क्या भारत में सियासी हथियार बन चुका हैं UCC? जानें क्या है ‘समान नागरिक संहिता’ और क्यों है इसे लेकर गहरे मतभेद?

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Modified Date: June 15, 2023 / 05:25 PM IST
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Published Date: June 15, 2023 4:47 pm IST

नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा अपना आखिरी दांव चलती दिख रही है। ये दांव है समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड की। यह भाजपा के 2019 के घोषणा पत्र में शामिल रहा है। वैसे भाजपा अब तक अपनी ज्यादातर प्रमुख घोषणाओं को या तो अमल में ला चुकी है या फिर उन्हें पूरा करने कि कोशिशों में जुट चुकी है। ये सभी मुद्दे ऐसे हैं जो कुछ हद तक विवादों में रहे हैं, खासकर धार्मिक दृष्टिकोण से। (Complete information about Civil Uniform Code) इनमें प्रमुख रूप से राम मंदिर का विधिक तरीके से निर्माण, तीन तलाक के खिलाफ कानून निर्माण और जम्मू और कश्मीर से धारा 370 को हटाए जाने का प्रावधान शामिल हैं। भाजपा के लिए यूसीसी भी उपरोक्त मुद्दों के जितना ही अहम है। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि अब चूंकि देश में आम चुनाव नजदीक हैं लिहाजा यह मुद्दा भाजपा के लिए आसानी से ‘मिशन 2024’ में जीत की गारंटी बन सकती है ।

दरअसल, बुधवार को ही भारत के 22वें विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता के लिए लोगों से विचार और सुझाव आमंत्रित किए हैं। इच्‍छुक व्‍यक्तियों और मान्‍यता प्राप्‍त धार्मिक संगठनों से कहा गया है कि वे 30 दिन के भीतर अपने सुझाव भेज सकते हैं। इसके अलावा इच्‍छुक व्‍यक्ति अपने विचार और सुझाव ऑनलाइन लिंक के माध्यम अथवा मेम्बर सेक्रेटरी- Lci@Gov.in.com पर आयोग को मेल कर सकते हैं।

आयोग ने अपने बयान में कहा है, ”पूर्व की कवायदों के तहत आयोग को भारी प्रतिक्रियाएं मिली हैं। 21वें विधि आयोग ने 31.08.2018 को “परिवार कानून के सुधार” पर परामर्श पत्र जारी किया। पहली परामर्श पत्र जारी करने की तारीख से तीन साल से अधिक समय बीत चुका है, इस विषय की प्रासंगिकता और महत्व और इस विषय पर विभिन्न अदालती आदेशों को ध्यान में रखते हुए, भारत के 22 वें विधि आयोग ने इस विषय पर नए सिरे से विचार-विमर्श करना उचित समझा है।

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What is UCC?

क्या है सामान नागरिक संहिता?

समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) पर्सनल लॉ के सम्बन्ध में धार्मिक भेद-भावों का अंत करता है तथा सभी नागरिकों के लिए एक कानून की वकालत करता है। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में सभी धर्मों के लिए अलग-अलग नियम हैं। विवाह, संपत्ति और गोद लेने आदि में विभिन्‍न धर्म के लोग अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं। मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का अपना-अपना पर्सनल लॉ है। हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं।

सीधी भाषा में में समझा जाए तो समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड का अर्थ होता है भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक समान कानून होना, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो। समान नागरिक संहिता लागू होने से सभी धर्मों का एक कानून होगा। शादी, तलाक और जमीन-जायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होगा।

Know About Article-44

जानिए क्या है आर्टिकल-44?

