव प्रदेश के चौथे नेता प्रतिपक्ष थे। और नेता प्रतिपक्षों के साथ यह योग जुड़ा हुआ है कि वे कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाते।

अब देखेंगे चंदेल और कौशिक का क्या होगा

भाजपा ने 2018 में धरमलाल कौशिक को नेता प्रतिपक्ष बनाया, क्योंकि वे कांग्रेस की आंधी में सबसे ज्यादा वोटों से जीतने वाले विधायक थे। 2022 तक आते-आते उन्हें 2018 की हार का जिम्मेदार माना गया। अब नए नेता प्रतिपक्ष नारायण चंदेल हैं। जांजगीर से आते हैं। ओबीसी से ताल्लुक रखते हैं। देखेंगे अब इन दो नेता प्रतिपक्षों का क्या होता है।

राजनीति में मिथक, संयोग और भाग्य तीनों खूब चलते हैं। छत्तीसगढ़ में कोई भी नेता प्रतिपक्ष अब तक मुख्यमंत्री नहीं बना है। राजनीति में कोई भी बात स्थायी नहीं रहती। मैं आपको अगले वीडियो में बताऊंगा मध्यप्रदेश में कितने नेता प्रतिपक्ष हुए और कितने मुख्यमंत्री तक पहुंच पाए। पूरा किस्सा मेरे यानि बरुण सखाजी के साथ, देखना न भूलिए अगले वीडियो में। नमस्कार।

 
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