अयोध्या से होकर जाएगा लखनऊ का रास्ता !

अयोध्या से होकर जाएगा लखनऊ का रास्ता !

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  • Publish Date - June 17, 2021 / 12:05 PM IST,
    Updated On - November 29, 2022 / 06:23 AM IST

अयोध्या से होकर जाएगा लखनऊ का रास्ता

अंधा क्या चाहे, दो आंख। भाजपा को उत्तरप्रदेश चुनाव से पहले राम मंदिर मुद्दे के रूप में आंख मिल चुकी है। कोरोना त्रासदी से निबट पाने की कथित नाकामी, किसान आंदोलन से निर्मित सियासी चुनौती और सरकार-संगठन के बीच चल रही खींचतान के चलते भाजपा को अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की राह कठिन नजर आ रही थी। लेकिन राममंदिर ट्रस्ट पर जमीन खरीदी घोटाले का आरोप लगाकर विपक्ष ने जैसे भाजपा की इच्छित अभिलाषा पूरी कर दी।

विपक्ष ने खुद बैल को आमंत्रण दिया है कि आ मुझे मार। वरना आसन्न चुनाव से पहले छवि संकट की चुनौती की वजह से बैकफुट पर खेल रही भाजपा को उसकी पसंदीदा लाइन लेंथ की गेंद डालने की नासमझी विपक्ष क्यों करता? वो भी बैटिंग के लिए भाजपा की सवर्था अनकूल पिच पर।

उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की असली चुनौती अपने 39.7 फीसदी वोट बैंक को साधे रखने की है। अपने मतदाता वर्ग को ‘हिंदू’ के तौर पर एकजुट करने के लिए भाजपा को ध्रुवीकरण के जिस एक उत्प्रेरक की तलाश थी, वो विपक्ष ने उसे उपलब्ध करा दिया है। अलग-अलग कारणों से बिखर रहे अपने समर्थकों की लामबंदी हेतु भाजपा को राममंदिर से ज्यादा परिणामकारक दूसरा मुद्दा भला क्या मिल सकता था?

हाथ कंगन को आरसी क्या। जमीन खरीदी सौदे से जुड़े व्यवहारिक और सैद्धांतिक पहलुओं को सामने रखकर भाजपा अपने समर्थक वर्ग को ये विश्वास दिलाने में सफल रही है कि मौजूदा प्रचलित रेट से भी कम कीमत में जमीन खरीद कर राममंदिर ट्रस्ट ने कोई घोटाला नहीं किया है। आरोपों पर दिए गए स्पष्टीकरण पर जिन्हें भरोसा करना है वो कर लेंगे और जिन्हें नहीं करना है उन्हें वास्तव में करना है भी नहीं।

दरअसल दलीय प्रतिबद्धता के इस विभाजनकारी काल में दलों के समर्थकों ने अपनी-अपनी धारणा को ही अंतिम सत्य मान लिया है। अतएव सत्यता से साक्षात्कार की अभिरुचि किसी की बची नहीं। यही वजह है कि आरोप-प्रत्यारोप के राजनीतिक घमासान में सत्यता को सत्यापित करने की मगजमारी से ज्यादा जोर धारणा को परिपुष्ट करने पर हो गया है। इस कौशल में जो दल जितना पारंगत वो उतना ज्यादा सफल।

इसलिए अब तेल देखो, तेल की धार देखो। सोशल मीडिया में घमासान छिड़ चुका है। रामभक्त वर्सेस रामद्रोही की उत्तेजक बहस में भाजपा की घेराबंदी सकने का सामर्थ्य रखने वाले मुद्दे अगर नेपथ्य में चले जाएं तो अचरज नहीं होना चाहिए। लेकिन क्या ऐसी स्थिति निर्मित करने के लिए विपक्ष स्वतः उत्तरदायी नहीं है? जब विपक्ष की प्राथमिकता कोरोना से हुई मौत के आंकड़ों की हेराफेरी उजागर करने की बजाए राममंदिर के लिए खरीदी गई जमीन में घोटाला खोजने की हो तो फिर भला ईवीएम को हैक होने से कौन रोक सकता है?

भव्य राममंदिर निर्माण की आकांक्षा रखने वालों की नजर में राममंदिर ट्रस्ट पर घोटाले का आरोप लगाने वाले वे कुढ़नखोर मशालची हैं, जो दूसरे का तेल जलने पर अपना दिल जला रहे हैं। तभी तो आरोप लगाने वालों को ये कह कर चिढ़ाया जा रहा है कि राममंदिर हमारा, चंदा हमारा, ट्रस्ट के खाते में जमा रुपया हमारा तो हमारी मर्जी, हम चाहे 18 करोड़ में खरीदें या 180 करोड़ में। एक ताना ये वायरल है कि जिन्होंने राममंदिर के लिए चवन्नी दान नहीं दी वो भी हिसाब मांग रहे हैं। इस सबके बीच एक दिलचस्प ऑफर भी है कि जिन्हें ट्रस्ट की नीयत पर भरोसा नहीं है, वो रसीद दिखाकर अपना चंदा वापस ले सकते हैं।

दरअसल लांछन की जनस्वीकार्यता आरोप लगाने वाले और जिस पर आरोप लगाया जा रहा है उन दोनों की नीयत और छवि से निर्धारित होती है। यही वजह है कि रामकाज के लिए अपना सर्वस्व जीवन समर्पित कर देने की छवि वाले चंपत राय पर लगाए जा रहे घोटाले के आरोप विश्वसनीयता की जनकसौटी पर फिलहाल खरे नहीं उतर पा रहे। आरोप लगाने वालों की छवि पर चंपत राय की छवि भारी पड़ी है। भाजपा दोनों पक्षों की छवियों के इस दीर्धांतर का उपयोग अपने विरोधियों को रामद्रोही के रूप में प्रचारित करने से नहीं चूकने वाली। भाजपा ने तो प्रचारित करना शुरू कर भी दिया है कि राममंदिर को लटकाने-भटकाने वाले, राम के अस्तित्व को नकारने वाले, रामभक्तों पर गोली चलाने वाले अगर सत्ता में आ गए तो राममंदिर का निर्माण खतरे में पड़ना तय है।

विपक्ष ने एक बार फिर हिंदुत्व को खतरे में डालने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। खतरे से बचाने की जिम्मेदारी लेने के लिए भाजपा तो बेताब बैठी ही थी। नेकी और पूछ-पूछ।