पूर्व राजनयिक राघवन ने तकनीकी आधार पर सिंधु जल संधि का बचाव किया

पूर्व राजनयिक राघवन ने तकनीकी आधार पर सिंधु जल संधि का बचाव किया

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  • Publish Date - September 4, 2025 / 08:01 PM IST,
    Updated On - September 4, 2025 / 08:01 PM IST

नयी दिल्ली, चार सितंबर (भाषा) पाकिस्तान में उच्चायुक्त रहे टीसीए राघवन का कहना है कि सिंधु जल संधि एक राजनीतिक संधि न होकर एक ‘‘तकनीकी संधि’’ है। उन्होंने आगाह किया कि इस तरह के तकनीकी रूप से जटिल नदी जल समझौते पर ‘‘सामान्य समझ’’ का इस्तेमाल करने से गलतियां हो सकती हैं।

उत्तम कुमार सिन्हा द्वारा लिखित और हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘‘ट्रायल बाय वॉटर: इंडस बेसिन एंड इंडिया-पाकिस्तान रिलेशंस’’ पर चर्चा के दौरान राघवन ने इस दावे की विडंबना पर टिप्पणी की कि भारत भीषण बाढ़ के समय ‘‘अपना सारा पानी पाकिस्तान को दे रहा है’’, जबकि इस समय वास्तव में पूरा ध्यान यथासंभव अधिक से अधिक पानी को निकालने पर है।

उन्होंने कहा, ‘‘संधि से कुछ नहीं मिला। आपको याद रखना होगा कि भूगोल और गुरुत्वाकर्षण यहां मुख्य कारक हैं। कागज का टुकड़ा पानी को अरब सागर में नहीं ले जाता। यह पृथ्वी का प्राकृतिक मोड़ है। इसलिए आप जो भी करते हैं, आप उस प्राकृतिक मोड़ में हस्तक्षेप कर रहे होते हैं। और आप अपने देश के लिए अधिकतम लाभ उठाने की कोशिश कर रहे होते हैं।’’

राघवन ने कहा, ‘‘अब हम ऐसे माहौल में रह रहे हैं, विशेष रूप से भारत में, जहां सिंधु जल संधि से जुड़ी भावनाएं चर्चाओं को कुछ हद तक आश्चर्यजनक बना देती हैं।’’

पाकिस्तान के साथ 1960 की सिंधु जल संधि (आईडब्ल्यूटी) के तहत, जिसे भारत ने पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में स्थगित रखा है, भारत पूर्वी नदियों – रावी, ब्यास और सतलुज – से पानी का निर्बाध तरीके से उपयोग करता है।

पश्चिमी नदियाँ – सिंधु, झेलम और चिनाब – पाकिस्तान को आवंटित हैं, लेकिन भारत को कुछ गैर-उपभोग्य उद्देश्यों जैसे कि नौवहन, बाढ़ प्रबंधन, घरेलू और कृषि उपयोग और जलविद्युत उत्पादन के लिए उनका उपयोग करने की अनुमति है।

पूर्व राजनयिक राघवन ने छह जून 2013 से 31 दिसंबर 2015 को अपनी सेवानिवृत्ति तक पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त के रूप में कार्य किया था। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि कैसे भारतीय इंजीनियरों का ध्यान मुख्य रूप से पूर्वी पंजाब और राजस्थान की विकास आवश्यकताओं के कारण पूर्वी नदियों पर केंद्रित था, और कैसे इसे उच्च प्राथमिकता न देना ‘‘आत्मघाती’’ हो सकता था।

उन्होंने कहा, ‘‘मुद्दा यह है कि अगर हम अब लक्ष्य बदल दें और कहें कि पूर्वी नदियां महत्वहीन हैं और पश्चिमी नदियां ही महत्वपूर्ण हैं, तो हम वास्तव में संधि के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं और संधि की तकनीकी प्रकृति को समझ नहीं पा रहे हैं। अब यह समझना महत्वपूर्ण है कि सिंधु जल संधि एक इंजीनियरिंग (तकनीकी) संधि है।’’

अपनी बात को पुष्ट करने के लिए उन्होंने पुस्तक के एक अंश को उद्धृत किया, जिसमें उन्होंने भारत द्वारा पाकिस्तान को बहुत अधिक पानी दिए जाने की गलत आलोचना पर अपनी बात को रेखांकित किया था।

उन्होंने कहा, ‘‘दूसरी आलोचना यह है कि भारत ने पाकिस्तान को बहुत अधिक पानी दे दिया है, जो मुख्य रूप से पाकिस्तान विरोधी भावनाओं से प्रेरित है और इस तथ्य को नजरअंदाज करती है कि सिंधु जल संधि, कई मायनों में, 1947 से चल रहे मतभेदों का समाधान थी। जैसा कि नेहरू ने संधि का बचाव करते हुए कहा था, ‘हमने एक समझौता खरीदा है, अगर आप कहें तो; हमने शांति खरीदी है’।’’

पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया द्वारा प्रकाशित पुस्तक का हवाला देते हुए राघवन ने कहा, ‘‘सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय वार्ताकार समझौता करने से कोसों दूर थे और इसके विपरीत चीजों को पेश करना अन्यायपूर्ण तरीके से उनके राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को अनदेखा करना है।’’

लेखक सिन्हा ने राघवन के दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए कहा कि इस संधि को अक्सर गलत बताना इसको ‘राजनीतिक तरीके से पेश करना’ है- सामान्य धारणा यह है कि सिंधु बेसिन को इस प्रकार विभाजित किया गया था कि 80 फीसदी पानी पाकिस्तान को गया और भारत को केवल 20 फीसदी पानी मिला।

हालांकि, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि तकनीकी वास्तविकता एक अलग कहानी कहती है और उन्होंने तर्क दिया कि यही वह जगह है जहां संधि को गलत समझा गया।

लेकिन चर्चा में शामिल पूर्व उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अरविंद गुप्ता ने इन बातों से असहमति जताते हुए संधि को मूल रूप से ‘अनुचित’ बताया, क्योंकि इसने भारत के मुकाबले पाकिस्तान को काफी लाभ प्रदान किया।

भाषा देवेंद्र नरेश

नरेश