जयंती विशेष – बैर कराते मंदिर मस्जिद ,मेल कराती मधुशाला -हरिवंश राय बच्चन

जयंती विशेष - बैर कराते मंदिर मस्जिद ,मेल कराती मधुशाला -हरिवंश राय बच्चन

जयंती विशेष – बैर कराते मंदिर मस्जिद ,मेल कराती मधुशाला -हरिवंश राय बच्चन
Modified Date: December 4, 2022 / 02:15 pm IST
Published Date: December 4, 2022 2:15 pm IST

हरिवंश राय श्रीवास्तव “बच्चन” हिन्दी भाषा के एक ऐसे कवि और लेखक थे जिन्हे ‘हालावाद’ के प्रवर्तक के रूप में ज्यादा पहचान मिली उन्होने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। बाद में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ रहे.बच्चन का जन्म 27 नवम्बर 1907 को इलाहाबाद से सटे प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव बाबूपट्टी में एक कायस्थ परिवार मे हुआ था। इनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव तथा माता का नाम सरस्वती देवी था.इनको बाल्यकाल में ‘बच्चन’ कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ ‘बच्चा’ या ‘संतान’ होता है। बाद में ये इसी नाम से मशहूर हुए। इन्होंने कायस्थ पाठशाला में पहले उर्दू की शिक्षा ली जो उस समय कानून की डिग्री के लिए पहला कदम माना जाता था। उन्होने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम. ए. और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएच. डी. पूरी की .अमिताभ बच्चन के पिता हरिवंश राय बच्चन हिंदी साहित्य के लोकप्रिय नामों में से एक हैं.हिंदी कविता और साहित्य के लोग उन्हें उनकी मधुबाला की रचना कर के रूप में ज्यादा जानते है। यहां भी एक तथ्य है कि हरिवंश राय बच्चन भले ही हिंदी के लोकप्रिय कवियों में से एक हों लेकिन उन्हें हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में भी बहुत अधिक जगह नहीं दी गई है. उनकी गिनती हिंदी के बड़े-बड़े कवियों में नहीं की जाती है. पर यह कहने में कोई गुरेज नहीं आज भी हिंदी के जिन कवियों की कविताएं और किताबें सबसे अधिक पढ़ी और खरीदी जाती हैं, उनमें हरिवंश राय बच्चन भी शामिल हैं.

 

हरिवंश राय बच्चन को सबसे अधिक लोकप्रियता ‘मधुशाला’ की वजह से मिली. यह बच्चन की दूसरी रचना थी और 1935 में लिखी गई थी. इसके बाद 1936 में ‘मधुबाला’ और 1937 में ‘मधुकलश’ प्रकाशित हुई. इन तीनों रचनाओं ने हिंदी साहित्य में हालावाद की नींव डाली. जिसकी तर्ज पर कई और कवियों ने भी कविताएं लिखीं. यह वह दौर था जब प्रगतिवाद की नींव पड़ रही थी और छायावाद अपने अंतिम दौर में था. रहस्यवाद, क्षणवाद और व्यक्तिवाद से हिंदी कविता को मुक्त करने की बात कही जा रही थी. यहां तक कि छायावादी कवियों ने भी ‘युगांत’ की घोषणा कर दी थी.

 

 खासकर बच्चन ने छंद आधारित कविताएं लिखीं, जिसका छायावाद के दौरान निषेध किया गया था. साथ ही विषय के स्तर में भी बच्चन ने प्रगतिवाद से तालमेल बैठाने की कोशिश की. प्रगतिवाद साम्यवाद से प्रभावित समानता का हिमायती था. बच्चन की मधुशाला भी समानता की हिमायत करती है. बच्चन लिखते है.धर्मग्रंथ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला, मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला, पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका, कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।

बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला, बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला, लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरी गढ़ों की दीवारें, रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।

बच्चन की यह पंक्तियां जहां एक और समानता की वकालत करती हैं, वहीं इशारों में यह भी कहती हैं कि यह समानता सिर्फ मदिरालय में ही संभव है. यानी वे साम्यवाद को एक ऐसी वस्तु मानते हैं जो बहुत ही मुश्किल से मिलने वाली है या यूटोपिया है. दरअसल बच्चन की मधुशाला एक साम्यवादी जगह ही हैं. इसी वजह से वे हर तरह के अंतरविरोधों का हल मधुशाला में ही ढूंढ़ते हैं. वैसे यह भी एक तथ्य है कि हरिवंश राय बच्चन ने कभी न शराब पी थी और न ही किसी मधुशाला में गए थे. 

 गंभीर बात कहने वाला कवि

हरिवंश राय बच्चन की लोकप्रियता की सबसे बड़ी वजह यह थी कि वे बहुत ही गंभीर मुद्दों को सरल अंदाज में बयां करना जानते थे. आज के दौर में जब मंदिर-मस्जिद के मुद्दे पर घमासान मचा हुआ है, तब 1935 में उनकी लिखी हुईं ये पंक्तियां किसी को भी याद आ जाती हैः

मुसलमान औ’ हिंदू है दो, एक, मगर, उनका प्याला, एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला, दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मंदिर में जाते, बैर बढ़ाते मस्जिद मंदिर मेल कराती मधुशाला!।।


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