सत्ते पे सत्ता | Power over satte

सत्ते पे सत्ता

सत्ते पे सत्ता

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 06:48 AM IST, Published Date : November 3, 2020/9:55 am IST

दुक्की पे दुक्की हो या सत्ते पे सत्ता
गौर से देखा जाए तो है बस पत्ते पर पत्ता
कोई फर्क नहीं अलबत्ता…

ज्योतिरादित्य सिंधिया हो या दिग्विजय सिंह दोनों राज्यसभा का सिंहासन नहीं छोड़ना चाहते थे । वहीं शिवराज हों या कमलनाथ सत्ता के लिए हर पत्ता फेंकने को तैयार हैं, दांव पर द्रोपदी ही क्यों ना हो, “राज सिंहासन”  से कम किसी को मंजूर नहीं ।

मध्यप्रदेश में 28 सीटों पर उपचुनाव हो रहा है। एक सीट और खाली हो गई है। जिस पर आने वाले समय में चुनाव होगा। मध्यप्रदेश में साल 2018 में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में 230 सीटों में कांग्रेस 114 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी, हालांकि बहुमत के जादुई आंकड़े से दो कदम पीछे रह गई। ठीक वैसे ही जैसे अटल बिहारी वाजपेई सरकार सदन में बहुमत सिद्ध करते समय एक वोट से अपनी सरकार गंवा बैठी थी।
पंद्रह सालों के अधिक समय से मध्यप्रदेश की सत्ता पर काबिज भाजपा को कांटे की टक्कर के बीच 109 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। इसके अलावा बसपा को 2, सपा को 1 और 4 पर निर्दलीय उम्मीदवार को जीत मिली थी ।

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2018 के विधानसभा चुनाव मध्यप्रदेश में कांग्रेस की एकता के लिए भी जाना जाएगा। यही वो चुनाव था जहां प्रदेश की राजनीति के तीन छत्रप अपना अहंकार और “मैं बड़ा” को पीछे छोड़कर एक साथ एक मंच पर आ गए थे। हालांकि ये भी सच है कि उस समय सत्ता तक पहुंच दूर की कौड़ी मानी जा रही थी। साल 2018 में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, हालांकि बीजेपी कुल जमा पांच कदम पीछे खड़ी थी, और जिस तरह की राजनीति मोदी और शाह करते हैं, ये पांच कदम उस राह की गिनती में भी नहीं आते। इस बीच कांग्रेस ने बहुमत के लिए जोड़-तंगोड़ कर लिया, कांग्रेस को बसपा और सपा ने अपनी-अपनी अंगुली पकड़ा दी थी, मध्यप्रदेश में कांग्रस की सत्ता तय हो गई थी। वहीं सीएम की रेस में सबसे आगे चल रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया के नाम पर पार्टी में सहमति बनती नहीं दिख रही थी। कमलनाथ और दिग्विजय की जोड़ी ने सिंधिया की कुर्सी से अपना-अपना पाया निकाल लिया था, राष्ट्रीय नेतृत्व के दखल देने के बाद आखिरकार कमलनाथ छिंदवाड़ा से निकलकर प्रदेश के मुखिया बन गए।

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सिंधिया को मीरा की तरह विष का प्याला मिला, जिसे उन्होंने नीलकंठ की तरह गले में रखा, गटका नहीं। आखिरकार 11 मार्च 2020 का वो दिन आ गया जब कोरोना की वजह से लोग एक दूसरे का हाथ मिलाने से बच रहे थे, तो सिंधिया ने भी अपना हाथ कांग्रेस से छुड़ा लिया। कांग्रेस आलाकमान सिंधिया को मनाने की कवायद करते रहे लेकिन इससे पहले उन्हें आधुनिक राजनीति के चाणक्य ने अपना वशीभूत कर लिया था। सिंधिया के रुठते ही कांग्रेस सरकार में 6 मंत्रियों समेत 22 विधायकों ने सरकार की कुर्सी के नीचे से कालीन खींच ली। लड़खड़ाती कुर्सी को बचाने दिग्विजय सिंह बेंगलुरु पहुंचे, लेकिन उनके अपनों ने ही उन्हें बेआबरु कर लौटा दिया। लोकतंत्र की गाड़ी बहुमत के पेट्रोल से ही चलती है, वहीं कमलनाथ तो अपना रिजर्व तेल भी उपयोग कर चुके थे।
बहरहाल अपने आसापास घास-पूंस ना उगने देने वाले शिवराज एक बार फिर मध्यप्रदेश की सत्ता पर अंगद की तरह जम गए। वहीं ये उपचुनाव तय करेंगे कि कमलनाथ प्रदेश में रहेंगे या अब दिल्ली भी उनसे दूर हो जाएगी।

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दरअसल कमलनाथ प्रदेश में एक निर्विवाद चेहरा रहा है। उनके सीएम बनने से प्रदेश की जनता भी संतुष्ट थी। लेकिन युवा और अनुभवी में से किसी एक को चुनने में वो गच्चा खा गए । दरअसल मध्यप्रदेश कांग्रेस के नेता ये मानने को तैयार नहीं है कि ‘राजा साहब’ पार्टी के लिए भस्मासुर हैं। वो जहां खडे़ हो जाते हैं, वहां गढ़्डा हो जाता है।

मध्यप्रदेश में कांग्रेस के लिए उपचुनाव नॉकआउट हैं, वहीं सत्ता पर काबिज कमल के आसपास नए भंवरे मंडरा रहे हैं। बहरहाल दिल को बहलाने के लिए 10 नवंबर का ख्याल अच्छा है।