सामान नागरिक संहिता को समझने और इसके प्रभाव को जानने के साथ ही जरूरी हैं की भारतीय संविधान के आर्टिकल 44 को समझा जाएं। भारतीय संविधान के भाग-4 में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का उल्लेख किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 के जरिए राज्य को विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर सुझाव दिए गए हैं और आशा की गई है कि राज्य अपनी नीतियां तय करते हुए इन नीति निर्देशक तत्वों को ध्यान में रखेंगे। इन्हीं में आर्टिकल-44 राज्य को उचित समय आने पर सभी धर्मों लिए ‘समान नागरिक संहिता’ बनाने का निर्देश दिया गया है। कुल मिलाकर आर्टिकल-44 का उद्देश्य कमजोर वर्गों से भेदभाव की समस्या को खत्म करके देशभर में विभिन्न सांस्कृतिक समूहों के बीच तालमेल बढ़ाना है। कमजोर समूहों के खिलाफ भेदभाव को संबोधित करना और पूरे देश में विभिन्न सांस्कृतिक समूहों को एक साथ लाना भारतीय संविधान में निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 44 के दो लक्ष्य थे।

UCC वांछनीय लेकिन स्वैच्छिक : डॉ अम्बेडकर

सामान नागरिक संहिता को लेकर कानून निर्माता डॉ भीमराव की स्पष्ट राय थी। वे समाज के सभी समूहों के हितचिंतक रहे। डॉ बीआर अम्बेडकर ने कहा था कि भारत का एक समान नागरिक संहिता वांछनीय है लेकिन संविधान का मसौदा तैयार करते समय स्वैच्छिक होना चाहिए। परिणामस्वरूप, संविधान के मसौदे के अनुच्छेद 35 को भारत के संविधान के भाग IV में राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 44 के रूप में जोड़ा गया था। संविधान में इसे एक खंड के रूप में शामिल किया गया था जिसकी पूर्ति तब होगी जब देश इसे अपनाने के लिए तैयार होगा और समान नागरिक संहिता सामाजिक स्वीकृति प्राप्त कर सकता है।

कैसे आया ये क़ानून अस्तित्व में?

यूसीसी का इतिहास स्वतंत्र भारत के इतिहास भी पुराना माना जाता हैं। इस पर न सिर्फ भारतीय राजनीतिज्ञों ने चर्चा की बल्कि ब्रिटिश काल में अंग्रेजो के लिए भी विविधता वाले भारत देश में यह बिल एक बड़ा मुद्दा रहा। ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने आपराधिक और राजस्व से संबंधित कानूनों को भारतीय दंड संहिता (IPC) 1860 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872, भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872, विशिष्ट राहत अधिनियम 1877 आदि के जरिए सभी भारतीयों पर लागू किया था, किन्तु शादी, तलाक, उत्तराधिकार, संपत्ति आदि से संबंधित मसलों को सभी धार्मिक समूहों के लिए उनकी मान्यताओं के आधार पर छोड़ दिया था। (Complete information about Civil Uniform Code) इन्हीं सिविल कानूनों में से हिंदुओं वाले पर्सनल कानूनों को देश के प्रथम पीएम पंडित जवाहरलाल नेहरू ने खत्म कर दिया, लेकिन मुस्लिमों को इससे बाहर रखा। हिंदुओं की धार्मिक प्रथाओं के तहत जारी कानूनों को रद्द करते हुए हिंदू कोड बिल के माध्यम से हिंदू विवाह अधिनियम 1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिंदू नाबालिग एवं अभिभावक अधिनियम 1956, हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956 लागू कर दिया गया।

क्यों हैं इस कानून पर विवाद?

