Paramhans Shriram Babajee Spiritual Talk: हानि, लाभ, जीवन, मरण, जस, अपजस विधि हाथ की आंतरिक संरचना
परमहंस श्रीराम बाबाजी
व्याख्याकार- बरुण सखाजी श्रीवास्तव
परमहंस श्रीराम बाबाजी अक्सर कहा करते थे हानि, लाभ, जीवन, मरण, जस, अपजस विधि हाथ। यह सुनकर हमे लगता है ऐसा सोचना किसी साधु का ही काम हो सकता है, लेकिन महाराज जी श्रीराम बाबाजी यह ग्रहस्थों के लिए कहा करते थे। वे इसे सिर्फ साधुओं, सन्यासियों का साधन नहीं मानते। वास्तव में भी यह बात सच है। सन्यासियों, साधुओं, ईश्वर के मार्ग पर संसार त्यागियों के लिए तो ऐसे अनेक उपवास हैं, किंतु ग्रहस्थों के लिए सीमित उपवास हैं। अगर ग्रहस्थ इसे आत्मसात करें तो दुखी कम होंगे, क्योंकि ग्रहस्थों के साथ अपेक्षाएं, आग्रह, प्रीति, घृणा, आशा, निराशा अभिन्नता से चिपकी रहती है।
ग्रहस्थों के मन-मानस में यह गहरे बैठा होता है कि वे पेट पालने के आधार पर कुछ पाप करने के लिए स्वतंत्र हैं। किंतु यह सत्य नहीं है। ईश्वरीय विधान सबके लिए एक से तो नहीं होते, लेकिन मूलभूत में एक जैसे ही हैं। जैसे कि एक व्यक्ति जो ज्यादा सोच सकता है, पाप-पुण्य को ज्यादा समझ सकता है, उसे दोष ज्यादा है, किंतु जो नहीं समझ सकता है उसे कम नहीं है, बल्कि उसकी तुलना में कम है। बस इसी फर्क को समझने की जरूरत है।
अपने लाभ की इच्छा दूसरों की हानि बनती ही बनती है…
हानि-लाभ को लेकर स्पष्टता रहती है। यह हमे स्वार्थी बनाता है। लाभ की इच्छा में हानि का शिकार हो जाते हैं। क्योंकि हमे हानि चाहिए ही नहीं होती। हम अपने लाभ पर इतने केंद्रित हो जाते हैं कि यह किसी दूसरे की हानि बन जाता है। ऐसे में सिर्फ हमारा लाभ कैसे हो सकता है। ईश्वर ने तो उन्हें भी बनाया है जिनका लाभ हम नहीं चाहते। इस अंधी दौड़ में हमारे अंदर अवगुणों का अंबार लग जाता है। हम सिर्फ लाभ के लालची बनकर रह जाते हैं।
होनी होती है अनहोनी नहीं…
जीवन-मरण में हमारी दिलचस्पी जीवन में होती है। मरण को स्वीकारते नहीं। कोई अपना दुनिया से चला जाए तो ऐसे रोते हैं जैसे कोई अनहोनी हो गई। मजे की बात है कि हमने होनी में एक अनहोनी भी जोड़ रखा है। होनी थी होकर रहेगी। अनहोनी हो गई। मतलब क्या जो होना था वह नहीं होना था। यह भूल जाते हैं जो होना था वही होना था वही हुआ, कुछ भी ऐसा नहीं हुआ जो नहीं होना था, क्योंकि जो नहीं होना था वह होना ही नहीं था तब अनहोनी कहां हुई। मरने से डरते-डरते जीना भी भूल जाते हैं। हर पल स्वास्थ से लेकर संसार तक चिपककर रह जाते हैं। जब कोई आपदा आती है तो हम मरने के समान डर जाते हैं।
सम्मान का सौदा एक दिन अपमान देगा…
अगर हम चाहें कि हमे खूब सम्मान मिले, प्रतिष्ठा मिले तो मिल जाती है क्या? कई बार मिल भी जाती है और अनेक बार नहीं मिलती। जितनी मिलती है हमे लगता है उससे भी ज्यादा मिलनी चाहिए, इसलिए इसकी भूख बढ़ती जाती है। जब यह अनंत होती जाती है तो फिर जो सम्मान पहले मिलता था उसकी उस मात्रा से तुष्टि नहीं मिल पाती। यहीं से आरंभ होता है आंतरिक पतन। हर वक्त तृष्णा, आशा, अपेक्षा तांडव करती रहती हैं। यश की चाह अपजस का भय यही बना रहता है। यहीं से हमे सिर्फ अपना सम्मान चाहते हैं। यह इतना मजबूती से दिमाग में बैठ जाता है कि अगर कोई हमे अपमानित न करे लेकिन सम्मान भी न दे तो हम इसे अपमान मान लेते हैं। फिर हम अख्तियार करते हैं दूसरों को नकली सम्मान देने का क्रम। यह एक सौदा बनकर रह जाता है। इसमें अहंकार समाहित रहता है। सम्मान का सौदा अंत में अपमान ही देता है।
अपेक्षामुक्त कर्म ही शुद्ध हैं शेष व्यर्थ श्रम
हानि-लाभ, जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ इसलिए कहा गया है ताकि हम अपने कर्म को इन अपेक्षाओं से मुक्त रख पाएं। परमहंस गुरुवर श्रीराम बाबाजी कहते हैं हानि-लाभ, जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ। यानि इसे पूरी तरह से समर्पित कर देना चाहिए। हानि-लाभ में फंसे तो लालची बन जाएंगे। जीवन-मरण में फंसे तो डरपोंक बन जाएंगे। जस-अपजस में फंसे तो आग्रही बन जाएंगे। वही होना चाहिए जो हम चाहते हैं, वह नहीं होना चाहिए जो हम नहीं चाहते। यही कट्टर आग्रह होता है। जब हम सब समर्पित करके करते हैं तो परिणाम हमे सता नहीं पाते। हमने सोच लिया जो होगा वही होगा, यह लाभ भी है और हानि भी, यह जीवन भी है मरण भी, यह जयकार भी है और अपकार भी। दोनो ही ईश्वरीय वरदान हैं। यही बात गीता में अलग तरीके से कही जाती है। यही बात परमहंस गुरुवर चैतन्य हनुमानजी श्रीराम बाबाजी कहा करते थे। अर्थात अपेक्षामुक्त कर्म ही शुद्ध हैं शेष व्यर्थ का श्रम है।

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