प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बाद सत्तासीन हुई तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी द्वारा, मुस्लिमों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) बना दिया गया, जिसमें मुस्लिमों को उनके मजहब के आधार पर कानून बनाने की छूट दे दी गई। जिससे देश में दो कानून हो गए, एक सभी भारतीयों पर लागू होता था, केवल मुस्लिमों को छोड़कर। वहीं, मुसलमानों के लिए पर्सनल लॉ अपने मुताबिक फैसले लेता था, जो देश के कानून से अलग था। (Complete information about Civil Uniform Code) इसके बाद से ही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को लेकर समय-समय पर विवाद होता रहा है। इसके कारण ही अदालतों में मुस्लिम आरोपितों या अभियोजकों के मामले में सुनवाई के दौरान, कुरान और इस्लामिक रीति-रिवाजों का हवाला देना शुरू हो गया। देखा जाएँ तो सबसे बड़ा विवाद सिविल और क्रिमिनल लॉ को लेकर था। हिंदूवादी पक्ष को इस बात पर गहरी आपत्ति रही हैं की मुस्लिम शादी, तलाक, उत्तराधिकार और सम्पत्ति बंटवारा जैसे विवादों पर सिविल लॉ को मानने को तैयार नहीं, इसके लिए वे शरीयत की दुहाई दे रहे लेकिन क्रिमिनल लॉ को लेकर उनमें किसी तरह की आपत्ति नहीं है। वे यहाँ शरीयत को लागू करने के पक्ष में नहीं हैं। हालांकि यह व्यवहारिक तौर पर भी असंभव है।

लागू करने में क्या हैं अड़चने?

सामान नागरिक संहिता के जनहित में होने या नहीं होने, इसके पीछे छिपी राजनितिक मंशा और इस कानून में संशोधनों को अगर किनारे रख दिया जाए तो जो सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है वह यही है कि क्या इस कानून को उतनी सहजता से भारत में लागू किया जा सकता है, जितनी सहजता से इस पर सियासी बयानबाजी होती है? क्या इसे धार्मिक दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए जबकि भारत जनजातियों का भी देश हैं और उन्हें कानून में संरक्षण प्राप्त हैं। मसलन क्या सामान नागरिक कानून पूर्वोत्तर के आदिवासी इलाको में लागू किया जा सकेगा? क्या छत्तीसगढ़ के अति संरक्षित जनजातियों को इस कानून के दायरे में लाया जा सकेगा जो अपनी पारम्परिक रीती-नीतियों के तहत समाज का संचालन करते है और उन्हें संरक्षित करने के लिए खुद सरकार ने संविधान में कई कानूनी प्रावधान किये है। तो ऐसे में क्या यह दो कानूनों के बीच टकराव की वजह नहीं बनेगा?

दक्षिण और वाम कानून विशेषज्ञों की इस पर राय जरूर अलग है लेकिन इस समस्या का समाधान अभी भी नहीं ढूँढा जा सका है। इस तरह कानून विशेषज्ञों का मानना है कि भारत जैसे बेहद विविध और विशाल देश में समान नागरिक क़ानून को एकीकृत करना बेहद मुश्किल है। उदाहरण के तौर पर देखें तो हिंदू भले ही व्यक्तिगत क़ानूनों का पालन करते हैं लेकिन वो विभिन्न राज्यों में विभिन्न समुदायों की प्रथाओं और रीति-रिवाजों को भी मानते हैं। बात अगर गोवा की करें तो वहां 1867 का समान नागरिक क़ानून है जो कि उसके सभी समुदायों पर लागू होता है लेकिन कैथोलिक ईसाइयों और दूसरे समुदायों के लिए अलग नियम हैं। जैसे कि केवल गोवा में ही हिंदू दो शादियां कर सकते हैं इसी तरह संपत्ति और उत्तराधिकार के मामलों में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग क़ानून है। पूर्वोत्तर भारत के ईसाई बहुल राज्यों जैसे कि नागालैंड और मिज़ोरम में अपने पर्सनल लॉ हैं और वहां पर अपनी प्रथाओं का पालन होता है न कि धर्म का।

कैसे हो सकता हैं UCC लागू?

मुख्य याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय का भी मानना है कि सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट सीधे-सीधे सरकार को यह नहीं कह सकता कि कानून बनाओ। वह सिर्फ अपनी भावना व्यक्त कर सकता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट सरकार को ये कह सकता है कि आप एक जुडिशियल कमीशन बना दो या एक एक्सपर्ट कमेटी बना दो जो विकसित देशों के कॉमन सिविल कोड को पढ़ लें तथा भारत में चल रहे हिंदू-मुस्लिम मैरिज एक्ट को पढ़ लें, (Complete information about Civil Uniform Code) इन सबको पढ़ कर सबकी अच्छाइयों को मिलाकर एक मॉडल यूनिफार्म सिविल कोड को ड्राफ्ट करके गृहमंत्रालय और कानून मंत्रालय की वेबसाइट पर डाल दे। इससे फायदा यह होगा कि इसपर खूब चर्चा होगी।

उपाध्याय ने कहा कि दूसरा तरीका यह है कि हाईकोर्ट लॉ कमीशन को सीधा आर्डर दे सकता है। लॉ कमीशन की लेटेस्ट रिपोर्ट दिल्ली हाईकोर्ट के कहने पर ही बनी है। समान नागरिक संहिता पर जागरूकता बढ़ाने और आम राय कायम करने में एचआरडी मिनिस्ट्री का बहुत बड़ा रोल हो सकता है, सभी विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में समान नागरिक संहिता पर निबंध लेखन और वाद विवाद प्रतियोगिता शुरू किया जा सकता है।

गोवा में लागू है UCC, CJI ने की थी सराहना

बता दें कि देश में गोवा एकलौता ऐसा राज्य है जहाँ UCC लागू है। गोवा में साल 1962 में यह कानून लागू किया गया था। दरअसल, वर्ष 1961 में गोवा के भारत में विलय होने के बाद भारतीय संसद ने गोवा में ‘पुर्तगाल सिविल कोड 1867’ को लागू करने का प्रावधान किया था। इसके तहत गोवा में UCC लागू हो गई और तब से प्रदेश में यह कानून लागू है। कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व सीजेआई एस ए बोबडे ने भी गोवा में लागू समान नागरिक संहिता (UCC) कि प्रशंसा की थी। सीजेआई ने कहा था कि गोवा के पास पहले से ही वह मौजूद है, जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने पूरे भारत के लिए की थी।

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समान नागरिक संहिता पर अदालतों की राय

  • सामान नागरिक संहिता पर कोर्ट की राय है की ‘संसद को एक समान नागरिक संहिता की रूपरेखा बनानी चाहिए, क्योंकि ये एक ऐसा साधन है जिससे कानून के समक्ष समान सद्भाव और समानता की सुविधा देता है।’ कोर्ट ने यह टिप्पणी 1985 में शाहबानो के मामले में फैसला देते हुए कहा था।
  • आठ साल पहले 2015 में एक मामले में सुको ने कहा था, ईसाई कानून के तहत ईसाई महिलाओं को अपने बच्चे का ‘नैचुरल गार्जियन’ नहीं माना जा सकता, जबकि अविवाहित हिंदू महिला को बच्चे का ‘नैचुरल गार्जियन’ माना जाता है। उस समय सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक जरूरत है।
  • तीन साल पहले 2020 में जेंडर इक्विलिटी सुनिश्चित करने के लिए सुको ने हिंदू उत्तराधिकार कानून में 2005 में किए गए संशोधन की व्याख्या की थी। अदालत ने ऐतिहासिक फैसले में बेटियों को भी बेटों की तरह पैतृक संपत्ति में समान हिस्सेदार माना था। दरअसल 2005 में हिंदू उत्तराधिकार कानून,1956 में संशोधन किया गया था। इसके तहत पैतृक संपत्ति में बेटियों को बराबरी का हिस्सा देने की बात कही गई थी।
  • इसी तरह 2021 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी कहा था कि संसद को समान पारिवारिक कानून लाने पर विचार करना चाहिए, (Complete information about Civil Uniform Code) ताकि लोग अलग-अलग कानूनी बाधाओं का सामना किए बगैर स्वतंत्र रूप से मिल-जुलकर रह सकें।

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